सम्पादकीय

यह नई भाजपा है, जो नए भारत में काम कर रही है और एक चुनावी मशीन बन चुकी है

Gulabi
12 March 2022 8:49 AM GMT
यह नई भाजपा है, जो नए भारत में काम कर रही है और एक चुनावी मशीन बन चुकी है
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अगर राजनीति में एक सप्ताह एक लम्बा समय हो सकता है तो एक साल तो अनंतकाल ही कहलाएगा
राजदीप सरदेसाई का कॉलम:
अगर राजनीति में एक सप्ताह एक लम्बा समय हो सकता है तो एक साल तो अनंतकाल ही कहलाएगा। थोड़ा पीछे चलें और वर्ष 2012 को देखें, जब यूपी में भाजपा को मात्र 47 सीटें और 15 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि सपा पूर्ण बहुमत से चुनाव जीती थी। नरेंद्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने यूपी में प्रचार तक नहीं किया था, क्योंकि चुनावों के भाजपा संगठन सचिव संजय जोशी संघ के पुराने दिनों से ही उनके प्रतिद्वंद्वी थे।
और आज दस साल बाद की तस्वीर देखिए। भाजपा ने जीत का चौका लगाया है। यह उत्तर प्रदेश में 45 प्रतिशत वोट शेयर के साथ भाजपा की लगातार चौथी जीत है और मोदी के नेतृत्व में यह पार्टी आज भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी ताकत बन गई है। आखिरकार ऐसा नाटकीय बदलाव कैसे आया? इसका संक्षिप्त जवाब तो यही होगा कि यह एक नई भाजपा है, जो एक नए भारत में काम कर रही है।
मोदी-शाह की पार्टी ने अटल-आडवाणी दौर की उदारता के मुखौटे को उतार फेंका है और अब वह ऐसी चुनावी मशीन बन चुकी है, जो अपने प्रतिद्वंद्वियों को बेरहमी से नेस्तनाबूद कर देती है। भाजपा ने चुनावी राजनीति के नियमों को बदल दिया है। उसने परम्परागत जाति-आधारित राजनीति को भी हाशिए पर धकेला है। ऐसा नहीं है कि भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग और जाति समीकरणों को त्याग दिया है, उसने उन्हें केवल ऐसे सांचे में ढाला भर है कि पार्टी को किसी एक जाति से जोड़कर न देखा जाने लगे।
इसके बजाय वह हिंदुत्व की बात करती है- यह एक ऐसा राजनीतिक विचार है, जिसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद शामिल है। इसके बूते पार्टी ने अपने सामाजिक आधार को विस्तार दिया है और उस हिंदुत्व-प्लस मतदाता-वर्ग को भी अपने में शामिल कर लिया है, जो धर्म से अलग अपनी पहचान रखता है। भाजपा के बढ़ते प्रभाव के केंद्र में गरीबोन्मुख योजनाएं भी हैं, जिनका मकसद सरकारी कार्यक्रमों के लाभार्थियों का एक बड़ा वर्ग तैयार करना है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले की सरकारों ने यह नहीं किया था।
लेकिन जिस तरह से भाजपा ने टॉयलेट, रसोई गैस, मुफ्त राशन या घर जैसी सुविधाएं प्रदान करने में सफलता को अपना राजनैतिक एजेंडा बनाया है, वह गेमचेंजर साबित हुआ है। जरा देखिए, हर तबके की महिलाओं ने भाजपा को कितने वोट दिए हैं। ऐसा नहीं है कि चुनाव जीतने वाली चारों भाजपा सरकारों ने बहुत अच्छा सुप्रशासन प्रदान किया था।
योगी आदित्यनाथ कह सकते हैं कि उन्होंने यूपी की लॉ एंड ऑर्डर मशीनरी को चाक-चौबंद किया, लेकिन क्या कोई मान सकता है कि चमचमाते यूपी शाइनिंग का प्रचार उस राज्य की जमीनी हकीकत से मेल खाता है, जहां आज लाखों बेरोजगार हैं? मणिपुर में भले ही पिछले पांच सालों में अमन-चैन रहा हो, लेकिन उसकी प्रतिव्यक्ति आय आज भी देश में सबसे कम में से है।
उत्तराखण्ड में एक साल में तीन मुख्यमंत्री बदलना नेतृत्व संकट का ही सबूत है। गोवा में भी प्रमोद सावंत की सरकार अनेक मोर्चों पर नाकाम मानी गई थी। इसके बावजूद भाजपा मोदी-फैक्टर के चलते प्रो-इंकम्बेंसी मोमेंटम बनाने में कामयाब रही। प्रधानमंत्री ने देश के लोगों से जैसा जीवंत सम्पर्क स्थापित कर लिया है- विशेषकर उत्तर प्रदेश में जिसे वो अपनी 'कर्मभूमि' कहते हैं- वह सामान्य नेता-मतदाता समीकरणों के परे जाता है।
हिंदीपट्‌टी की एक महिला इस बात का विलाप कर रही थी कि उसके पति की कोरोना से मौत हो गई और उसके बेटे के पास नौकरी नहीं है, इसके बावजूद उसने कहा कि वह 'मोदीजी' के कारण भाजपा को ही वोट देगी। लगता है प्रधानमंत्री ने अपने समर्थकों से ऐसा गहरा भावनात्मक रिश्ता बना लिया है, जिसमें उनको 'मोदी है तो मुमकिन है' के नारे में लगभग अतार्किक आस्था हो चली है। अ
खिलेश यादव और राहुल गांधी जैसे विपक्षी नेताओं ने भी भाजपा की मदद ही की है, जिन्हें वंशवाद की संस्कृति का परिणाम माना जाता है। वास्तव में पंजाब में अरविंद केजरीवाल की 'आप' की जीत के पीछे भी यही है। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार और परिवार-राज को चुनौती दी और नई उम्मीद की राजनीति के प्रतीक बने। शायद आज भाजपा केजरीवाल को अपने लिए किसी और की तुलना में एक ज्यादा खतरनाक प्रतिद्वंद्वी मानती होगी।
भारतीय राजनीति का अगला चरण हमें क्या दिखाएगा? कहीं हम 2029 के आम चुनाव में मोदी बनाम केजरीवाल का मुकाबला तो नहीं देखेंगे? हाल ही में हुए लगभग हर चुनाव में हर तबके की महिलाओं ने भाजपा को वोट दिए हैं। पहले 'एमवाय' फैक्टर का मतलब मुस्लिम और यादव था, वहीं आज यह महिलाएं और योजनाएं हो गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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