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महात्मा गांधी-सावरकर के बीच
एक महान जर्मन दार्शनिक का दावा है कि आप अपने मित्रों के बारे में बताइए तो मैं बता सकता हूं कि आप क्या हैं? किसी व्यक्ति के आसपास रहने वाली मित्र मंडली से भी उस व्यक्ति के बारे में जाना जा सकता है। महात्मा गांधी का मामला इससे भी थोड़ा अलग किस्म का है। उनकी खूबी थी कि अपने से भिन्न विचार रखने वालों से वैचारिक आदान -प्रदान करने में उन्हें कोई संकोच नहीं था। वे किसी वैचारिक अछूतपन के शिकार नहीं थे।
इस अर्थ में गांधी जी को कभी 'ही' वादी चिन्तक - विचारक कहने के बजाय- 'भी' वादी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। उनके शिक्षा के मूल में यह बात निहित है कि "किसी वाद को वेद वाक्य मत मानो, भले ही वह किसी महात्मा ने कही हो, जब तक कि वह तुम्हारे मस्तिष्क और हृदय को न जंचे।" आज हमारे राष्ट्रीय विमर्श में गांधी और सावरकर के बहाने ज्यादातर तर्क 'ही' वाद के ही दायरे में ( कई जगह कुतर्क और बिना तथ्य के भी) पेश किये जा रहें हैं। इस जोर और जिद के साथ कि जो हम कह रहे हैं, वहीं एक मात्र सच है। बाकी कोई सच हो नहीं सकता खासकर इतिहास के संदर्भ में।
सच्चाई यह है कि इतिहास का भी कोई अंतिम सच नहीं हो सकता। हालांकि, ज्यादा दिन नहीं हुए पश्चिम के एक विचारक ने इतिहास के अंत की घोषणा कर ही दी थी। पर भारत के स्वाधीनता संग्राम से आज भी बहुत कुछ सीखने-समझने और सबक लेने की जरूरत है। खासकर जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मन रहा है। इतिहास की एक सच्चाई यह भी है कि" जो पीढ़ी इतिहास से सबक नहीं लेती, इतिहास उसे अपने तरह से सजा भी देता है - इस अर्थ में कि " लम्हों ने ख़ता की है सदियों ने सज़ा पाई।"
महात्मा गांधी हमारे स्वाधीनता आंदोलन के निराले 'मिथक' रहें हैं। एक बार फिर विनायक दामोदर सावरकर के अंग्रेजों से माफीनामा से पैदा हुए विवाद की वजह से चर्चा में है। एक और प्रबल विवाद भविष्य में गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे पर बनने जा रहीं फ़िल्म के बहाने हमारी बाट जोह रहा है। इस साल गांधी जी की 152वीं जयंती पर फ़िल्म निदेशक महेश मांजरेकर ने नाथूराम गोडसे पर फ़िल्म बनाने की घोषणा की है। इस फ़िल्म की शुरुआत गांधी जी के प्रिय भजन'रघुपति राघव राजा राम से' और नाथूराम गोडसे द्वारा गांधी को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए होती है। इसके पहले भी ' मी नाथूराम बोलतोय' नाटक के बहाने महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे पर अच्छी खास बहस हो चुकी है।
इन बहसों से अपने देश मे एक तबका गांधी जी की हत्या को जायज ठहराने पर तुला है। दूसरे तबके को यह शिकायत है कि गांधी जी की आज़ाद भारत की कोर्ट में दुबारा हत्या की गई। इस बहस को बड़े करीने से अमरीकी लेखक जेम्स डब्लू डगलस ने अपनी पुस्तक "अन स्पिकेबुल: गांधी लास्ट एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ" में उठाया है।
पिछले साल राजकमल से छपीं इस पुस्तक का बेहतरीन अनुवाद मदन सोनी ने किया है। इस पुस्तक में दुनिया के उन चार अन्य राजनीतिक हत्याओं की चर्चा तथ्यों के साथ पेश किया गया हैं, जिनकी हत्या में और महात्मा गांधी की हत्या एक समानता हैं।
वे शख्सियतें हैं- अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी, मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) मेलक्म और रोबर्ट एफ केनेडी। सन 1963 के अंत से 1968 के बीच इनकी हत्याएं की गई थी। इन हत्याओं के पीछे असली मंशा की गूंथी आज भी वैसे ही उलझी हैं, जैसे अपने देश में महात्मा गांधी की।
गांधी जी यह ठीक से जानते थे कि जिस हिंसक राजनीति और चुनिंदा राजनीतिक हत्याओं में दामोदर सावरकर और उनके अनुयायियों का भरोसा है, उससे उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। इस हिंसक राजनीति के प्रतिरोध स्वरूप ही गांधी जी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज में 13 नवम्बर से 23 नवम्बर के बीच 1909 में 'हिन्द स्वराज' की रचना की। इस दौरान 21 दिसंबर 1909 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में अंग्रेज मजिस्ट्रेट एम टी जैक्सन की हत्या, एक सोलह साल के नौजवान अनंत कन्हारे ने किया। इस हत्या में प्रयुक्त ब्राउनिंग रिवाल्वर लंदन से विनायक सावरकर ने भेजी थी।
अनन्त कन्हारे ने अदालत में स्वीकार किया कि उसने सावरकर के बड़े भाई की सजा का बदला लेने के लिए जैक्सन की हत्या की है। सावरकर के बड़े भाई बारबरा राव पर जैक्सन ने देशद्रोह का अभियोग लगाया था। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गई थी। इस अभियोग में ही दामोदर सावरकर को लंदन से पकड़ कर भारत लाया जा रहा था। पेरिस में अपनी गुप्त योजना के मुताबिक सावरकर ने समुद्र में कूद कर भागने का भी प्रयत्न किया। पर उनकी योजना इसलिए असफल हुई कि उनके बुलाये मित्र समय पर पोर्ट नहीं पहुंच सके।
सावरकर को फिर गिरफ्तार किया गया। भारत में उन्हें कालापानी की सजा के लिए कुख्यात पोर्ट ब्लेयर के सेलुलर जेल में जून 1911 से सन 1921 के बीच दस साल तक रहना पड़ा। सावरकर को पचास साल की सजा सुनायी गई थी। इस जेल में सावरकर ने एक साल की सजा पूरा होने के बाद सन 1913 में एक याचिका दायर किया जिसमें कहा गया कि-
मेरे संवैधानिक रास्ते पर आने पर भारत और भारत के बाहर सारे भटके हुए नवयुवक सही रास्ते पर आ जाएंगे, जो मुझे मार्ग दर्शक समझकर मेरी ओर देखते हैं। मुझे जेल में रखकर कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता, जो मुझे मुक्त कर के प्राप्त किया जा सकता है। जो शक्तिशाली होता है, वहींदयावान होने का सामर्थ्य रखता है।
इसलिए एक भटका हुआ बेटा माई-बाप सरकार के अभिभावकीय द्वार के अलावा और कहां लौट सकता है।" यहां यह याद दिलाना जरूरी है जब सावरकर की ओर से दया याचिका दायर की गई उस वक्त उनसे उम्र में चौदह साल बड़े महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में भारतीय और एशियाई समुदायों पर बरती जा रही तमाम तरह की जुल्म-ज्यादतियों के विरुद्ध निर्णयाक लड़ाई लड़ रहे थे।
दक्षिण अफ्रीका में हाल ही में प्राप्त सत्याग्रह अस्त्र के बूते। सन 1915 में भारत लौटने के बाद देश की आजादी में भी वे इसी आजमाए अस्त्र का इस्तेमाल करने वाले थे। सावरकर और उनके अनुयायियों को ऐसे सत्याग्रही अस्त्रों का प्रयोग कतई रास आने वाला नहीं था। ऐसा भी नहीं है कि गांधी जी यह काम लुक- छिपकर ,गोपनीय तरीके से करने वाले थे।
किसी काम को अंजाम देने का यह गांधी का तरीका नहीं था, न हो सकता हैं। 13 मार्च 1915 को कलकत्ता में उग्रवादी छात्रों की एक विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए गांधी जी ऐलान करते है कि-
राजनीतिक हत्याएं " भारत में पूरी तरह विजातीय है। जो लोग ऐसा कर रहें हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि मैं उनके खिलाफ खड़ा होऊँगा। अगर राजनीतिक हत्या के पैरोकारों के सामने देश के लिए कोई योजना है, तो उसे जनता के सामने रखना चाहिए। राजद्रोह के पक्ष में खुलकर बोलना चाहिए और उसके नतीजों के लिए तैयार रहना चाहिए।"
10 मार्च 1922 को गांधी जी गिरफ्तारी बतौर पत्रकार 'यंग इंडिया' में लिखें गए उनके तीन लेखों की वजह से होती है। जज ब्रुम्फील्ड ने गांधी जी को छह साल की सजा मुकर्रर किया। वहीं सज़ा , जो उनके पहले बाल गंगाधर तिलक को 'केसरी' अखबार में लिखें तीन लेखों के लिए दिया गया था। उस वक्त गांधी जी को यरवदा जेल में रखा जाता है।
संयोग देखिये कि सेलुलर जेल से रिहा होने के बाद सावरकर को पहले कुछ समय के लिए रत्नागिरी जेल में रखा गया। फिर सन 1923 में उन्हें यरवदा जेल भेजा दिया गया। उसी जेल में जहां गांधी देश द्रोह की सज़ा भुगत रहे थे। सावरकर अपने संस्मरण में लिखते है कि-
"मैंने गांधी के तमाम अनुयायियों की तीख़ी आलोचना की ताकि उनके आँखों पर पड़ा पर्दा हट जायें। यह कि चरखा कातकर, स्वराज हासिल करना, हिंदुओं के कर्तब्य के रूप में मुसलमानों के ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन करना और अहिंसा की हास्यास्पद परिभाषाएं, इन सबकी अकाट्य तर्कों से (मैनें) धज्जियां उड़ा दी।
सावरकर को 6 जनवरी 1924 को यरवदा जेल से रिहा किया गया। अपनी इस रिहाई की तुलना सावरकर ने भगवान कृष्ण से की है, जो इस बात पर राजी हो गए थे कि वे पूरे युद्ध के दौरान अस्त्र नहीं उठाएंगे और उनके इस समझौते को अपमानजनक नहीं माना गया है। सावरकर की रिहाई की तुलना उनके अनुयायियों ने राम के वनवास से की है। यह बताते हुए कि राम ने रावण का वध अपने वनवास के के दौरान किया।
इसके जवाब में सावरकर अपने संस्मरण में लिखते है कि "
मुझे भी देश निकाला दिया गया। अनेक पीड़ाओं को झेला। लेकिन रावण अभी भी जिंदा है। एक दिन वह काम भी हो जाएगा। तब आप इस फर्क को समझ जाएंगे और वह घटना आपको बहुत पीड़ा पहुँचायेगी।" गांधी की हत्या के दो वर्ष बाद सावरकर का यह संस्मरण प्रकाशित हुआ।
गांधी जी फिर भी 1927 में रत्नागिरी में दामोदर राव सावरकर से दोस्तना मुलाकात करने गये। इस मुलाकात में गांधी जी कहते हैं कि-
मैं जानता हूं कि कई मामलों में आपके और मेरे विचारों में काफी अंतर हैं। आपके और हमारे रास्ते अलग-अलग हैं, फिर भी देश के लिए मैं एक प्रयोग कर रहा हूँ।
जवाब में सावरकर कहते हैं कि-
देश के साथ यह प्रयोग करने की छूट आपको बहुत दिनों तक नहीं दी जा सकती।
मुलाकात के बाद जब गांधी वहां से निकल रहें थे, तो उन्होंने सावरकर से कहा-
आप जो भी प्रयोग कर रहें है, उसकी कीमत राष्ट्र को चुकानी पड़ेगी।"
महात्मा गांधी और विनायक दामोदर राव सावरकर की यह अंतिम मुलाकात थी। हरिजनों के मंदिरों में प्रवेश के अलावा इन दोनों महापुरुषों के बीच सहमति का कोई ठोस आधार नहीं है। फिर भी दोनों देश की आजादी के 75वें साल में हमारे राष्ट्रीय विमर्श में अपने-अपने ढंग से हमारे राष्ट्रीय भी जिंदा हैं। तो यही कहा जा सकता है -
चर्चे हमेशा कामयाबी के हों, हमेशा ये जरूरी तो नहीं,
बरवादियां भी वक़्त को मशहूर किया करती हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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