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मोहनदास करमचंद गांधी हिंदुस्तान के अकेले ऐसे स्वप्नदर्शी नेता हैं
मोहनदास करमचंद गांधी हिंदुस्तान के अकेले ऐसे स्वप्नदर्शी नेता हैं, जिन्होंने अपने सपने के भारत को न केवल अपनी सोच में उतारा, बल्कि उसे हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों तक संप्रेषित भी किया. अब भी जीवन के किसी आयाम पर कोई असमंजस में है, रास्ता नहीं सूझ रहा है तो गांधी विचारों से उस विषम स्थिति में रोशनी खोज सकता है.
गांधी से असहमतियां तो हो सकती हैं, लेकिन उनके बावजूद रास्ता दिखाने वाले भी वही हैं, उनके विचारों को कौन पूरी तरह ख़ारिज कर सका, टैगोर ने उन्हें 'महात्मा' यूं ही नहीं कह दिया! और अब भी उनके विचार उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं, पर सवाल अब यह है कि बापू के सपनों का भारत बन सका है? क्या वैसा वतन कभी बन सकेगा?
"मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस कर सकें कि यह उनका देश है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है. मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें उंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा. और जिसमें विविध संप्रदायों के लिए पूरा मेलजोल होगा. ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता. उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो पुरषों को होंगे."
बापू की इन बातों को आज गांव के अंतिम व्यक्ति से पूछा जाए कि क्या वाकई उनको लगता है कि देश के निर्माण में उनकी बातों को सुना जाता है? क्या उन्हें लगता है कि वह इस देश को बना रहे हैं? इसका जवाब उत्साह से नहीं आता. उस आम आदमी की हैसियत एक वोट से ज्यादा की नहीं हो पाई है.
निर्माण में वे भागीदार नहीं होते, वह उन पर थोपा जाता है, देश लालफीताशाही के उस चंगुल से आजाद नहीं हो पाया है, बल्कि भ्रष्ट तंत्र ने उसे ऐसा बना दिया है, जिसमें तकरीबन हर दिन किसी न किसी अधिकारी, कर्मचारी, सरपंच के घर छापा पड़ने या रंगे हाथों रिश्चत लेते पकड़े जाने की खबर छप रही है. यह तो गांधी के सपनों का भारत नहीं है!
दूसरे छोर से नीति निर्माण में लोगों की भागीदारी को तौलें तो व्यवस्था ने यह मान लिया है कि देश में अंतिम व्यक्ति तक इंटरनेट और कम्प्यूटर की पहुंच हो गई है, इसलिए जितनी भी नीतियां बनाई जाती हैं, उन्हें इंटरनेट के माध्यम से सलाह—मशविरे तक समेट दिया गया है. चूंकि लोकतंत्र है तो इतनी रस्मअदायगी तो करनी ही पड़ेगी.
और, हम यह भी देख रहे हैं कि कानून को बनाने में भी एक बड़े वर्ग की असहमति होने के बावजूद उसे लागू कर दिया जाता है, आज हजारों किसान सड़कों पर क्यों हैं? सवाल अब यह नहीं है कि कृषि कानून गलत हैं या सही है, उससे बड़ा सवाल यह है कि साल भर के विरोध के बाद बातचीत के रास्ते बंद हैं. यह तो गांधी के सपनों का भारत नहीं है!
यह आजाद हिंदुस्तान है, इसलिए इतना लंबा कोई भी संघर्ष बापू की आत्मा को दुखी करता होगा कि यहां पर लोगों की आवाज को अनसुना किया जा रहा है. अब यह एक दूसरे पर भरोसे का संकट भी बन गया है. यह तो गांधी के सपनों का भारत नहीं है!
क्या अब भी लोगों में ऊंच-नीच का भेद खत्म हो पाया है? यह तभी खत्म होगा जबकि ऊंच-नीच भी खत्म होगी. अश्पृश्यता खत्म होगी. शहरों में छुआछूत की परिस्थितियां भले ही बदली हों, लेकिन गांव की जड़ताएं तो वहीं की वहीं हैं. अब भी गांव के मंदिर में छोटी जाति का दूल्हा भगवान को पान—बताशे चढ़ाने अंदर नहीं जा सकता है, गांव के अंदर दलित जाति के दूल्हे का घोड़े पर बैठ जाना लड़ाई—झगड़ा बन जाता है. यह तो गांधी के सपनों का भारत नहीं है!
हम जैसा सबका साथ और सबका विकास का नारा लगाते हैं, उसके विपरीत अमीरी और गरीबी के आंकड़े कुछ और तस्वीर सामने लाते हैं, गांधी कहते हैं कि 'आर्थिक समानता अहिंसापूर्ण स्वराज की चाबी है' पर आक्सफेम की रिपोर्ट बताती है कि देश की आधी से ज्यादा संपत्ति तो गिने-चुने लोगों के पास है, अस्सी करोड़ की आबादी अब भी सरकार के सस्ते अनाज पर जिंदा है.
उस एक गरीब आदमी के लिए पांच किलो अनाज भी महीने भर के लिए कम पड़ जाता है और बकौल गांधी 'गरीब के लिए तो रोटी ही अध्यात्म है'. पर देश में रोटी से ज्यादा धरम के झगड़े हैं ! यह तो गांधी के सपनों का भारत नहीं है !
गांधी कहते हैं कि 'जब तक एक भी सशक्त आदमी ऐसा हो जिसे काम न मिलता हो या भोजन न मिलता हो, तब तक हमें आराम करने या भरपेट भोजन करने में शर्म महसूस होनी चाहिए.' यदि अंतिम आदमी स्वाभिमान से जीना चाहता है तो उसे भारी—भरकम योजनाओं के बावजूद काम नहीं मिलता. काम मिल जाता है तो समय पर पगार नहीं मिलती.
समय पर पगार नहीं मिलने से वह योजनाओं से खिन्न हो जाता है और अंतत: शहरों की तरफ पलायन कर जाता है और वहां भी उसे सम्मान की जिंदगी नहीं मिलती. यह बात तो छोड़ ही दीजिए, जिस तरह की नीतियों को देश ने अपनाया है, उसमें ज्यादा काम मशीनों के हवाले होता जा रहा है, और यह कोई अप्रत्याशित नहीं है, यही वजह है कि देश पिछले 45 सालों की सबसे बड़ी बेरोजगारी दर भी इस समय में देख रहा हैं, कोविड ने तो खैर कमर तोड़ ही दी है, यह तो गांधी के सपनों का भारत नहीं है !
सांप्रदायिक सदभाव की बात तो किसी से छिपी नहीं है. आज जिस तरह से राजनीति ने संप्रदाय और धर्मों का अपने—अपने हितों के लिए उपयोग किया है, उसके दुष्प्रभाव समाज में तरह—तरह की नफरतों के रूप में देखने को मिल ही रहा है. आजाद भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ कि लोगों को इतने ज्यादा खांचों में बांट कर रख दिया हो और एक—दूसरे के साथ किसी तरह का व्यवहार करने तक में यह जांचा जा रहा हो कि अमुक आदमी किसी धर्म का है. धर्म और संप्रदाय के आधार पर उसे दोषी या निरपराध माना जा रहा हो, यह तो गांधी के सपनों का भारत नहीं है!
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.

Gulabi
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