सम्पादकीय

ये है... जानकी बैंड ऑफ वुमेन

Rani Sahu
27 April 2022 3:59 PM GMT
ये है... जानकी बैंड ऑफ वुमेन
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अदब और तहज़ीब के मरकज़ भोपाल की वादियों में उतरती चैत्र की वो सुरमई शाम यक़ीनन अब भी इस शहर के वाशिंदों की रूह में महकती होगी

विनय उपाध्याय

अदब और तहज़ीब के मरकज़ भोपाल की वादियों में उतरती चैत्र की वो सुरमई शाम यक़ीनन अब भी इस शहर के वाशिंदों की रूह में महकती होगी. रवीन्द्र भवन के मुक्ताकाश मंच पर कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की कविता "सतपुड़ा के घने जंगल, उंघते-अनमने जंगल" का सुरीला पाठ गूँज रहा था. गोधुली का यह मंगल मुहूर्त हिन्दी के स्वर्णिम अतीत को पुकार रहा था. कबीर और टैगोर से लेकर सुमित्रानंदन पंत और सुभद्रा कुमारी चौहान तक चली आ रही हिन्दी कविता का परचम थामे नई नस्ल की उमंगे फिज़ाओं में लहरा रही थी.
वनमाली स्मृति कथा सम्मान समारोह के इस पूर्वरंग का साक्षी बनने नंदकिशोर आचार्य, रमेशचन्द्र शाह, ममता कालिया, दिव्या माथुर, गीताश्री, संतोष चौबे सरीखे अनेक नामचीन हस्ताक्षर मौजूद थे. मीठे-कोमल कंठ से झरती इन कविताओं को सुनकर याद आयी सामगान की प्राचीन परंपरा. वेद मंत्रों को सामूहिक स्वरों में गाते हुए हमारे गंधर्वों ने नाद के जिस अध्यात्मिक रहस्य और असर को समझा उसी मर्म को साहित्य और संगीत की डोर थामकर जनता के बीच जाने का हौसला जगाया है श्री जानकी बैंड ने.
आसमान की ओर सिर उठाती उम्मीद की हरी-भरी कोपल को नहीं मालूम कि एक दिन उसका दामन किसी छतनार वृक्ष में तब्दील हो जाएगा. आपदा और अवसाद के सन्नाटे फाँकते पहाड़ से दिनों को गाते-गुनगुनाते पार करती इन कन्याओं की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. यह कोरोना की महामारी में कला के एक नए जीवन के खिल उठने की पटकथा है जिसे इच्छा, हौसले और प्रोत्साहन ने मिलकर रचा. जबलपुर के श्रीजानकी बैंड ऑफ वुमेन की शोहरत और क़ामयाबी अब किसी से छिपी नहीं है. एक ऐसा समूह जिसने संस्कारधानी के नाम से मशहूर शहर को अब एक नई पहचान दी है. सुर के पंखों पर सवार ये जवां होती फ़नकार जब हिन्दी की भूली-बिसरी कविताओं और लोक तथा जनजातीय संगीत का इन्द्रधनुष रचती हैं तो उनका कोरस एक अलग ही सिम्फनी तैयार कर देता है. गायन स्वर भी महिला का और मुख़्तलिफ़ साज़ों को बजाने वाली भी महिलाएँ. सुन्दर सी पोशाखों में मंच पर जब ये प्रतिभाएँ नमूदार होती हैं तो इस बानगी पर निहाल हो जाने का मन करता है.
आवाज़ के इन बिखरे हुए मोतियों को एक माला में पिरोने का काम किया सरदार दविन्दर सिंह ग्रोवर ने. वे रंगमंच के कलाकार हैं. नाटकों में कई कि़रदार निभा चुके हैं और जबलपुर में नाट्य लोक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था के संचालक हैं. दविन्दर के कानों में जब शब्द और नाद की हमजोली में निखरा इन तरूणियों का संगीत गूँजा तो वे सम्मोहित हो गये. पूरा कुनबा ही महिला संगीतकारों का उनके सामने था.
मालूम हुआ कि इन कन्याओं को एकजुट करने वाली नेपथ्य की शक्ति डॉ. शिप्रा सुल्लेरे हैं. वे संगीत की शोधार्थी रही हैं. भक्ति काल की कविता पर उन्होंने पीएचडी की उपाधि हासिल की है. वे ही इन प्रतिभाओं की गुरू भी है. दविन्दर और शिप्रा की रचनात्मक संधि पर श्री जानकी बैंड अस्तित्व में आया. पहली प्रस्तुति के लिए कोरोना काल में ही इस समूह को आमंत्रण मिला श्री जानकी रमण महाविद्यालय जबलपुर का. प्रस्तुति संपन्न हो जाने के बाद महाविद्यालय के प्राचार्य अभिजात कृष्ण त्रिपाठी ने ही इसका नामकरण किया- श्री जानकी बैंड ऑफ वुमेन. ऑनलाईन कार्यक्रम को बड़े ही चाव से जबलपुर और दीगर शहर-क़स्बों के श्रोताओं ने सुना. यहाँ कबीर के निरगुण भक्ति संगीत से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता 'सन्नाटा' तथा जनजातीय और बुंदेली लोक धुनों की मटियारी महक थी. दरअसल यह जानकी बैंड का सुदूर यात्रा पर चल पड़ने वाला मंगलाचरण था. माँ सरस्वती के ही पवित्र मंच (जानकी महाविद्यालय) पर शब्द-स्वरों का यह अभिषेक निश्चय ही एक शिव-संकल्प को धारण करने की इच्छा शक्ति का प्रतीक भी था.
जानकी बैंड का संदर्भ लेते हुए कई सारे पहलुओं पर विचार करना ज़रूरी लगता है. पहला तो यही कि वृन्दगान की परंपरा की छूटी हुई कड़ी से नई पीढ़ी को जोड़ा जाये. सामगान के पाठ से लेकर सेना के जवानों में शौर्य और पराक्रम का जज़्बा जगाने, प्रार्थना सभाओं में भक्ति पदों को गाने, स्कूलों में प्रेरणास्पद गीतों की प्रस्तुति और सामाजिक जन-जागरण के लिए उत्साह की नई हिलोर जगाने वाली रचनाओं तक सामूहिक गान या कोरस सिंगिंग का अनिवार्य चलन रहा. याद करें अस्सी-नब्बे का दशक जब आकाशवाणी और दूरदर्शन पर नियमित रूप से पंडित सतीश भाटिया और विनयचन्द्र मौदगल्य के निर्देशन-संयोजन में वृन्दगान का प्रसारण किया जाता था. बाद में गंधर्व महाविद्यालय दिल्ली के छात्र-छात्राओं को लेकर पंडित मधुप मुद्गल ने भी अनेक प्रस्तुतियाँ देश भर में दीं.
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 1980 से 2000 के दरमियान संतूर वादक पंडित ओमप्रकाश चौरसिया ने 'मधुकली वृन्द' के माध्यम से प्राचीन और आधुनिक कविताओं के प्रचार-प्रसार के लिए समूह गान शैली को चुना. उनके वृन्द में किशोर उम्र से लेकर साठ बरस की प्रौढ़-वरिष्ठ गान प्रतिभाएँ शामिल होती रहीं. भक्तिकाल से लेकर प्रयोगवाद, प्रगतिवाद, छायावाद और आधुनिक काल में रची जा रही विविध रंगी कविताओं को सरल-सहज और सुरम्य धुनों में उन्होंने ढाला. चौरसियाजी के निधन के बाद 'मधुकली वृन्द' भी ख़ामोश हो गया. भारत में नई सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने रवीन्द्र संगीत रचते हुए उसे समवेत स्वरों में गाने का संस्कार बंगाल को दिया. ताज़ा दृश्य यह है कि टैगोर के विश्व भारती और दीगर संस्थाओं में भी इस विधा के उन्नयन को लेकर गंभीर प्रयत्न दिखाई नहीं देते.
…दुर्भाग्य से वृन्दगान जैसी प्रभावी और प्रेरक विधा को समृद्ध तथा लोकप्रिय बनाने में शासकीय और ग़ैर सरकारी स्तर पर भी कोई रूचि दिखाई नहीं देती. बरसों बाद श्री जानकी बैंड ने जैसे वृन्दगान की सात्विक, मधुर और रंजनकारी परंपरा का पुनर्वास किया है. दरअसल संगीत समूह का संचालन करते हुए व्यावहारिक और तकनीकी दिक्कतें भी गिनाई जाती हैं. संगीतकारों का कहना है कि वृन्दगान की मेलॅडी और उसके सम्मोहन का गहरा असर श्रोताओं पर पड़ता है. वह गहन उर्जा से भरे स्वरों का संगीत है लेकिन प्रदर्शनकारी कला का रूप धारण करने के क्रम में आज गायकों को अपनी स्वतंत्र पहचान इसमें दिखाई नहीं देती.
वृन्दगान की सुगढ़ प्रस्तुति बहुत अभ्यास मांगती है. शब्द, विचार, स्वरों का आरोह-अवरोह, परस्पर तालमेल और प्रस्तुति के दौरान भाव-भंगिमाएँ इन सबके साथ परिष्कृत और प्रभावी स्वरूप गढ़ने के लिए स्वयं का उत्साह, संस्कार, आत्मानुशासन आदि की दरकार कलाकार से होती है. यह भी कि वृन्दगान के कल्पनाशील, मेधावी और मेहनतकश संगीतकार भी अब सिमटते जा रहे हैं.इन तमाम रिक्तताओं के बीच जानकी बैंड की चहक-महक से परिवेश खिल उठा है. स्कूल शिक्षा विभाग को चाहिए कि वह जानकी बैंड को एक मॉडल के रूप में स्वीकार कर, उन्हें साथ लेकर वृन्दगान के प्रचार-प्रसार के लिए एक वृहद परियोजना तैयार करे. याद करें- "मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा".
Rani Sahu

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