सम्पादकीय

यह हथियार डालने का वक्त नहीं

Rani Sahu
25 July 2021 6:55 PM GMT
यह हथियार डालने का वक्त नहीं
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यह हथियार डालने का वक्त नहीं

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार | बीते शनिवार को भारत में आर्थिक उदारीकरण के 30 साल पूरे हो गए। 24 जुलाई, 1991 को तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अपना पहला बजट पेश किया था। सहयोगियों की बैसाखी पर टिकी एक अल्पमत सरकार के वित्त मंत्री थे वह। प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर कितने राजनीतिक दबाव काम कर रहे होंगे, आसानी से समझा जा सकता है। मगर वित्त मंत्री के सामने एक विकट चुनौती थी। बजट पेश करने से पहले ही वह दो बार रुपये की कीमत गिराने का खौफनाक फैसला कर चुके थे। तीन किस्तों में रिजर्व बैंक के पास रखा सोना निकालकर विदेशों में गिरवी रखा जा चुका था और वाणिज्य मंत्री चिदंबरम ने निर्यात पर सब्सिडी खत्म करने का भी एलान कर दिया था। जाहिर है, यह सब बिना नरसिंह राव की इजाजत के तो नहीं हुआ होगा। और अगर ये सारे कदम सही नहीं पड़ते, तो इसका सबसे बड़ा खामियाजा भी नरसिंह राव को ही भुगतना पड़ता।

लेकिन वह खामियाजा तो राजनीतिक मोर्चे पर ही होता। मनमोहन सिंह के सामने जो चुनौती थी, वह कहीं बड़ी थी। और अगर वह सचमुच चूक गए होते, तो खामियाजा न सिर्फ उनको और उनकी सरकार को, बल्कि इस देश की अर्थव्यवस्था और आम जनता को भी भुगतना पड़ता। देश उस वक्त भारी घाटे और कर्ज के बोझ से दबा हुआ था, हालत यह थी कि विदेशी मुद्रा भंडार में सिर्फ तीन हफ्ते के भुगतान का पैसा बचा था और विदेशों में बसे भारतीय भी घबराहट में बैंकों में पड़ी रकम निकालने में जुटे थे। लेकिन न सिर्फ देश इस मुसीबत से निकला, बल्कि वहां से एक सिलसिला शुरू हुआ, जो उसके बाद कई बरसों तक लगातार भारत की तरक्की की कहानी लिखता रहा। यही वजह है कि मनमोहन सिंह का वह बजट और उसके साथ शुरू हुआ आर्थिक सुधार कार्यक्रम आजाद भारत के इतिहास में सबसे बड़ा मील का पत्थर माना जाता है। उस कमजोर सरकार के बहुत कम बोलने वाले वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के इरादे कितने मजबूत थे, यह समझने के लिए इतना जानना काफी है कि उस बजट में उन्होंने सरकारी घाटा जीडीपी के 7.6 प्रतिशत से घटाकर 5.4 प्रतिशत कर दिया। दो फीसदी से ज्यादा की यह कटौती किसी एक साल में सरकारी घाटे में की गई सबसे बड़ी कटौती है। यही नहीं, उद्योगों और कारोबारियों को तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई। उन्हें कोटा-परमिट और लाइसेंस के हजारों झंझटों से एक झटके में आजाद कर दिया गया। उसके बाद की कहानी तो एक पूरा इतिहास ही है।
लेकिन यह किस्सा सिर्फ व्यापारियों और उद्योगपतियों को मिली छूट या सरकारी घाटे में कटौती के आंकड़े से समझा नहीं जा सकता। दरअसल, उस बजट ने एक बुनियाद तैयार की थी एक नई तरह की आर्थिक नीति की। इसमें सरकार की ताकत या गैर-जरूरी दखलंदाजी को कम करने और जो लोग भी अपना व्यापार या कारोबार करना चाहें, उनकी जिंदगी आसान बनाने पर जोर दिया गया था। इससे आम इंसान को दो तरह से फायदा हुआ। एक, सरकारी नौकरियों के चक्कर से निकलकर बहुत से नौजवान या तो अपने-अपने छोटे काम-धंधों में लगे या फिर उन्हें ऐसी निजी नौकरियां आसानी से मिलने लगीं, जहां पैसे भी अच्छे थे और तरक्की की उम्मीद भी ज्यादा। तब से अब तक का हाल समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर नजर डालना ही काफी है। उससे पहले भारत की अर्थव्यवस्था में बढ़त दर या जीडीपी ग्रोथ रेट का औसत 3.5 फीसदी से 4.4 फीसदी तक पहुंच पाया था। वहीं, 1991 के बाद यह पहले 10 वर्षों में 5.5 प्रतिशत और फिर बढ़कर सात फीसदी से ऊपर तो पहुंच ही चुका था। 2004 के बाद तो ज्यादातर अर्थशास्त्री उम्मीद जताने लगे थे कि अब भारत 10 फीसदी या उससे ऊपर की रफ्तार पकड़ सकता है। हालांकि, वह उम्मीद पिछले कुछ समय में फीकी पड़ गई है। फिर भी, इन 30 बरसों में देश की जीडीपी यानी देश में होने वाला कुल लेन-देन दस गुना से ज्यादा बढ़ा है। देश का कुल आयात 20 गुना हो गया है, जबकि निर्यात 16 गुना ही हो पाया है। मगर सबसे दिलचस्प नजारा है शेयर बाजार का।
यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि 1991 से पहले भारत में शेयर बाजार नहीं था या लोग इसमें हिस्सेदारी नहीं निभाते थे। लेकिन अगर 1875 में शुरू हुए बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का सेंसेक्स जून 1991 में 1,248 पर था और अब 52,975 पर है, तो 30 साल में 44 गुना होने का काफी श्रेय आर्थिक सुधारों को ही जाएगा। फिर, उस वक्त देश के म्यूचुअल फंडों में कुल मिलाकर 80 हजार करोड़ रुपये जमा थे, जो अब 34 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा हो चुके हैं, यानी 71 गुना। और इस वक्त भी देश में अगर कोई चीज पूरी रफ्तार से दौड़ रही है, तो वह बस शेयर बाजार ही है। पिछले साल भर में ही म्यूचुअल फंडों की रकम 22 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 34 लाख करोड़ हुई है और सेंसेक्स भी लगभग 40 फीसदी बढ़ा है। विदेशी मुद्रा भंडार तो इस कदर लबालब है कि अब वह दुनिया में चौथे नंबर पर पहुंच गया है। 612 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम जमा है इसमें और सरकार के लोग इसे भी अपनी एक बड़ी उपलब्धि की तरह पेश करने में पीछे नहीं हैं।
यह सब देखकर लगता है कि सब कुछ अच्छा चल रहा है। लेकिन अपने आसपास का हाल देखें। आज रोजगार, महंगाई और कारोबार के दर्द को महसूस करें, तो शक होता है कि समृद्धि और तरक्की की ये बातें कोई फसाना तो नहीं। शायद ऐसे में राह दिखाने के लिए ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का एक संदेश आया है। सुधारों की 30वीं सालगिरह पर उन्होंने कहा है कि इस वक्त आगे की राह उससे भी कहीं ज्यादा कठिन है, जैसी 1991 के आर्थिक संकट के समय थी। एक राष्ट्र के रूप में हमें अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करनी होंगी और सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि हरेक भारतीय को एक सम्मानजनक और स्वस्थ जीवन मिल सके।
साफ है, रास्ता बहुत मुश्किल है और शेयर बाजार में जो बहार दिख रही है, वह असलियत का प्रतिबिंब नहीं है। लेकिन वक्त घबराने या हथियार डालने का नहीं, बल्कि कमर कसकर पक्के इरादे के साथ चीजों को दुरुस्त करने में जुट जाने का है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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