सम्पादकीय

अबकी बार, अध्यक्ष 'वफादार'

Rani Sahu
21 Sep 2022 6:57 PM GMT
अबकी बार, अध्यक्ष वफादार
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कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और आलाकमानी नेता राहुल गांधी के साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मुलाकातों का सारांश स्पष्ट है कि इस बार 'गांधी परिवार' अध्यक्षी से अलग रहना चाहता है। हालांकि अभी तक कोई सार्वजनिक बयान नहीं आया है, लेकिन मुख्यमंत्री गहलोत ने मंगलवार को विधायक दल की बैठक बुलाई थी और उन्हें खुलासा किया कि यदि गांधी परिवार का सदस्य अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ेगा, तो वह एक 'निष्ठावान कांग्रेसी' के तौर पर अध्यक्षी का चुनाव लड़ेंगे। पार्टी में दूसरा खेमा वह है, जो पार्टी नेतृत्व की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट है और कार्यसमिति में भी चुनाव का पक्षधर है, लेकिन यह खेमा आज भी पार्टी का ही हिस्सा है। उसके सदस्य सांसद शशि थरूर भी हैं। उन्होंने भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी। हमें नहीं लगता कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लडऩे के लिए गांधी परिवार की अनुमति अनिवार्य है।
इतिहास में शरद पवार, राजेश पायलट, जितेन्द्र प्रसाद सरीखे असंतुष्ट नेता हुए हैं, जिन्होंने अध्यक्ष का चुनाव लड़ा और करारी पराजय झेलनी पड़ी। महात्मा गांधी के दौर में जाएं, तो सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे, लेकिन जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर गांधी ने उनका इस्तीफा ले लिया था। देश की आज़ादी के बाद जेबी कृपलानी और पुरुषोत्तम दास टंडन सरीखे नेता कांग्रेस अध्यक्ष बने थे, लेकिन नेहरू की वर्चस्ववादी सोच के सामने वे ज्यादा देर तक टिक नहीं पाए। मौजूदा दौर में राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाहेंगे अथवा नहीं, यह अभी तक असमंजस का सवाल है। अलबत्ता राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि कांग्रेस की प्रदेश समितियों ने प्रस्ताव पारित कर राहुल गांधी को अध्यक्ष बनने के आग्रह किए हैं। कांग्रेसियों की भावनाओं को समझने की गुहार लगाई है, लेकिन राहुल के मुताबिक, वह तय कर चुके हैं। यदि उन्होंने अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ा, तो वह इसके कारणों का खुलासा मीडिया के सामने करेंगे। राहुल गांधी 2017-19 में कांग्रेस अध्यक्ष रहे हैं, लेकिन मई, 2019 के आम चुनाव में पार्टी की करारी पराजय के बाद उन्होंने जुलाई, 2019 में इस्तीफा दे दिया था। तब से वह परदे के पीछे कांग्रेस आलाकमान की भूमिका जरूर अदा कर रहे हैं, लेकिन स्थायी अध्यक्ष बनने से परहेज कर रहे हैं। कारण वह ही बताएंगे। बहरहाल ज्यादा संभावनाएं ये हैं कि इस बार गांधी परिवार का कोई 'वफादार कांग्रेसी' ही अध्यक्ष चुना जा सकता है। यकीनन वह खुदमुख्तार नहीं होगा, बल्कि परिवार के अदृश्य और अघोषित निर्देशों के मुताबिक काम करता रहेगा। यदि हम महात्मा गांधी के दौर की कांग्रेस की परंपरा में मौजूदा कांग्रेस को भी मान लें, तो उसके इतिहास में करीब 38 साल तक नेहरू-गांधी परिवार के 5 सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं और करीब 35 साल तक गैर-गांधी 13 नेताओं ने अध्यक्षी का दायित्व संभाला है। उनमें नीलम संजीवा रेड्डी, कामराज, निजलिंगप्पा सरीखे कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे हैं, जो कांग्रेस विभाजन के सूत्रधार बने। नतीजतन कांग्रेस इंदिरा का गठन किया गया। सोनिया-राहुल गांधी उसी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं।
गैर-गांधी अध्यक्षों में देवराज अर्स, जगजीवन राम, शंकर दयाल शर्मा, पीवी नरसिंह राव, सीताराम केसरी के नाम उल्लेखनीय हैं। बहरहाल कांग्रेस अध्यक्ष उन हालात में चुना जाना है, जब बड़े नेता पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं। भाजपा कांग्रेस का 'शून्य' भर चुकी है और सामने प्रधानमंत्री मोदी की ताकतवर चुनौती है। कांग्रेस बिखर ही नहीं रही है, बल्कि उसकी स्वीकार्यता भी बहुत कम हो गई है। 2014 में मोदी कालखंड शुरू होने तक देश के 14 राज्यों में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकारें थीं। आज राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस सरकारें हैं और बिहार, झारखंड की गठबंधन सरकारों में कांग्रेस एक घटक मात्र है। 2024 के आम चुनाव 18 माह दूर ही हैं। उससे पहले दर्जन भर राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा कांग्रेस को जोडऩे और उसके राष्ट्रीय पुनरोत्थान की गुरुत्तर चुनौती और जिम्मेदारी नए अध्यक्ष के सामने होगी। कांग्रेस की हर धडक़न पर निगाह रखना और उसका सम्यक विश्लेषण करना भी जरूरी है, क्योंकि कांग्रेस ही सबसे पुरानी पार्टी है और विपक्ष का प्रतीक है। बहरहाल कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की तस्वीर 2-3 दिन में और भी स्पष्ट हो जाएगी, लेकिन सक्रियता बढ़ गई है। जो भी नया अध्यक्ष चुना जाएगा, उसके समक्ष चुनौती यह होगी कि पार्टी से नेताओं के दूसरे दलों में चले जाने के अभियान पर रोक लगे। सभी वर्गों को एक साथ चलाना नए अध्यक्ष के समक्ष दूसरी चुनौती होगी। पार्टी के प्रति जनता का समर्थन भी जुटाना होगा। पार्टी की चुनावी संभावनाओं को जीत में बदलना होगा। कांग्रेस की अभी भी प्रासंगिकता है, यह बात जनता के दिमाग में बिठानी होगी।
By: divyahimachal
Rani Sahu

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