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फाइल फोटो
कवि बिहारी के लिखे इस दोहे में एक ही शब्द कनक के दो अलग-अलग अर्थ हैं।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | कवि बिहारी के लिखे इस दोहे में एक ही शब्द कनक के दो अलग-अलग अर्थ हैं। एक सोने के लिए तो दूसरा धतूरे के लिए प्रयुक्त है। एक को खाकर तो दूसरे को पाकर इंसान बौरा जाता है। बिहारी यदि आज के दौर में होते तो इस दोहे को शायद कुछ यूं लिखते...
घोषणा घोषणा तैं सौ गुनी मादकता अधिकाइ।
उहिं सुन बौराइ, इहिं गुन ही बौराइ।
गुजरात, हिमाचल, दिल्ली में लोकतंत्र का उत्सव पिछले दिनों संपन्न हुआ। मतदाताओं ने अपना जनादेश सुना कर जाते साल में सत्ता की चाबियां अलग-अलग हाथों में सौंप दीं। अब नए साल यानी 2023 में देश के कई राज्यों में मतदाता अपनी सरकार चुनेंगे। फरवरी में उत्तर-पूर्व की सात बहन कहलाने वाले राज्यों में से चार मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा में चुनाव होने हैं। मई में कर्नाटक, नवम्बर में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तो दिसम्बर में तेलंगाना में चुनाव संभव हैं। धारा 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में भी इस साल चुनाव हो सकते हैं। कह सकते हैं पूरे साल देश में कहीं ना कहीं का मतदाता राजा रहेगा। पर असल बात मतदाता के राजा होने की नहीं है। असल बात है चुनाव से पहले और चुनाव के बाद के मतदाता की स्थिति में अन्तर की। राजनीतिक दल पुराने वादे दोहराएंगे। नए वादों की खोज करेंगे। लम्बे-लम्बे घोषणा पत्र जारी करेंगे। कोई कहेगा मुफ्त की रेवड़ी बांटी जा रही है। कोई भावनात्मक मुद्दों का सैलाब बहाएगा। इस बीच सबसे बड़ा सवाल है कि मतदाता कैसे पक्ष-विपक्ष के दावों में सच को देख-समझ पाएगा? कहावत है कि बुझने से पहले दिया जोर से भभकता है, और उसकी तेज रोशनी में दोगुनी दूरी तक की झलक दिख जाती है। गतिमान होने से कुछ क्षण पहले स्थिर पानी में तल तक का नजारा साफ दिखता है। तूफान से पहले का सन्नाटा तूफान की तेजी को बयान कर देता है। कुछ ऐसा ही यह वक्त है। चुनाव से पहले का। सरकारों के कार्यकाल के पूरा होने और उनकी वापसी की रणनीति बनाने की कवायद का। सत्ता के गलियारों में आने को छटपटा रहे विपक्ष के अपनी सरकार बनाने की तैयारी का। अभी दिया तेज रोशनी फेंक रहा है। पानी स्थिर है। राजनीतिक हवा भी अभी थमी है। यही वक्त है जब मतदाता वर्तमान सरकारों, उसकी नीतियों, उसके नुमाइंदों के चाल-चरित्र और चेहरे को परख सकते हैं। देख सकते हैं कि जनता के हित के लिए दी जाने वाले उनकी तकरीरों में कितना छलावा है और कितनी हकीकत है। पिछली बार किए वादों के जहाज कितने किनारे पहुंचे और कितने वादे टूटते तारों की तरह सियासी आसमान में विलीन हो गए। संभव है कुछ वादे अभी भी सैटेलाइट के रूप में मतदाताओं के चारों और चक्कर लगा रहे हों, पर उनका भी सच जानने का यही समय है। घोषणा से घोषणा तक का सफर बहुत लम्बा होता है। घोषणा पत्र के वादे अमली जामा पहनाने के गजट घोषणा तक कितना बदल जाते हैं? यह जनाना समझना हो तो, नजर पैनी और कान तेज रखने होंगे। ताकि हर हलचल, आहट को देख सुन सकें। सियासी हवा की चाल पहचान सकें। चुनाव के वक्त तो प्रचार इस कदर फिजा में घुल जाएगा कि ना सच समझ आएगा ना झूठ। विवादों की बयार तो अभी से बहने लगी है। खुद को इससे बचाइए और देखिए जो देख सकते हों राजनीतिक सपनों के आसमानी बादलों के पार। तब ही वक्त आने पर भावना से परे वह सही निर्णय हो पाएगा जो देश, राज्य, समाज के हित में होगा।
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Triveni
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