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कानों में इयरबड लगाकर सैर पर निकले हाजी कौल जगजीत-चित्रा की गज़़ल 'ये तेरा घर, ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर, तो पहले आ के मांग ले, तेरी नजऱ मेरी नजऱ' सुनते जा रहे थे। पिछले कई दिनों से उनकी नजऱ एक बेहद आलीशान लेकिन एक ऐसे बड़े घर पर पड़ रही थी जिस पर उदासी की छाया अच्छे दिनों की तरह गहराती जा रही थी। देश के विकास की तरह लॉन में खिले बेतरतीब फूल, कानून व्यवस्था जैसे बिखरे पत्ते और महंगाई की तरह हर दिन बढ़ती घास यह बताने के लिए काफी थे कि देश की बहु-प्रतीक्षित फाइव ट्रिलियन इकॉनमी की तरह, उधार की बुलेट ट्रेन पर घर द्रुत गति से किसी अनजाने सफऱ पर निकल चुका था। लेकिन आम लोगों के जीवन में ग़ायब सुकून की तरह घर के मालिकों की कोई ख़बर न थी। गज़़ल के बोलों की तरह ही घर न तो बादलों की छाँव में था और न चाँदनी के गाँव में। रास्ते भी फूलों के नहीं, कंक्रीट और टाईल के बने हुए थे। घर ज़मीन के कऱीब नहीं, उसी पर बना हुआ था, जिसमें अजीब लगने वाली कोई बात नहीं थी, क्योंकि घर ईंट-पत्थरों से ही बना हुआ था। लेकिन जिन हसरतों से कभी घर बना होगा, वे किसी उच्च शिक्षित आदमी के रोजग़ार की तरह कहीं नजऱ नहीं आ रही थीं। ऐसे में प्यार की रोशनी और दिल के फूलों के खिलने से बहार आने की बात सोचना किसी जुमलेबाज़ से सच सुनने की तरह था। गज़़ल के बोल जब 'हमारे घर न आएगी कभी ख़ुशी उधार की' पर आकर ठहरे तो हाजी ने परेशान होकर मोबाइल बंद कर दिया। वह सोचने लगे कि क्या राहतों और चाहतों के घर ऐसे ही होते हैं। क्या उधार से बने घरों में ख़ुशी ग़मों के कज़ऱ् तले दब कर रह जाती है। उधार लेकर इतने बड़े घर बनाने का फायदा, जब रहने वाले सिर्फ तीन या चार हों जो समय के साथ भारतीय विपक्ष की तरह कहीं घटाटोप हो जाएं। वह परेशान होकर स्मार्ट सिटी नगर निगम के उस बैंच पर बैठ गए जिसकी हालत उसी की तरह स्मार्ट थी। फिर उन्हें ध्यान आया कि उनका इकलौता बेटा भी तो एन्जिनियरिंग के चौथे साल में है। वह अर्जित अवकाश पर थे।
इसीलिए रुके-रुके से क़दमों से घर लौट रहे थे। ठंडी साँस भरने के बाद खड़े हुए ही थे कि सामने नए बने चार मंजि़ला घर पर नजऱ पड़ते ही उनके चेहरे पर वक्र मुस्कान की लकीरें खिंच आईं। मेडिकल कॉलेज में हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉक्टर शर्मा किसी मज़दूर को ऊँचे स्वर में सफाई के बारे में समझा रहे थे। हाजी ने गुड मार्निंग कहते हुए पूछा, 'क्या हुआ डॉक्टर साहिब, आज छुट्टी पर हैं?' 'कुछ ख़ास नहीं कौल साहिब। घर की सफ़ाई करवाने के लिए भी छुट्टी लेनी पड़ती है।' उत्तर मिला। 'आपका घर है भी तो बहुत बड़ा।' हाजी बोले। यह सुनते ही गहरी साँस भरने के बाद डॉक्टर शर्मा कहने लगे, 'अब सोचता हूँ कि क्या ज़रूरत थी, इतने बड़े मकान की। हम दोनों मियाँ-बीवी डॉक्टर हैं। अमूमन घर पर एक ही रह पाता है। बहू-बेटा दोनों डॉक्टर हैं और अमेरिका में सेटल हैं।' 'अब सोचने से क्या होगा। यह तो बनाती बार सोचना था।' हाजी बोले। 'क्या कहूँ, कौल साहिब। पैसे की कमी थी नहीं। पड़ोसियों के बड़े-बड़े मकानों को देखते हुए प्रतिस्पर्धा में उनसे बड़ा मकान बना तो लिया। अब रहने वाले सिर्फ दो। तीन दर्जन कमरों में केवल चार खुलते हैं।' कहते हुए डॉक्टर साहिब के चेहरे पर अपनी मूर्खता के बारे में सोचते हुए तिरछी मुस्कान फैल गई। डॉक्टर साहिब की व्यंग्यात्मक मुस्कान को लपकने के बाद पॉश कॉलोनियों में फैली मूर्खता के बारे में सोचते हुए हाजी के चेहरे पर भी उतने ही कोण की वक्र रेखाएं खिंचने लगीं। वह सोचने लगे, 'काश! लोग कभी उधार की ख़ुशी के बारे में न सोचते तो शायद घर, राहतों और चाहतों के होते।'
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
By: divyahimachal
Rani Sahu
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