सम्पादकीय

ये नाराज़गी ठीक नहीं : ज़ोमैटो के 10 मिनट की डिलीवरी और विकास के मुद्दे का मिथक

Gulabi Jagat
7 April 2022 1:17 PM GMT
ये नाराज़गी ठीक नहीं : ज़ोमैटो के 10 मिनट की डिलीवरी और विकास के मुद्दे का मिथक
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Zomato के खिलाफ मुख्य आक्रोश राइडरों की सुरक्षा को लेकर है
फहद हासीन।
यदि आप सोशल मीडिया (Social Media) पर सक्रिय हैं या समाचारों को करीब से देखते-सुनते हैं तो जोमैटो (Zomato) की 10-मिनट में डिलीवरी की नई सेवा के खिलाफ लोगों के आक्रोश से आपका जरूर सामना हुआ होगा. कुछ वैध सवाल उठे जैसे ज़ोमैटो राईडर (Zomato Rider) की सुरक्षा का क्या होगा, श्रम अधिकार का क्या होगा और क्या इस सुविधा की वाकई जरूरत है. सभी सवाल सही हैं. हालांकि मेरे विचार में ज्यादातर सवाल विशेष रूप से 10 मिनट की सेवा के लिए प्रासंगिक नहीं हैं.
राइडरों की सुरक्षा
Zomato के खिलाफ मुख्य आक्रोश राइडरों की सुरक्षा को लेकर है. लोगों का कहना है कि समय-सीमा के अंदर अनिवार्य रूप से डिलीवरी की जल्दी में राइडर तेज रफ्तार में बाइक चलाएंगे. इससे वे खुद को और दूसरों को जोखिम में डाल सकते हैं. लेकिन ये बिल्कुल सही नहीं है.
Zomato ने अपनी मूल घोषणा सहित कई बार इस पर स्पष्टीकरण दिया है कि नई डिलीवरी सिस्टम में राइडरों के लिए कुछ भी नहीं बदला है. राइडर को यह भी नहीं पता होगा कि यह 10 मिनट की डिलीवरी है या नियमित. इसके अलावा, देर से डिलीवरी के लिए कोई दंड नहीं है. ये व्यवस्था सप्लाइ-चेन के अन्य पहलुओं पर निर्भर करेगा. इसलिए, राइडरों के लिए कुछ खास नहीं बदला है.
इसका मतलब ये नहीं है कि सब कुछ ठीक ठाक है. डिलीवरी 'पार्टनर' और सामान्य रूप से पूरी गिग इकॉनमी (एक ऐसा जॉब मार्केट जिसमें लोग या तो अल्पकाल या फिर पार्ट टाईम या कांट्रैक्ट नौकरी करते हैं) के साथ मजदूरों के अधिकारों से जुड़े बहुत सारे मुद्दे हैं. मेरा सीधा सादा तर्क यही है कि 10 मिनट डिलीवरी की घोषणा पर नाराजगी अनुचित है क्योंकि इसमें राइडरों के लिए पहले से मौजूद व्यवस्थाओं में कुछ नहीं बदला है.
विकास, विकास और सिर्फ विकास
मुझे संदेह है आमतौर पर सुझाए गए उन समाधानों पर जो राज्य के हस्तक्षेप पर निर्भर हैं. यदि केवल राइडरों को 'कर्मचारी' के रूप में वर्गीकृत कर देने और उन्हें श्रम कानूनों के दायरे में लाने से सब कुछ हल हो गया होता तो हम भारत में सभी प्रकार के शोषण को बहुत पहले समाप्त कर चुके होते. हालात में जरूर ही सुधार लाया जा सकता है, अगर हम वास्तविकता पर आधारित संवेदी रेगुलेशन गिग इकॉनमी के क्षेत्र में लागू कर सकें. हालांकि, रेगुलेशन को लेकर हमारा रिकार्ड बताता है कि इसे हटाना मुश्किल है. मूल रूप से ये मुद्दा "अवसर लागत" की अच्छी पुरानी अवधारणा के बारे में है. अगला सबसे अच्छा विकल्प. डिलीवरी 'पार्टनर' जैसे गिग वर्कर इन नौकरियों को करने के लिए क्यूं तैयार हैं? अफसोस की बात है कि यह उनके पास सबसे अच्छा विकल्प है: अन्य विकल्प यानि बेरोजगारी या गरीबी बदतर विकल्प हैं. कोई अवसर ही नहीं हैं.
आइए मान लें कि ज़ोमैटो एक अच्छा खिलाड़ी है और इसने अपने डिलीवरी पार्टनर्स की स्थिति को सुधारने का फैसला लिया है. स्थिति सुधारने के लिए कुछ अतिरिक्त लागत लगेंगे. मान लें कि ड़ोमैटो प्रत्येक ऑर्डर में 20 रुपये अतिरिक्त डिलीवरी शुल्क जोड़ता है. आपको क्या लगता है क्या होगा? भारत एक अत्यंत मूल्य-संवेदनशील बाजार है; ग्राहक सस्ती डिलीवरी कीमतों के साथ अन्य ऐप की ओर चले जाएंगे. अंतत: जोमैटो इसे बरकरार नहीं रख पाएगा.
हमें अंततः जिस चीज की जरूरत है वह है अधिक धन. और ये अधिक धन केवल आर्थिक विकास के पुराने और उबाऊ विचार के जरिए ही हो सकता है. अधिक धन का अर्थ होगा बाजार में अधिक मांग और अवसर : इन गिग श्रमिकों के पास अन्य विकल्प होंगे जो बेहतर वेतन और काम की स्थिति मुहैय्या कराते होंगे. बदले में ज़ोमैटो और अन्य को उन्हें बनाए रखने के लिए बेहतर सौदों की पेशकश करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. इसके अलावा अधिक धन का मतलब ये भी होता है कि लोग कीमतों के प्रति कम संवेदनशील हो जाते हैं. ये डिलीवरी ऐप ग्राहकों को बिना खोए उनसे अधिक पैसा भी वसूल सकते हैं. "आइडियाज ऑफ इंडिया" पोडकास्ट के हालिया एपिसोड में , श्रुति राजगोपालन और लैंट प्रिटचेट ने मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए आर्थिक विकास की केंद्रीयता पर चर्चा की.
बहुत सार्थक समस्याएं हैं
एक स्वाभाविक प्रश्न जो कई लोग पूछ रहे हैं कि आखिर इस सेवा की क्या आवश्यकता है? क्या लोगों को वास्तव में 10 मिनट के भीतर अपने भोजन की आवश्यकता होती है? क्या 30-40 मिनट की मौजूदा व्यवस्था विलासिता के लिए पर्याप्त समय नहीं है? एक स्तर पर सबसे सरल जवाब यह है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में दी जाने वाली अधिकांश चीज़ों की हमें 'ज़रूरत' नहीं होती है; फिर भी जब वे ऑफर की जाती हैं तो मन में लालच आ ही जाता है. ऐसा उपभोक्ता व्यवहार निर्मित होता है. कोई भी फास्ट डिलीवरी की सुविधा को मना नहीं कर सकता. नियमित 30 मिनट की डिलीवरी का हक जताना भी 10 मिनट से कम बड़ा नहीं है.
फिर भी भारत जैसे देश के लिए ये बहुत ही आला समस्याओं जैसी लगती है. ऐसे में अग्रणी माने जाने वाले भारतीय स्टार्टअप अधिक सार्थक समस्याओं का समाधान क्यों नहीं करते हैं? रूस-यूक्रेन युद्ध पर अरविंद सुब्रमण्यम और जोश फेलमैन द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक लेख 'इंडियाज साइज इल्यूजन' का शीर्षक समस्या को दर्शाता है . 2020 में प्रकाशित एक पेपर में अरविंद सुब्रमण्यम और शौमित्रो चटर्जी ने तर्क दिया है कि भारत में घरेलू बाजार का आकार बहुत छोटा है. जनसंख्या के केवल एक छोटे प्रतिशत के पास ही सार्थक क्रय शक्ति है.
स्टार्टअप समुदाय में यह एक जगजाहिर हकीकत है. नए जमाने के भारतीय स्टार्टअप जानते हैं कि 'बाजार' वास्तव में बहुत छोटा है. इसलिए, बाजार में मुख्यधारा की अधिकांश सेवाएं मुख्य रूप से इसी हिस्से पर केंद्रित हैं. इसे सस्ते श्रम की उपलब्धता के साथ जोड़ दें. इस छोटे से सेगमेंट की जरूरतों को पूरा करने के लिए नई समस्याओं और उनके समाधान , जैसे 10 मिनट की डिलीवरी का आविष्कार करना होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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