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कमांडर इन चीफ के सपने
म्यांमार में एक फ़रवरी 2021 को कुछ ऐसा हुआ जिसका अंदेशा दूर दूर तक नही लग रहा था. ख़ासतौर पर ऐसे समय में जब पूरी दुनिया कोविड महामारी की दूसरी स्ट्राइक को लेकर चिंता में थी. म्यांमार में चिंता महामारी से ज़्यादा अपने अधिकारो को लेकर थी. 2015 के बाद एक बार फिर से पिछले साल 2020 म्यांमार में चुनाव हए. एक फ़रवरी 2021 यानी सोमवार को सुबह पार्टी को अपना दूसरा कार्यकाल शुरू करना था, लेकिन हुआ कुछ उल्टा ही. संसद के पहले सत्र से कुछ घंटे पहले ही कई महत्वपूर्ण नेताओ को गिरफ़्तार कर लिया गया. यहां तक की सबसे पॉप्युलर नेता आंग सान सू की को भी नज़रबंद कर दिया गया. देश के सभी महत्वपूर्ण शहरों की सड़कों पर आर्मी और पुलिस नज़र आई. लोगों के अधिकारों पर पाबंदी, रेडियो, टीवी और सोशल मीडिया पर भी पाबंदी लगा दी गई.
अब सवाल ये खड़ा हो रहा है ऐसा क्यूं हुआ? और इस बार इस तख्तापलट को लेकर इतना विरोध प्रदर्शन क्यों, जबकि म्यांमार लम्बे समय तक इसी तरह के माहौल में रहने का आदी रहा है. 1962 से लेकर 2011 तक म्यांमार में इसी तरह की पाबंदी रही है. सैन्य शासन भी रहा है. अंतरराष्ट्रीय पाबंदी भी रही है, लोगों के अधिकार भी सीमित रहे तो तब ऐसे बड़े परदर्शन क्यों नही हुए. इसको समझना ज़रूरी है. दरसल इससे पहले जब भी इसी तरह का सैनिक शासन यानी कूप हुआ था तब से अबतक म्यांमार की आर्मी (Tatmadaw), अंतरराष्ट्रीय हालत , अंदरूनी व्यवस्था सब कुछ बदल चुकी है.
इस बार का कूप किसी सिस्टम के ख़िलाफ़ नहीं
इन सब में एक मोटे पहलू पर गौर किया जाए तो वो यह है कि पहले की कूप व्यवस्था के ख़िलाफ़ उसे संभालने या फिर ठीक करने के मक़सद से थे, लेकिन इस बार का कूप किसी सिस्टम के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि एक सरकार के ख़िलाफ़ है. वो भी उस सरकार के जिसे जनता ने चुना है और उसका नेतृत्व कर रही थी एक ऐसी महिला जिसको देश ही नही पूरी दुनिया में बड़े समान के साथ देखा जाता रहा है. बहुत हद तक पहले म्यांमार की आर्मी को 'गार्जियन ऑफ नेशन' के तौर पर जाना जाता था, लेकिन इस बार वो 'रूरल ऑफ नेशन' के तौर पर देखी जा रही है. लोगों की नाराज़गी इसी बात को लेकर ज़्यादा है कि सेना एक दम से ऐसे कैसे कर सकती है.
कमांडर इन चीफ के सपने
तीसरा पहले के कमांडर इन चीफ के राजनीतिक सपने ऐसे नही थे, जैसे की इस समय के कमांडर इन कमांडर इन चीफ जनरल मिन आंग के हैं. म्यांमार के लोगों का माना है कि वो लंबे समय से राष्ट्रपति की गद्दी पर नज़र बनाए हए थे और सही मौक़े की तलाश में थे. इसका अंदाज़ा उनके लगातार अंतराराष्ट्रीय दौरौं को लेकर भी साफ़ लगाया जा सकता है. चौथा म्यांमार के लोगों का पिछले 10 साल में दुनिया के दूसरे कोनों से जुड़ना और सोशल मीडिया पर लगातार एक्टिव होना. यहां तक कि जब कूप अभी अपने जरम पर है, तब सड़कों पर लोगों को रोकने से ज़्यादा वहां की आर्मी की दिक़्क़त उनके सोशल प्लेटफॉर्म्स पर जारी वीडियो और संदेशों पर पाबंदी लगाने में आ रही है.
चीन का म्यामांदर में दखल
सबसे आख़िर और महत्वपूर्ण चीन का लगातार बढ़ते म्यांमार में दख़ल को लेकर भी है. दरसल चीन चाहता है कि वहां एक सरकार हो, जो कि उसके राष्ट्रहितों को देखे. चीन चाहता है कि उसे म्यांमार के पास बंगाल की खाड़ी तक सागर सीमा तक आने दिया जाए और वो वहां विस्तार कर सके. म्यांमार की जनता में इन सभी मुद्दों को लेकर नाराज़गी है. कारण कितने भी हों, लेकिन लगातार आक्रामक होते प्रदर्शन और सेना के कदमों के जल्दी रुक पाने की कोई उम्मीद नही दिख रही है. यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय दबाव भी म्यांमार पर कुछ ख़ास नज़र नही आ रहा है. क्योंकि म्यांमार को ऐसे प्रतिबंध की लंबी आदत है और इस बार उनकी सेना की मदद के लिए हर तरीके से तैयार चीन भी खुली बाहों से तैयार खड़ा है.
Gulabi
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