सम्पादकीय

यूं बना भारत का संविधान

Gulabi
26 Nov 2021 5:35 PM GMT
यूं बना भारत का संविधान
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भारत के आज़ादी और संविधान से जुड़ी बहुत जरूरी बातें
भारत के आज़ादी और संविधान से जुड़ी बहुत जरूरी बातें, तथ्य और मूल्य हम भूलते जा रहे हैं. पृष्ठभूमि को जानने की रूचि समाप्त हो चुकी है. उन भूली जा रही बातों को याद दिलाने की जरूरत है. पहला तथ्य तो यही है कि 26 नवंबर 1949 को भारत की संविधान सभा ने संविधान को पारित किया था. दूसरा तथ्य यह है कि यह संविधान ऐसी परिस्थितियों में लिखा गया था, जब देश के बाहर दूसरे विश्व युद्ध के बाद बर्बादी का माहौल था और देश के भीतर सांप्रदायिक टकराव का. उसी वक्त भारत का विभाजन भी हो रहा था.
इन परिस्थितियों में बाहरी घटनाओं से विचलित हुए बिना, भारत इंसाफ, बराबरी, प्रेम, लोकतंत्र, सौहार्द, स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व के मूल्यों को जोड़कर अपना संविधान बना रहा था. संविधान के मूल्यों पर बार-बार बात होना चाहिए ताकि इस भ्रम को तोड़ा जा सके कि भारत के संविधान में दर्ज मूल्य भारत की अध्यात्मिक मूल्यों से असंगत हैं. क्या भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं में न्याय नहींं है, करुणा और बंधुत्व नहीं है, प्रेम और सद्भाव नहीं है, अहिंसा नहीं है, स्वतंत्रता नहीं है? यही तो भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के मूल स्तम्भ हैं.
बहरहाल, यह उल्लेखनीय है कि जातिवाद, लैंगिक भेदभाव, हिंसा और सांप्रदायिक उपनिवेश की परम्पराएं सत्ता की स्थापना के लिए बनाई गईं और इन्हें धार्मिक सिद्धांतों का आवरण ओढ़ा दिया गया. अतः व्यवस्था की राजनीति और मूल्यों की राजनीति के परस्पर संबंधों को हमेशा ध्यान में रखना होगा. हम निश्चित रूप से भारत के संविधान की महत्ता और उसकी व्यापकता पर मोहित हो सकते हैं, लेकिन डा. बीआर अंबेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि हम विरोधाभासों से परिपूर्ण भारत में लोकतंत्र और समतामूलक समाज की स्थापना का सपना देख रहे हैं.
उन्होंने कहा था कि यह बात नहीं है कि भारत में लोकतंत्र न था, एक समय था, जब भारत गणराज्यों से सुसज्ज्ति था. भारत से यह लोकतंत्रात्मक व्यवस्था मिट गई है. भारत जैसे देश में, लोकतंत्र के एक लम्बी अवधि से अप्रयुक्त रहने से एक एक नई सी वस्तु समझी जाती है. संभवतः लोकतंत्र के स्थान पर तानाशाही के होने का संकट वर्तमान है. यह बहुत कुछ संभव है कि नवजात लोकतंत्र अपना स्वरुप बनाए रखे पर वास्तव में अपने स्थान पर तानाशाही की स्थापना कर दे. राजनैतिक जीवन में हम एक व्यक्ति के लिए एक मत और एक मत का एक ही मूल्य के सिधांत को मानेंगे.
लेकिन, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में एक व्यक्ति का एक ही मूल्य के सिद्धांत का हम खंडन करते रहेंगे. स्वाधीनता ख़ुशी का विषय है, पर हम यह न भूल जाएं कि स्वाधीनता ने हमारे ऊपर महान उत्तरदायित्व डाल दिए हैं. स्वाधीनता के कारण अब हमारे पास किसी त्रुटि के लिए अंग्रेजों पर दोष डालने का बहाना नहीं रहा. यदि अब कोई त्रुटि होती है तो सिवा अपने स्वयं के हम किसी अन्य को दोष नहीं दे सकते हैं. भविष्य के खतरे अतीत और वर्तमान में छिपे होते हैं. इन्हें भांप भी लिया गया था.
उदाहरण के लिए संविधान पारित होने के एक दिन पहले यानी 25 नवंबर 1949 को संविधान प्रारूप समिति के सभापति डा. बीआर अंबेडकर ने जान स्टुअर्ट मिल का उल्लेख करते हुए लोकतंत्र बनाए रखने के लिए एक सावधानी बरतने की सलाह दी थी कि किसी भी महान व्यक्ति को चरणों में अपने स्वातंत्र्य को चढ़ा न दें या उसे वे शक्तियां न सौंपें, जो उसे उन्हीं की संस्थाओं को मिटाने की शक्ति दे. महान व्यक्तियों के प्रति, जिन्होंने जीवन पर्यंत देश की सेवा की हो, कृतज्ञ होने में कोई बुराई नहीं है, पर कृतज्ञता की भी सीमा है.
किसी अन्य देश की अपेक्षा भारत के लिए यह चेतावनी अधिक आवश्यक है क्योंकि भारत में भक्ति या जिसे भक्ति मार्ग या वीर पूजा कहा जाता है. उसका भारत की राजनीति में इतना महत्वपूर्ण स्थान है जितना किसी अन्य देश की राजनीति में नहीं है. धर्म में भक्ति आत्म-मोक्ष का मार्ग हो सकता है, पर राजनीति में भक्ति या वीर-पूजा पतन तथा अंततः तानाशाही का एक निश्चित मार्ग है.
संविधान सभा का स्वरुप
भारत के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया अपने आप इसकी व्यापकता और गहराई को बढ़ा देती है. दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारतीय संविधान केवल इसलिए ही अलग नहींं है, क्योंकि यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके निर्माण की प्रक्रिया आदर्श न सही, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है. जब संविधान सभा का गठन हुआ, तब प्रांतीय सभाओं से 292, रियासतों से 93 और मुख्य आयुक्तों के प्रांतों से 4 प्रतिनिधि मिलाकर कुल 389 सदस्यीय सभा बनी थी.
लेकिन, मुस्लिम लीग के सदस्य संविधान सभा से अनुपस्थित रहे. इसके बाद 3 जून 1947 को माउंटबेटन योजना के अनुसार पाकिस्तान के संविधान के लिए अलग सभा के गठन की बात हुई और पाकिस्तान में शामिल होने वाले प्रांतों के ही चुने हुए प्रतिनिधियों से वह संविधान सभा बनी. इसके बाद, भारत की संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 299 रह गई. 31 दिसंबर 1947 की स्थिति में इन 299 सदस्यों में से मद्रास प्रांत के 49, बम्बई प्रांत से 21, पश्चिम बंगाल से 19, संयुक्त प्रांत से 55, पूर्वी पंजाब से 12, बिहार से 36, मध्यप्रांत और बरार से 17, आसाम से 8, ओडीसा से 9, दिल्ली, अजमेर और कूर्ग से 1-1 सदस्य संविधान सभा में शामिल थे.
24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के 284 सदस्यों ने संविधान की तीन प्रतियों पर हस्ताक्षर (जिनमें से एक हिंदी और एक अंग्रजी की प्रति हाथ से लिखी हुई थी) किये. जिस वक्त सभा कक्ष में संविधान की प्रति पर हस्ताक्षर किये जा रहे थी, उस वक्त बाहर रिमझिम बारिश हो रही थी और इसे भारत के लिए शुभ संकेत निरुपित किया गया था.
देश का भूगोल और संविधान
तत्कालीन अंतरिम सरकार ने संविधान सभा को व्यापक रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर 29 रियासतों और रियासत समूहों को संविधान सभा के शामिल होने के लिए तैयार किया. उस वक्त भारत कई छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था और अगर उन्हें साथ नहीं लिया जाता तो भारत का रूप कुछ और ही होता. आज जिसे हम मध्यप्रदेश कहते हैं, उसमें ही 4 रियासतें (इंदौर, भोपाल, रीवा और ग्वालियर) थी.
संविलियन की प्रक्रिया के बाद 70 सदस्य भारत की रियासतों – अलवर, बड़ौदा, भोपाल, बीकानेर, कोचीन, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, जोधपुर, कोल्हापुर, कोटा, मयूरभंज, मैसूर, पटियाला, रीवा, ट्रावनकोर, उदयपुर, सिक्किम और कूच बहार, त्रिपुरा, मणिपुर और खासी समूह, उत्तरप्रदेश समूह, पूर्वी राजपुताना राज्य समूह, मध्य भारत राज्य समूह, गुजरात राज्य समूह, दक्कन और मद्रास राज्य समूह, पंजाब राज्य समूह, पूर्वी राज्य समूह (एक और दो), अवशिष्ट राज्य समूह.
संवाद से जन्मा संविधान
संविधान के प्रावधानों और उसके स्वरुप पर आसानी से बहस शुरू हो जाती है, लेकिन उसकी गहराई को नहीं समझा जाता. पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च (इंस्टीट्यूट फार पालिसी रिसर्च) ने संविधान सभा की बहस को एक नए अंदाज़ में समझा है. उनका अध्ययन बताता है कि संविधान सभा के गठन के दिन (9 दिसंबर 1946 से संविधान लागू किये जाने (26 जनवरी 1950) तक सभा की कुल 165 बैठकें हुईं. इनमें से 46 दिन संविधान पर शुरूआती चर्चा में गए जबकि प्रारूप में दूसरी चर्चा में 101 दिन तक अनुच्छेदवार चर्चा की गई. शुरूआती प्रस्तावों पर 5 दिन और संविधान के प्रारूप को तीसरी बार चर्चा में 13 दिन लगाए गए.
नवंबर 1948 से अक्टूबर 1949 के बीच हुई अनुच्छेदवार चर्चा में 101 दिनों में से 16 दिन मूलभूत अधिकारों पर चर्चा हुई, जबकि नीति निर्देशक सिद्धांतों पर 4 दिन चर्चा हुई. इसके अलावा डा. आंबेडकर ने संविधान सभा को 25 नवंबर 1949 को बताया था कि 29 अगस्त 1947 को मसौदा समिति बनाई गई थी और इसने 141 दिनों तक काम किया. बी. शिवा राव के अनुसार मसौदा समिति ने कुल 42 बैठकें की थीं. इसके अलावा संविधान के अलग पहलुओं पर चर्चा करते हुए संविधान मसौदा समिति सहित 17 समितियां बनाई गई थीं और इन समितियों ने अपने-अपने काम के लिए लगातार बैठकें कीं.
मसौदा समिति द्वारा प्रस्तुत किये गए दस्तावेज पर हुई बहस के दौरान 7635 संशोधन प्रस्ताव पेश किये गए, जिनमें से 2473 को स्वीकार किया गया. पीआरएस का अध्ययन बताता है कि संविधान सभा में बहस-चर्चाओं में दौरान लगभग 36 लाख शब्द बोले गए. इन में से दो-तिहाई शब्द अनुच्छेद पर चर्चा के दौरान तब बोले गए जब संविधान को दूसरी बार पढ़ा जा रहा था.
कौन कितना बोला?
यूं तो संविधान सभा में 299 सदस्य थे, लेकिन कुछ सदस्य ज्यादा सक्रिय थे. डा. आंबेडकर संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष थे और बहस के दौरान बार-बार अपने मसौदे का पक्ष रख रहे थे. उन्होंने संविधान के मसौदे को अंतिम रूप ही नहीं दिया बल्कि 267644 शब्द बोले भी. मसौदा समिति के दूसरे सदस्य टी.टी. कृष्णामचारी ने 97628, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने 61162, के. एम. मुंशी ने 60056, एन. गोपालस्वामी आयंगर ने 56025 और मोहम्मद सादुल्ला ने 19868 शब्द बोले.
इनके अलावा संविधान के कुछ सदस्य बहुत सक्रियता से बहस में शामिल थे. एच.वी. कामत ने डा. आंबेडकर के बाद सबसे ज्यादा बातें रखीं और उन्होंने 188749 शब्द बोले. इनके बाद नजीरुद्दीन अहमद ने 146645 शब्द, के.टी.शाह ने 121825, शिब्बनलाल शिब्बंलाल सक्सेना ने 114264, ठाकुरदास भार्गव ने 103775 शब्द और जवाहरलाल नेहरु ने 73804 शब्द बोले. संविधान सभा की पूरी अवधि के दौरान कुल 15 महिलायें संविधान सभा के सदस्य रहीं. इनमें से जी. दुर्गाबाई ने 22905, बेगम ऐजाज़ रसूल ने 10480, रेणुका राय ने 10312, पूर्णिमा बनर्जी ने 9013, दाक्षायणी वेलायुधन ने 4415 शब्द बोले.
अम्मू स्वामीनाथन, बेगम ऐजाज़ रसूल और दाक्षायणी वेलायुधन ने मूलभूत अधिकारों पर हुई बहस में विशेष सहभागिता की, जबकि हंसा मेहता और रेणुका राय ने महिलाओं की स्थिति और न्याय पर अपने विचार रखे थे. संविधान का निर्माण एक जीवंत प्रक्रिया रही और एक बेहतर समतामूलक समाज के निर्माण के सपने को साकार करना इसकी अहम् मंशा रही.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन , निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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