सम्पादकीय

भारत को बदलने वाले वे दिन

Rani Sahu
19 July 2021 5:48 PM GMT
भारत को बदलने वाले वे दिन
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भारत को बदलने वाले वे दिन

हरजिंदर। मानसून उस साल मामूली-सा बरसा था। 1991 की जुलाई का पहला पखवाड़ा बीतते-बीतते यह साफ हो गया था कि इस साल कौन से इलाकों में हरियाली बिखरेगी और कौन से सूखे रह जाएंगे। लेकिन यह वह महीना था, जब रुत कहीं और बदलने वाली थी। संसद का सत्र शुरू हो गया था और रेल बजट, आर्थिक सर्वे और सालाना बजट पेश किए जाने वाले थे। ये आर्थिक संशय के दिन थे और लोगों की आशंकाएं वहीं विराजमान थीं, जहां वे संकटकाल आते ही पहुंच जाती हैं।

महंगाई सातवें आसमान से भी ऊपर थी। मुद्रास्फीति का आंकड़ा दहाई अंक पार कर चुका था। देश की विदेशी मुद्रा वाली तिजोरी के बारे में तब जो खबरें आ चुकी थीं, वे सब की सब डराने वाली थीं। पेट्रोल जैसी जरूरी चीजों का आयात हो सके, इसके लिए डॉलर की जुगाड़ में सरकार देश का 47 टन सोना गिरवी रख चुकी थी। भारतीय रुपये का दो बार अवमूल्यन किया जा चुका था और आगे क्या होगा, इसे लेकर बहुत से डर हर मन में समाए हुए थे। वाणिज्य मंत्री पी चिदंबरम ने वाणिज्य नीति का एक मसौदा जुलाई के शुरू में पेश कर दिया था, जो आयात और निर्यात पर लगी तमाम पाबंदियों को हटाकर कुछ उम्मीद जरूर बंधाता था। इसमें निर्यातकों के लिए ढेर सारी वास्तविक रियायतें और प्रोत्साहन थे, लेकिन पूरा संकट इतना बड़ा था कि इससे बाधाओं के किसी पहाड़ को खोद लेने की उम्मीद नहीं बांधी जा सकती थी। संकट अर्थव्यवस्था ही नहीं, राजनीति के मोर्चे पर भी था। पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की पहली बार दिल्ली में गठबंधन सरकार बनाने की मजबूरी थी। देश की सबसे पुरानी पार्टी इन नई स्थितियों में खुद को कितना ढाल सकती है, इसे लेकर कई तरह के शक थे। लेकिन असल खतरा समर्थन देने वाले दलों से नहीं, खुद कांग्रेस के भीतर से था। जिस पद पर नरसिंह राव विराजमान हुए थे, उस पर कई तरफ से घात लगी हुई थी। यही वजह थी कि जुलाई के पहले सप्ताह में जब उद्योग मंत्री पी जे कुरियन ने लाइसेंस-परमिट राज खत्म करने और विदेशी निवेश के दरवाजे-खिड़कियां खोलने वाली नई उद्योग नीति तैयार की, उसे सबसे पहले मंत्रिमंडल ने ही धूल चटा दी। इसी के साथ जो राजनीतिक जोड़-तोड़ शुरू हुई, उसने इस पूरे मसले को कांग्रेस कार्यसमिति तक पहुंचा दिया। तीन सप्ताह की मशक्कत के बाद मंत्रिमंडल ने जब इस नीति को हरी झंडी दिखाई, तब संसद का सत्र शुरू हो चुका था।
संसद का यह सत्र शुरुआती दिनों में किसी बड़े बदलाव का संकेत देने वाला नहीं था। यहां तक कि जब रेल मंत्री सी के जाफर शरीफ ने संसद में रेल बजट पेश किया, तब उसमें कोई ऐसी बड़ी बात नहीं थी, जिसका आज 30 साल बाद जिक्र करना जरूरी हो। आर्थिक सर्वेक्षण के शुरुआती हिस्सों में ऐसा कुछ नहीं था, जिससे बड़ी उम्मीद बंधती हो। वैसे भी आर्थिक सर्वेक्षण बीत चुके वित्त वर्ष का लेखा-जोखा होता है और एक आर्थिक संकट के वर्ष में यही उम्मीद की जाती है कि इसमें भरोसा जताते हुए कुछ रोना-धोना ही होगा। इस सर्वे के आखिरी अध्याय में जहां संभावनाओं की बात की गई थी, वहां जरूर यह लगा कि वित्तीय मोर्चे पर सरकार कुछ बड़ा करने वाली है। उससे यह साफ था कि सरकार वित्तीय घाटे को कम करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने जा रही है। हालांकि, आलोचकों ने तब इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबावों का ही एक नतीजा बताया था।
इसलिए 24 जुलाई, 1991 को वित्त मंत्री मनमोहन सिंह जब अपना पहला बजट पेश करने के लिए खड़े हुए, तब किसी को भी साफ तौर पर नहीं पता था कि उनसे क्या उम्मीद बांधी जाए? कुछ औपचारिक बातों और राजीव गांधी को श्रद्धांजलि देने के बाद जब उनका भाषण आगे बढ़ा, तो साफ हो गया कि पिछले कुछ साल की परंपराओं से अलग यह बजट खैरात बांटने वाला नहीं, मुश्तें बांधने वाला है। अपनी मंशा को उन्होंने बजट भाषण की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया, 'अब वक्त को और बरबाद नहीं किया जा सकता। न तो सरकार और न ही अर्थव्यवस्था, अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च के भरोसे लंबे समय तक चल सकती है। धन और समय उधार लेकर तिकड़म भिड़ाने का अवसर अब जरा भी नहीं है।'
यह पहला ऐसा बजट था, जिसमें वित्तीय घाटे को कम करने के लिए कई कडे़ कदम उठाए गए। पेट्रोल, डीजल और उर्वरक जैसी कई उन चीजों के दाम बढ़ाए गए, जिन पर सरकार की भारी सब्सिडी स्वाहा हो जाती थी। सिर्फ केरोसिन को बख्शा गया, जिसके दाम थोडे़ कम कर दिए गए। बजट की तमाम वित्तीय विसंगतियों को भी अलविदा कर दिया गया। विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए बहुत सारी घोषणाओं के साथ घाटे में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के विनिवेश की घोषणा भी इस बजट में की गई। मनमोहन सिंह उस दिन बजट नहीं पेश कर रहे थे, भारत को एक कड़वी दवा दे रहे थे, जिसे संकट से मुकाबिल देश ने सहज ही स्वीकार भी कर लिया था। बजट भाषण के अंत में उन्होंने विक्टर ह्यूगो की कही एक बात का हवाला दिया, 'उस विचार को कोई भी नहीं रोक सकता, जिसका समय आ गया है'।
उस बजट से जो परंपरा शुरू हुई, उसे हम उदारीकरण कहते हैं, जिसमें बजट के साथ ही राव सरकार की उद्योग नीति और वाणिज्य नीति भी मिलकर एक लय में चल रही थीं। और सचमुच इस विचार का समय आ गया था। उस मौके पर उदारीकरण का जमकर विरोध करने वाले भी जब सत्ता में आए, तो समय के इस पहिये को उल्टा नहीं घुमा सके। यह उदारीकरण ही था, जिसने देश को दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकतों और आर्थिक संभावनाओं के समक्ष ला खड़ा किया। इसी का नतीजा था कि देश की विकास दर लगातार बढ़ते हुए दहाई अंक तक पहुंच गई। आज फिर देश एक आर्थिक संकट में है, कहीं ज्यादा गहरे आर्थिक संकट में। ऐसे में, 30 साल पहले का वह जुलाई महीना एक रोल मॉडल का काम कर सकता है, जब लंबे-चौड़े वादे नहीं किए गए थे, बल्कि बड़े और दूरदर्शी कदम उठाए गए थे।


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