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अफगानिस्तान की स्थिति ठीक तरह से भांपने में नाकामी ने इस मसले पर अंतराष्ट्रीय कूटनीति में भारत को लगभग अप्रासंगिकता की हद तक पहुंचा दिया है
अफसोसनाक है कि भारत, रूस, ईरान, और पांच मध्य एशियाई देशों के एनएसए के बीच जिन मुद्दों पर सहमति बनी, उनसे बाद में रूस ने एक हद तक खुद को अलग कर लिया। ऐसा अक्सर ऐसा नहीं होता कि साझा बयान जारी होने के बाद कोई देश उससे अलग एक अपना बयान जारी कर दे।
अफगानिस्तान की स्थिति ठीक तरह से भांपने में नाकामी ने इस मसले पर अंतराष्ट्रीय कूटनीति में भारत को लगभग अप्रासंगिकता की हद तक पहुंचा दिया है। इसके बीच भारत ने कई देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) की बैठक बुला कर फिर से इस मसले में अपनी भूमिका बनाने की कोशिश की। पाकिस्तान और चीन के आमंत्रण स्वीकार ना करने से यह तो पहले ही तय हो गया था कि इस बैठक में कुछ बातों के दोहराव के अलावा और इससे कुछ हासिल नहीं होगा। लेकिन यह सचमुच बेहद अफसोसनाक है कि भारत, रूस, ईरान और पांच मध्य एशियाई देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच आतंकवाद और सुरक्षा संबंधी जिन मुद्दों पर सहमति बनी, उनसे बाद में रूस ने एक हद तक खुद को अलग कर लिया। ऐसा अक्सर ऐसा नहीं होता कि किसी बैठक के बाद जब साझा बयान जारी हो जाए, उसके बाद कोई देश उससे अलग एक अपना बयान जारी कर दे। रूस ने ऐसा ही किया। साझा बयान में अफगानिस्तान की अंदरूनी स्थिति और सुरक्षा स्थिति पर जिन कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया गया था, रूस ने उनसे अलग एक नरम बयान जारी किया। अब गौर करें। उस बैठक के एक दिन बाद ही पाकिस्तान की मेजबानी में अमेरिका, रूस, चीन की बैठक तय थी। उसमे तालिबान के नुमाइंदे भी आए।
ट्रोइका (त्रिगुट) प्लस पाकिस्तान नाम से चर्चित इस वार्ता प्रक्रिया की अफगान मामले में एक अहम भूमिका बनी हुई है। भारत इसका हिस्सा नहीं है। भारत अमेरिका की पहल पर चली दोहा वार्ता में शामिल नहीं था। रूस की पहल पर चली मास्को वार्ता में भी उसकी उपस्थिति नहीं रही। उधर काबुल पर तालिबान के कब्जा होते ही भारत ने उसके खिलाफ सख्त सार्वजनिक रुख अपनाया। नतीजतन, फिलहाल तालिबान पर भारत का प्रभाव लगभग शून्य है, जो अब अफगानिस्तान की एक हकीकत है। इन परिस्थितियों में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक भी औपचारिकता बन कर रह गई। रूस और ईरान ने संभवतः उसमें अपने-अपने कारणों से हिस्सा लिया। बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम का सबक यह है कि कूटनीति अहंकार, अल्पदृष्टि और लाल आंख दिखाने से सफल नहीं होती। कूटनीति के हमेशा बहुआयाम होते हैं, जिनके बीच किसी देश का मकसद अपने हितों को अधिकतम सुरक्षित करना होता है। इसके विपरीत अगर पूर्वाग्रहों पर आधारित भावुक रुख अपनाया जाए, तो उसका परिणाम वैसा ही अलगाव होता है, जैसा अफगान मामले में भारत के साथ हुआ दिख रहा है।
नया इण्डिया
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