सम्पादकीय

इतनी कम भी नहीं है कोरोना की यह रफ्तार

Gulabi
22 Nov 2021 9:20 AM GMT
इतनी कम भी नहीं है कोरोना की यह रफ्तार
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कोरोना की चिंता कम होती दिख रही है. इस सिलसिले में आमतौर पर अब उत्साहजनक खबरें ज्यादा दिखाई देने लगी हैं
कोरोना की चिंता कम होती दिख रही है. इस सिलसिले में आमतौर पर अब उत्साहजनक खबरें ज्यादा दिखाई देने लगी हैं. टीकाकरण अभियान की सफलता के दावे हों या फिर 100 फीसदी क्षमता के साथ बच्चों के स्कूल खोलने की तैयारियां हों, ऐसी खबरों से एक बड़ा संदेश जाता है कि देश में अब कोरोना उतना बड़ा संकट नहीं बचा. हालांकि मास्क और आपस में दूरी बनाए रखने का सरकारी प्रचार पहले जैसा ही चल रहा है. यानी सरकारी तौर पर अभी साफ साफ दावा नहीं किया जा रहा है कि कोरोना को लेकर निश्चिंत रहें.
आंकड़ों पर एक नज़र
इस समय यानी 19 नवंबर को देश में रोजाना संक्रमण का आंकड़ा 10 हजार तीन सौ दो है. और अगर गुजरे हुए पूरे हफ्ते का हाल देखें तो पिछले सात दिन में कुल संक्रमितों का आंकड़ा 73,889 है. यानी औसतन साढ़े दस हजार मामले इस समय भी रोज बढ़ रहे हैं. यानी हालफिलहाल कोरोना उतार पर नहीं, बल्कि ठहराव पर है. दरअसल पूरी दुनिया और खासतौर पर अपना देश पिछले 20 महीनों में कोरोना की इतनी भयावह स्थिति झेल चुका है कि उसके मुकाबले जरूर यह आंकड़ा छोटा दिखाई देता है.
लेकिन, याद किया जाना चाहिए कि पिछले साल 2 जून को जब प्रतिदिन संक्रमण का आंकड़ा आठ हजार आठ सौ 21 हो गयाा था तो पूरे देश में हाहाकार होने लगा था. उस समय बचाव के चौतरफा दावों के बावजूद कोरोना का फैलाव रोका नहीं जा सका था. हर रोज संक्रमित होने वाले मरीजों की संख्या बढ़ते-बढ़ते 16 सितंबर 2020 को 97,800 पहुंच गई थी. तब नए सिरे से बचाव के लिए हद दर्जे की पाबंदियां लगानी पड़ी थीं. वह देश में कोरोना की पहली लहर की चरम अवस्था थी.
और जब यह लहर उतार पर आई तो प्रतिदिन संक्रमण का आंकड़ा कमोबेश आठ हजार आ गया था. तब कोरोना की स्थिति पर आमतौर पर संदेश यह बनाया गया कि हालात काबू में आ गए हैं. याद किया जाना चाहिए कि इसी साल एक फरवरी को प्रतिदिन संक्रमण का आंकड़ा 8587 था. यह वह समय था जब अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए अघोषित कोशिशें शुरू की गईं थीं और नागरिकों के स्तर पर कोरोना प्रोटोकोल की अनदेखी होने लगी थी. आज बार बार याद दिलाया जाना चाहिए कि उस उतार के बाद कोरोना महामारी से एक बार फिर भयावह तबाही मची थी.
यह तबाही पहली लहर के मुकाबले चार गुनी थी. बहुत दूर की बात नहीं है. अभी छह महीने पहले ही बात है. छह मई को देश में दूसरी लहर के चरम पर हम प्रतिदिन चार लाख 14 हजार का आंकड़ा देख चुके हैं.
दूसरी लहर की तबाही के बाद
याद किया जाना चाहिए कि पहली संपूर्ण तालाबंदी के कटु अनुभव हमें आर्थिक तबाही के रूप् में भी हुए थे. तब मास्क और आपस में दूरी की हिदायत देकर काम धंधा चालू करवाने की कवायद शुरू हुई थी. यह वही दौर था जब पूरी दुनिया कोरोना का टीका बनाने और युद्ध स्तर पर लोगों को लगाने की तैयारी में लगी थी. सरसरी निगाह डालें तो देश में पहली लहर के बाद आई दूसरी भयावह लहर भी धीमी पड़ रही है. अब सवाल यह है कि दूसरी लहर अभी कितनी धीमी पड़ी है और क्या आज वह स्थिति आ गई है कि हम कोरोना की अनदेखी का जोखिम उठा सकें.
दूसरी लहर के उतार की स्थिति
आंकलन करने से पहले एक जरूरी तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए. वह ये कि अभी भी ठोककर कोई नहीं बता सकता कि दुनिया और देश में संक्रमण की रफ्तार में कमी का मुख्य कारण क्या है. अमेरिका जैसे देश जो टीकाकरण अभियान में इतिहास बना चुके हैं, वे भी पूर्ण टीकाकरण कराए जाने के बाद उन लोगों को बूस्टर डोज लगवा रहे हैं. चीन और न्यूजीलेंड जैसे देश जिन्होंने प्रतिदिन संक्रमण की रफ्तार को बहुत पहले काबू कर लिया था वे भी इस समय इस बात से परेशान हैं कि उनके यहां संक्रमण शून्य स्तर पर क्यों नहीं आ रहा है और बीच-बीच में सिर क्यों उठाने लगता है.
इधर, अपने देश में संक्रमण की मौजूदा स्थिति पर गौर करें तो हम पिछले एक हफ्ते से ही नहीं, बल्कि पूरे एक महीने से हर दिन औसतन दस हजार का आंकड़ा देख रहे हैं. सतर्क इसलिए रहना चाहिए क्योंकि पहली लहर के बाद इससे कम आंकड़े पर आने के बावजूद देश दूसरी लहर में प्रतिदिन चार लाख 14 हजार संक्रमित बढ़ने की तबाही झेल चुका है. पहले और आज की स्थितियों में अगर कोई फर्क है तो वह ये कि अब काफी लोगों को टीका लग चुका है. लेकिन उसके बाद भी अगर प्रतिदिन दस हजार लोग कोरोना संक्रमित हो रहे हैं, तो इस आंकड़े को छोटा नहीं माना जाना चाहिए.
केरल और महाराष्‍ट्र का जिक्र
देश में कोरोना के हालात को सामान्य बताने की कोशिश में कई बार केरल और महाराष्‍ट्र का जिक्र किया जाने लगता हैं. केरल में रोजाना 50 फीसदी से ज्यादा और महाराष्‍ट्र में कमोबेश दस फीसदी के आंकड़े वहां के संकट की तीव्रता तो बता सकते हैं लेकिन दूसरे प्रदेश उनसे अपनी तुलना करके यह साबित नहीं कर सकते कि वे कोरोना से मुक्ति पाने की राह पर हैं. याद कर लेना चाहिए कि जब कोरोना पूरी दुनिया में नहीं फैला था उसके पहले ही विश्व के हर देश में बचाव की तैयारियां शुरू हो गई थीं.
तब से अब तक यही माना जा रहा है कि जब तक पृथ्वी की हर जगह कोरोना वायरस से मुक्त नहीं हो जाती, तब तक कोई भी देश या गली मोहल्ला अपने को सुरक्षित न माने.
टीकाकरण का फैक्टर
बेशक टीकाकरण से ज्यादा विश्वसनीय दूसरा कोई उपाय दुनिया अबतक सोच नहीं पाई है. लेकिन टीके की पूरी खुराक लगवाए कुछ लोग भी कोरोना की चपेट में आने लगे. अब तर्क हैं कि टीकों के सौ फीसदी कारगर रहने की गारंटी कभी नहीं दी गई. अब टीकाकरण अभियान को युद्ध स्तर पर अपना चुके अमेरिका जैसे देश को पूर्ण टीकाकरण के बाद बूस्टर डोज लगवाने का अभियान शुरू करना पड रहा है. ऐसे तो हमें अपने देश में कोरोना को लेकर निश्चिंतता का प्रसार करने वाली बातों से भी सतर्क रहना चाहिए.
खासतौर पर तब तो और ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है जब देशभर में दफ्तर और बाजार खोले जा रहे हैं और स्कूलों को भी 100 फीसदी क्षमता के साथ खोलने का काम खुलकर होने लगा है. जबकि बच्चों का टीकाकरण अभियान अभी रास्ते में ही हैं.
चिंता बनाम सतर्कता
अच्छी बात है कि सरकार के स्तर पर लोगों को सतर्कता की सलाह शुरू से लेकर अभीतक लगातार दी जा रही है. लेकिल पिछले अनुभवों से सबक मिल चुका है कि सिर्फ सलाह से काम बनता नहीं है, इसीलिए कोरोना प्रोटोकोल के नाम पर सख्ती भी बरती गई. लेकिन कोरोना के आंकड़ों के उतार के बीच अब उस कोरोना प्रोटोकोल में फिर ढिलाई बढ़ चली है. बाजारों में बिना मास्क और बातचीत के दौरान दूरी बनाए रखने की बातों पर घ्यान कम होता जा रहा है. इसका एक कारण यह हो सकता है कि उनमें कोरोना के प्रति निष्चिंतता बढ गई हो.
और इसीलिए लोगों को सतर्क करने के लिए उन्हें चिंतित बनाए रखना भी जरूरी माना जाना चाहिए. कहते हैं कि निष्चिंतता और सतर्कता एकसाथ सध नहीं पातीं. मीडिया के जागरूक तबके से उम्मीद लगाई जानी चाहिए कि वह सदी की सबसे बड़ी आपदा पर संजीदगी से नज़र बनाए रखे. कोरोना के आंकड़ों और उनके तथ्यपरक विश्लेषण की आज भी उतनी ही जरूरत है जितनी पहली और दूसरी लहरों के चरम पर पहुंचने पर पड़ रही थी.



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सुधीर जैन
अपराधशास्त्र और न्यायालिक विज्ञान में उच्च शिक्षा हासिल की. सागर विश्वविद्यालय में पढाया भी. उत्तर भारत के 9 प्रदेश की जेलों में सजायाफ्ता कैदियों पर विशेष शोध किया. मन पत्रकारिता में रम गया तो 27 साल 'जनसत्ता' के संपादकीय विभाग में काम किया. समाज की मूल जरूरतों को समझने के लिए सीएसई की नेशनल फैलोशिप पर चंदेलकालीन तालाबों के जलविज्ञान का शोध अध्ययन भी किया.देश की पहली हिन्दी वीडियो 'कालचक्र' मैगज़ीन के संस्थापक निदेशक, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी एंड फॉरेंसिक साइंस और सीबीआई एकेडमी के अतिथि व्याख्याता, विभिन्न विषयों पर टीवी पैनल डिबेट. विज्ञान का इतिहास, वैज्ञानिक शोधपद्धति, अकादमिक पत्रकारिता और चुनाव यांत्रिकी में विशेष रुचि.
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