सम्पादकीय

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार धर्म की जय-जयकार से ज़्यादा जातियों की हुंकार सुनाई देने लगी है?

Rani Sahu
21 Jan 2022 1:47 PM GMT
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार धर्म की जय-जयकार से ज़्यादा जातियों की हुंकार सुनाई देने लगी है?
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अयोध्या (Ayodhya) में राम मंदिर निर्माण शुरू कराने और काशी में बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन के बावजूद यह विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) क्या हिन्दुत्व या धर्म के मुद्दे पर नहीं लड़ा जा रहा

विजय त्रिवेदी अयोध्या (Ayodhya) में राम मंदिर निर्माण शुरू कराने और काशी में बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन के बावजूद यह विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) क्या हिन्दुत्व या धर्म के मुद्दे पर नहीं लड़ा जा रहा? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हिन्दुत्व के प्रमुख चेहरे से दूर अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) इस चुनाव को जातियों की भूल भुलैया में ले जाना चाहते हैं, इससे क्या बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं? क्या यह चुनाव नब्बे के दशक के बाद मंडल राजनीति 2.0 की तरफ बढ़ रहा है?

भारतीय जनता पार्टी की उत्तरप्रदेश इकाई ने पिछले दिनों राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता को ट्वीट किया-
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के। हीन मूल की ओर देख कर गलत कहे या ठीक, वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
फिर समाजवादी पार्टी ने भी दिनकर की कविता के माध्यम से ही इस ट्वीट का जवाब ट्विटर पर दिया-
जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड, मैं क्या जानूं जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदंड। जनता की रोके राह, समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
उत्तरप्रदेश की चुनावी राजनीति में भले ही दिनकर के बहाने सफाई देने की कोशिश की गई हो, लेकिन हकीकत यह है कि चाहे बीजेपी हो या समाजवादी पार्टी दोनों ही इस चुनाव को जाति के स्तर पर लड़ने की तैयारी कर रही हैं. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव अच्छे से समझते हैं कि चुनाव अगर बीजेपी की रणनीति के मुताबिक धार्मिक भावनाओं के आधार पर लड़ा गया तो वे पिछड़ जाएंगे और बीजेपी समझती है कि धर्म के साथ उसे जाति का घोल भी चाहिए ही.
2017 के चुनाव में भी धर्म से ज्यादा जाति की भूमिका रही थी
पिछला चुनाव यानि साल 2017 में बीजेपी की भारी बहुमत से जीत में धर्म से ज़्यादा जाति आधारित राजनीति की ही भूमिका रही थी. साल 2012 में भी जब नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में उतरने और उत्तर प्रदेश को चुनावी अखाड़ा बनाना तय हुआ तब से ही बीजेपी ने जातियों खासतौर से ओबीसी और दलित जातियों पर ध्यान देने पर ज़ोर दिया. उस वक्त अमित शाह बीजेपी के यूपी प्रभारी बनाए गए थे और उन्होंने पुराने गजट के आधार पर हर जिले की जाति जनगणना पर ध्यान दिया और फोकस किया उन गैर यादव और गैर जाटव जातियों पर जिन्हें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से उपेक्षा मिल रही थी. नतीजे चौंकाने वाले रहे 2014 में, 2017 में और 2019 में भी. फिर यह सवाल वाजिब होता है कि अब ऐसा क्या हुआ कि बीजेपी को इसमें मुश्किल दिख रही है.
राजनीतिक विश्लेषकों की बात मानें तो बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग के मीठे नारे के साथ इन जातियों को अपने साथ जोड़ने का काम तो किया, लेकिन वो इन पर धीमे-धीमे हिन्दू धर्म का मुलम्मा भी चढ़ाने की कोशिश करती रही. बीजेपी को जीत का फॉर्मूला मिल गया था धर्म और जाति का गठजोड़. आरोप है कि धर्म के मानकों का इस्तेमाल उसने हिन्दू धर्म को आगे बढ़ाने के बजाय मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने में ज़्यादा किया. नतीजतन सभी पार्टियां अब मुसलमानों से दूरी बनाने लगीं और मंदिर मठों की परिक्रमा करने के लिए तैयार हो गईं. इसका फायदा उन पार्टियों को ज़्यादा नहीं मिल सकता था, क्योंकि बीजेपी ने खुद को हिन्दू हित की पार्टी का "पेटेंट ब्रांड" बना दिया है. दूसरे दलों को इसका तोड़ मुश्किल लग रहा है.
2017 वाली रणनीति अब अखिलेश यादव बना रहे हैं
समाजवादी पार्टी ने इस बार बीजेपी की उसी जाति आधारित राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया. पहला काम किया, मुलायम सिंह यादव के वक्त से बनी यादवों की पार्टी की छवि को तोड़ना और फिर बीजेपी समेत दूसरी पार्टियों से गैर यादव और गैर जाटव पिछड़ी जातियों को जोड़ने की कोशिश करना. अखिलेश ने बीजेपी को ही झटका देते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे ताकतवर मौर्य और पिछड़ी जातियों के नेता के साथ-साथ दारासिंह और धर्म सिंह सैनी जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ लिया.
नब्बे के दशक में उभार पर आई मंडल राजनीति का यह अगला चरण है जिसमें अब तक फायदा नहीं उठा पाने वाली जातियों की राजनीतिक हसरतों ने आंखें खोलना शुरू किया और अपना हक मांगने लगीं. कांशीराम के शब्दों में जिसकी 'जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी.' कांशीराम की तरह अपने समाज को ज्‍यादा ताकत और राजनीतिक फायदे के लिए विचारधारा बेमानी है, जिसके साथ फायदा ज़्यादा हो, उस वक्त उनके साथ चले जाइए और खुद को ताकतवर बनाइए. 2007 में बीएसपी ने अपने दम पर उत्तरप्रदेश में सरकार बना ली. 2012 में समाजवादी पार्टी ने उसी रास्ते पर चल कर सरकार बनाई. फिर 2017 में बीजेपी तीन सौ पार पहुंच गई.
बीजेपी के यूपी के 75 जिलों में से 54 में ओबीसी अध्यक्ष हैं
बीजेपी ने इन नेताओं का फायदा तो उठाया, लेकिन उनका भरोसा नहीं जीत पाई और ना ही खुद उसने कभी इन पर भरोसा किया. उनको समझ आ रहा था कि बीजेपी उन नेताओं के समाज में से ही उन्हें चुनौती देने वाले लीडर तैयार कर रही है और उन्हें दूसरे रास्ते से मौका देकर ताकतवर बना रही है. इससे इन नेताओं का बीजेपी पर भरोसा कम होने लगा.
साल 2017 की राजनीति एक तरह से साल 1991 की कल्याण सिंह की राजनीति का विस्तार ही थी, जब धर्म और जातियों का मेलजोल किया गया. पार्टी ने ब्राह्मण, बनिया की अपनी छवि से अलग हट कर सामाजिक गठजोड़ की छवि बनाने में सफलता हासिल की. पार्टी ने पिछले चुनाव में गैर यादव और अन्य पिछड़ी जातियों को एक सौ से ज़्यादा सीटें दीं. करीब 70 सीटें उसने गैर जाटवों को दीं. जिलाध्यक्ष बनाने में भी उसने जातियों की नुमाइंदगी पर ज़ोर दिया. इसके लिए उसने जिलाध्यक्ष चुनने के बजाय आम सहमति से मनोनीत करने की नीति को अपनाया.
आज बीजेपी के यूपी के 75 जिलों में से 54 में ओबीसी अध्यक्ष हैं. बीजेपी की अभी तक आई उम्मीदवारों की लिस्ट में 60 फीसदी से ज़्यादा ओबीसी और दलित उम्मीदवार हैं. ओबीसी और दलित जातियों को हिन्दू समाज में समाहित करने में आरएसएस ने अहम भूमिका निभाई और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का भी इस पर खासा असर पड़ा.
बीजेपी की राजनीति के लिए धर्म सबसे ज़्यादा मुफीद होता है
राजनीति के जानकार कहते हैं कि बीजेपी की राजनीति को धर्म सबसे ज़्यादा मुफीद होता है. नब्बे के दशक में राम मंदिर अभियान, फिर राम रथयात्रा, बाबरी मस्जिद का ध्वंस सबने मिल कर बीजेपी को उत्तर प्रदेश और फिर देश में सत्ता तक पहुंचा दिया. बीजेपी का राजनीतिक ग्राफ बढ़ता गया. देश में मोदी सरकार और यूपी में योगी सरकार आने के बाद से राम मंदिर निर्माण, फिर काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, बूचड़खानों के ख़िलाफ अभियान, तीन तलाक पर कानून और फिर सीएए इसी राजनीति का हिस्सा रहे. फैज़ाबाद का नाम बदल कर अयोध्या करना और इलाहाबाद का प्रायगराज हो जाना यानि धर्म का स्वाद उसके राजनीतिक हाजमे के लिए फायदेमंद है, लेकिन जब देश भर में राजनीति करवट ले रही हो और हर कोई मसला जाति के नाम पर सवाल बनाने लगा हो तो पार्टी के लिए भी नई चुनौतियां आ गईं और उसे अपने ब्रांड के साथ जातियों को जोड़ना ही पड़ा.
उत्तर प्रदेश में करीब 20 लाख नए वोटर जुड़े हैं, लेकिन वो भी महंगाई, बेरोजगारी के बजाय जाति पर जोर दे रहे हैं. जाति का वजन इतना बढ़ गया है इन दिनों की हर कोई अपनी जाति का ना केवल नेता हो गया है, बल्कि इसके लिए हर जाति की आबादी भी वो तीन चार प्रतिशत बढ़ाकर ही बता रहा है. जिलों और सीटों पर प्रभाव का इलाका और संख्या दोनों बढ़ रही हैं. हालत यह है कि यदि इन सब जातियों के नेताओं की दावेदारी और उनकी हिस्सेदारी को सच माना जाए तो यूपी की आबादी 22 करोड़ से बढ़कर तीस-पैतीस करोड़ तक पहुंच जाएगी और सीटों पर प्रभाव के हिसाब से भी पांच सौ से कम सीटें नहीं बनेगीं.
दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने और बीजेपी सरकारों को बर्खास्त करने से माहौल उनके पक्ष में था. इसके बाद 1993 में हुए चुनाव में बीजेपी को 177, समाजवादी पार्टी को 109, बहुजन समाज पार्टी को 67, कांग्रेस को 28 और जनता दल को 27 सीटें मिली थीं. समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन ने 176 से एक ज्यादा 177 सीटें लीं. इसके बावजूद मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बन गए, कांग्रेस और जनता दल ने उनका साथ दिया और नारा चला "मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम."
उत्तर प्रदेश में सुरक्षित सीटें तय करती हैं सरकार किसकी बनेगी
वैसे जाति की राजनीति के चुनावी समीकरण को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. यूपी में 53 फीसदी वोट पिछड़े वर्ग का है, इनमें करीब पचास जातियां आती हैं. यूपी में 11 फीसदी यादव हैं जो ओबीसी का कुल बीस फीसदी हैं. 43 फीसदी गैर यादव वोटर हैं. प्रदेश में एससी-एसटी जातियां 21 फीसदी से ज़्यादा हैं, इनमें से आधी आबादी जाटव समुदाय की है. बाकी आधी आबादी में 65 जातियां हैं. 13 जिलों में मौर्य और कुशवाहा जातियों की तादाद बहुत है. करीब आठ फीसदी मौर्य और सात फीसदी कुर्मी और पटेल हैं. छह फीसदी कुशवाहा, शाक्य, सैनी और तीन फीसदी लोध जाति के वोटर हैं. करीब 20 फीसदी मुसलिम आबादी है.पिछले तीन चुनावों को देखें तो तस्वीर ज़्यादा साफ हो जाती है. उत्तर प्रदेश में जिस पार्टी ने ज़्यादा सुरक्षित सीटों पर कब्ज़ा किया, सरकार उसी की बन पाई.
प्रदेश में 86 सुरक्षित सीटें हैं, इनमें से साल 2017 में बीजेपी ने 76 सीटें जीतीं. इससे पहले साल 2012 के चुनाव में जब अखिलेश यादव ने सरकार बनाई थी तब उन्हें 403 में से जो 226 सीटें मिलीं, उनमें 85 में से 58 सीटें सुरक्षित जीती थीं. इसी तरह साल 2007 में मायावती जब मुख्यमंत्री बनीं तब 89 सुरक्षित सीटों से 61 बीएसपी ने जीतीं. लोकसभा सीटों के नजरिए से समझं तो यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 17 सुरक्षित सीटें हैं. 2019 में बीजेपी ने 14, अपना दल ने एक और बीएसपी ने 02 सीटें जीतीं.
जातियों को अपने-अपने खेमों में धकेलते राजनेताओं का तुर्रा यह है कि वो सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय चाहते हैं या सबका साथ,सबका विकास और सबका विश्वास के नारे पर चलते हैं मगर नजर वोटर और नेता की जाति पर है अब जाति ना पूछो… का कोई मतलब नहीं. बचपन में पूजा के आखिर में कहते थे कि धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भाव हो और विश्व का कल्याण हो, क्या मौजूदा राजनीति इस रास्ते से कहीं दूसरे मोड़ पर चली गई है?
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