सम्पादकीय

तीसरे विश्व युद्ध की आहट

Subhi
25 Feb 2022 3:37 AM GMT
तीसरे विश्व युद्ध की आहट
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रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध से कहीं न कहीं तृतीय विश्व युद्ध की आहट इस वजह से आ रही है कि रूस के विरुद्ध जिस तरह पश्चिमी यूरोपीय देश व इनका सामरिक शक्ति का समूह ‘नाटो’ आक्रामक हो रहा है

आदित्य चोपड़ा: रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध से कहीं न कहीं तृतीय विश्व युद्ध की आहट इस वजह से आ रही है कि रूस के विरुद्ध जिस तरह पश्चिमी यूरोपीय देश व इनका सामरिक शक्ति का समूह 'नाटो' आक्रामक हो रहा है उससे खुद को 'दुनिया का दरोगा' समझने वाला देश अमेरिका रूस को कमजोर करने की रणनीति की बिसात बिछा सकता है और युद्ध की सामग्री की खपत के तरीके निकाल सकता है। यह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं है कि विश्व की फौजी या युद्धक सामग्री के निर्माता अमेरिका व यूरोपीय देश ही हैं। मूल प्रश्न यह है कि वे सब पश्चिमी देश यूक्रेन को लेकर इतने उत्तेजित क्यों हैं जिन्होंने इस सदी के शुरू में इराक पर अमेरिकी हमले का समर्थन उसके पास 'जनसंहार के अस्त्र' होने के नाम पर किया था। उस समय भी विश्व मीडिया पर अमेरिका के समर्थकों का कब्जा था और आज भी है जिसकी वजह से यूक्रेन में रूस के कदम को अनावश्यक रूप से युद्ध भड़काने वाला दिखाया जा रहा है परन्तु हकीकत में तस्वीर का यह असल रंग इसलिए नहीं है क्योंकि रूस को भी आत्मरक्षा में कदम उठाना जरूरी है। सब जानते हैं कि 90 के दशक के दौरान ही सोवियत संघ का विघटन विभिन्न 14 देशों में हुआ था जिनमें यूक्रेन भी एक है। मगर बाद में 2014 में इसी यूक्रेन के पूर्वी इलाके को दो इलाकों ने स्वयं को पृथक गणतन्त्र घोषित किया। इनमें रहने वाले लोगों की संस्कृति रूसी संस्कृति से बहुत मेल खाती है और वे स्वयं को यूक्रेन से अलग पहचान के तौर पर देखते हैं जिसकी वजह से रूस की सहानुभूति इन इलाकों के साथ है। नाटो देशों व अमेरिका का रुख विश्व के विभिन्न देशों में उपजी ऐसी समस्याओं पर अपना हित साधने के लक्ष्य से किस तरह बन्धा रहा है इसका अन्दाजा हमें इस हकीकत से होना चाहिए कि जब 1998-99 में निर्गुट देशों के नेता रहे युगोस्लाविया के मार्शल टीटो के देश में तत्कालीन राष्ट्रपति मिल्कोविच अपने देश को संगठित रखने व कोसावो व सर्बिया आदि का विघटन रोकने की मुहीम चला रहे थे तो इन्ही नाटो देशों ने युगोस्लाविया के विरुद्ध अपने-अपने सैनिक ठिकानों से कार्रवाई करके इस देश को तोड़ डाला था और श्री मिल्खोविच को गिरफ्तार करके उनके विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में जनसंहार करने का मुकदमा चलाया था। उस समय सैनिक कार्रवाई करने से पहले अमेरिका ने राष्ट्रसंघ की कोई परवाह नहीं की थी। इराक के मामले में भी ऐसा ही किया गया । युगोस्लाविया को तो सोवियत संघ के विघटन के बाद कम्युनिस्ट विचारघारा की विदाई के तौर पर देखा गया। अब रूस के विरुद्ध जिस तरह नाटो व पश्चिमी शक्तियां एकजुट हो रही हैं उसके मन में भी कहीं न कहीं विचारघारा का पहलू काम कर रहा है क्योंकि अमेरिका किसी भी कीमत पर रूस को अपने क्षेत्र में महाशक्ति के रूप में देखना नहीं चाहता जिसकी वजह से यूक्रेन की पश्चिम की विचारधारा की तरफ झुकी हुई सरकार नाटों देशों का सदस्य बनना चाहती है जिससे रूस पर लगातार सामरिक दबाव बना रहे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जिस प्रकार अमेरिका व सोवियत संघ विश्व की दो महाशक्तियों के रूप में उभरे थे उसमें नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद गुणात्मक परिवर्तन आ चुका है मगर इसके बावजूद रूस एशिया-यूरोप के क्षेत्रों में अपने सामरिक व आर्थिक सामर्थ्य के कारण एक शक्ति है जिसकी वजह से दुनिया के विभिन्न महाद्वीपों में अभी तक उसकी ताकत का दम भरा जाता है, हालांकि उसकी कम्युनिस्ट विचारधारा का अब आर्थिक वैश्वीकरण के बाद जनाजा उठ चुका है। पूरे मामले में भारत की भूमिका भी कम अहम नहीं है क्योंकि रूस से भारत के आर्थिक सम्बन्धों से लेकर सामरिक सम्बन्धों की घनिष्ठता में कहीं कोई कमी नहीं आयी है। अतः भारत का यह कहना कि समूचे मामले पर कूटनीतिक स्तर पर शान्ति के साथ हल की तरफ चलना चाहिए महत्वपूर्ण है। दूसरे यह देखा जाना चाहिए कि रूस यूक्रेन के पूर्वी इलाके की स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहा है, वहां के लोगों का समर्थन उसे प्राप्त है या नहीं।संपादकीय :गहलोत की सौगातेंपुतिन की चाल से भूचालचरणबद्ध बदलते चुनावी मुद्देजुगलबंदी प्रोग्राम से रिश्तों में मजबूतीहर्षा की हत्या से उठे सवाल?आनलाइन शिक्षा : ​सम्भावनाएं और चुनौतियांमगर यह जरूर याद रखा जाना चाहिए कि अमेरिका ने 80 के दशक में अफगानिस्तान में क्यों दखलन्दाजी देनी शुरू की थी और वहां सोवियत प्रभाव को कम करने के लिए उसने किस तरह पाकिस्तान की मदद से तालिबानों को पैदा करने की मुहीम चलाई थी। आज अफगानिस्तान को किस हालत में छोड़ कर अमेरिका गया है उसका नजारा हम सभी के सामने है। यूरोपीय देश जिस तरह रूस के खिलाफ प्रतिबन्ध लगा रहे हैं उससे समस्या का बजाय हल होने के इसमें इजाफा ही हो सकता है क्योंकि इससे पूर्व जब रूस ने क्रीमिया को अपने अधिकार में लिया था तो भी प्रतिबन्ध लगाये गये थे। जरूरत विश्व स्तर पर शान्ति का माहौल बनाये जाने की है इसके लिए अमेरिका व रूस को बातचीत की मेज पर बैठ कर ऐसा फार्मूला खोजना होगा जिससे यूक्रेन के पूर्वी इलाके के लोगों की इच्छा का सम्मान हो। साथ ही प्रश्न यह है कि पूर्वी यूरोपीय देशों के सामरिक शक्ति संगठन 'वारसा' संधि के खत्म हो जाने के बाद नाटो का अस्तित्व ही क्या विश्व स्तर पर सीनाजोरी दिखाने का 'प्रकल्प' नहीं है।

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