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
प्रियदर्शन। इतालवी लेखक और विचारक उंबेर्तो इको का 1980 में प्रकाशित उपन्यास 'द नेम ऑफ़ द रोज़' चौदहवीं सदी में इटली के एक मठ के भीतर लगातार हो रही मौतों पर केंद्रित है. वहां हुई पहली मौत के बाद मठ में किसी संवाद के लिए आमंत्रित विलियम ऑफ़ वास्करविले से अनुरोध किया जाता है कि वे इसकी गुत्थी सुलझाएं. लेकिन अगले कुछ दिनों में कई और मौतें होती जाती हैं. प्राथमिक तौर पर 'मर्डर मिस्ट्री' की तरह पढ़ी जा सकने वाली इस किताब के दरअसल कई पाठ हैं. एक स्तर पर यह किताब सत्य के अन्वेषण के जोखिम और व्याख्याओं के इकहरेपन के प्रति भी हमें सचेत करती है. अलग-अलग पांडुलिपियों, पाठों, गवाहियों और दृश्यों के बीच सत्य और संभावनाओं तक पहुंचने की कोशिश एक जासूसी जांच ही नहीं, एक बौद्धिक खोज भी है. लेकिन इस किताब का एक और पाठ है जो हमारे लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है. मठ की छानबीन करते हुए विलियम को उन रुग्णताओं का भी एहसास होता है जो एक मठ के भीतर सत्ता, शक्ति, ज्ञान के वर्चस्व के बीच पैदा होती हैं और जिनमें हास-परिहास तक पाप की श्रेणी में डाल दिए जाते हैं. मठ का विशाल पुस्तकालय ऐसी रुग्णताओं के केंद्र में है. उपन्यास का अंत दारुण है. ऐरिस्टोटल की किताब पोएटिक्स के पन्नों पर एक शख़्स ने ज़हर लगा दिया है जिसे छूने वाले की मौत हो जाती है. एक बूढ़ा नेत्रहीन महंत इसकी चपेट में आता है, फिर एक जलती लालटेन से टकराता है और फिर पूरा पुस्तकालय जल कर राख़ हो जाता है. एक स्तर पर यह किताब उस सड़ांध का भी सुराग देती है जो धार्मिक परंपराओं, आग्रहों के भीतर धीरे-धीरे पैदा होती चलती है.
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