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राजनीतिक वजहों से तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया गया है
वाई के अलघ संभवत: राजनीतिक वजहों से तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया गया है। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह जरूर कहा कि सरकार कुछ किसानों को समझा न सकी, पर आम धारणा यही बनी है कि आने वाले विधानसभा चुनावों में किसान आंदोलन के पड़ने वाले असर को देखते हुए सरकार ने अपने कदम पीछे खींचे हैं। पंजाब में बेशक भाजपा का सीधे तौर पर बहुत कुछ दांव पर नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश उसके लिए काफी अहमियत रखता है। यहां विशेषकर पश्चिमी हिस्से में किसान आंदोलन खासा असरंदाज है।
हालांकि, कई अच्छे प्रावधानों के बावजूद इन कृषि कानूनों में कुछ खामियां थीं। इनमें खेती-किसानी के नियम समान रूप में देश भर में लागू करने की वकालत की गई थी, जबकि अलग-अलग इलाकों में किसानों की अलग-अलग समस्याएं हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) जरूरी है, तो महाराष्ट्र और गुजरात में बाजार महत्वपूर्ण हैं। मगर ये कानून एमएसपी को खत्म कर रहे थे और ऑनलाइन कारोबार को बढ़ावा दे रहे थे, जिसकी अपनी मुश्किलें हैं। यही वजह है कि कानून वापसी को पूरे देश के किसानों की जीत नहीं कह सकते। क्षेत्रवार किसानों की अलग-अलग जरूरतें हैं। इतना ही नहीं, सुधार की प्रक्रिया धीमी गति से आगे बढ़ती है, इसे छड़ी से नहीं हांका जा सकता, जबकि इन कानूनों को संभवत: जोर-जबर्दस्ती से लागू करने की कोशिश की गई। यहां तक कि संसद में एक दिन में ही बिना किसी बहस से इनको पारित करा लिया गया।
नीति आयोग के सदस्य रमेश चांद ने इस बाबत एक फ्रेमवर्क तैयार किया था कि इन कानूनों को किस तरह से लागू करना चाहिए, ताकि इनका पूरा लाभ मिल सके। ये कानून मूलत: माल ढुलाई और व्यापार के माध्यम से किसानों को लाभ देते। मगर तकरीबन दो साल के कोविड संक्रमण-काल में आवागमन की व्यवस्था सुगम नहीं थी, इसलिए रमेश चांद ने राज्य सरकारों से पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद ही इन कानूनों को लागू करने की बात कही थी। अगर अब भी इस फ्रेमवर्क पर काम हो, तो किसानों को लाभ हो सकता है, और कृषि सुधार की सरकार की मंशा भी पूरी हो सकती है।
खेती-किसानी के हित में अब सरकार को कुछ अन्य कदम उठाने चाहिए। जैसे, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में एमएसपी के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए। यहां सरकारी खरीद भी तय वक्त पर होनी चाहिए। गुजरात में न्यूनतम समर्थन मूल्य कितना महत्वपूर्ण है, यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन तिलहन की खेती में सरकार को जरूर मदद करनी चाहिए। रही बात छोटे किसानों की, तो उनकी समस्याएं कई बार दूसरे कारकों से जुड़ी होती हैं। इसलिए, देश भर में कृषक उत्पादक कंपनियां बननी चाहिए, जो कृषि उत्पादन कार्य में लगी हों और खेती-किसानी से जुड़ी व्यावसायिक गतिविधियां चलाएं।
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उनको अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। इसकी एक वजह यह है कि सरकार कई उत्पाद विदेश से मंगवा लेती है। इस पर अब रोक लगनी चाहिए। जैसे, जब घरेलू दालें बाजार में आ रही हों, तब सरकार इनका आयात करने या सीमा-शुल्क कम करने का फैसला न ले। कारोबार की शर्तें भी किसानों के खिलाफ जाती रही हैं। कृषि कानूनों में उचित ही यह प्रावधान था कि किसान अपनी मर्जी से फसल बेचता, पर अगर सरकार की मंशा कृषि सुधार है, तो वह अब भी ऐसे उपाय कर सकती है कि किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य मिले या बाजार समिति उनकी उपज को उचित दाम पर खरीदे।
जाहिर है, कानूनों के इतर भी काफी कुछ किया जा सकता है। खासकर धान, गेहूं जैसी बड़ी फसलों पर एमएसपी व्यावहारिक तौर पर लागू होनी चाहिए। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों को इससे लाभ होगा। इसी तरह, देश के बाकी हिस्सों में बाजार मजबूत बनाने होंगे। किसानों की सहकारी संस्थाएं भी बननी चाहिए। खासकर छोटे किसानों की संस्थाएं अगर नहीं बनाई गईं, तो वे बाजार में अपने हित नहीं ढूंढ़ पाएंगे या आढ़तियों के हाथों के खिलौने बनकर रह जाएंगे। कृषि सुधार के लिए हमें कानूनी तरीकों के साथ-साथ व्यावहारिक कदम उठाने होंगे, तभी किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य हम पा सकेंगे। इसके लिए छोटे और सीमांत किसानों की कृषक उत्पादक कंपनियों को हमें विशेष प्रोत्साहित करना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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