सम्पादकीय

हिमाचल का थिंक टैंक-1

Gulabi
17 Aug 2021 4:56 AM GMT
हिमाचल का थिंक टैंक-1
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हिमाचल प्रदेश को पर्वतीय राज्यों का शिरोमणि और प्रगतिशील माना गया है, लेकिन

हिमाचल प्रदेश को पर्वतीय राज्यों का शिरोमणि और प्रगतिशील माना गया है, लेकिन सुनहरे शब्दों के ठीक नीचे प्रदेश के प्रति भविष्य की समझ या विजन की अस्पष्टता साफ जाहिर है। इसका एक कारण तो यह है कि राज्य में स्वतंत्र, मौलिक, गैर राजनीतिक तथा गैर सरकारी विवेचन नहीं होता या यूं कहें कि आज तक ऐसे थिंक टैंक स्थापित नहीं हुए, जो हिमाचल की संपूर्णता, संभावना और संकल्पों के सूत्रधार बन पाते हैं। राज्य के बजट से महामंडित दिशाओं में दीप जलाती हमारी आशाएं भी दरअसल सरकारी भुजाएं बनने की अजीबो-गरीब शिरकत हैं। बेशक हमने केंद्रीय योजनाओं का आवरण ओढ़ रखा है या इनके निपटारे में अव्वल अनुसरण करने का मतैक्य है, लेकिन हिमाचल को हिमाचल की आंख से कब देखेंगे। पश्चिम बंगाल जैसे राज्य ने कोविड की महामारी के दौरान अपने थिंक टैंक के बलबूते ऐसी परिकल्पना कर ली कि वहां ग्रामीण आर्थिकी को जनसहयोग के सहारे आत्मिक शक्ति मिल रही है। हिमाचल के नागरिक समाज जिसमें बहुतायत सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों या पेंशनर्ज की है, क्या कोरोना से हारते निजी क्षेत्र के लिए कोई सोच, विचार या पेशकश की।


आश्चर्य तो यह कि प्रदेश का हर मंच राजनीतिक, तालियां और शाबाशी राजनीतिक और भविष्य का ज्ञान व समाधान भी राजनीतिक। हिमाचल का प्रबुद्ध समाज भी प्रदेश की बेहतरी के बजाय, सरकार के अपव्यय में अपनी बेहतरी के अलावा कुछ नहीं सोचता। बेशक प्रदेश में मीडिया एक बड़े थिंक टैंक के रूप में उभरा है, लेकिन इस पक्ष को भी अब प्रतिक्रियात्मक दृष्टि से ही देखा जाता है। राज्य की तासीर में आलोचनात्मक टिप्पणियों को अपराध की दृष्टि से देखा जाता रहा है और यह अब प्रदेश की मानसिकता में सबसे बड़ा खोट है, जिसके कारण हिमाचल का विजन तैयार नहीं हो पाता। मंडी शहर में आजकल विजय हाई स्कूल प्रकरण को लेकर राजनीतिक व सामाजिक आक्रोश सामने आ रहा है, लेकिन इसके बरअक्स यह भी देखना होगा कि शहरी विकास में हिमाचल के पास कोई सैद्धांतिक रास्ता या विचार मंथन सामने नहीं आया है। टीसीपी कानून आए चार दशक से अधिक समय गुजर गया, लेकिन ऐसा कोई थिंक टैंक सामने नहीं आया जो हिमाचल के शहरी विकास को प्रदेश की दृष्टि से संपन्न कर पाता। ऐसे में मीडिया बहस का उद्देश्य भी सीमित हो जाता है। हालांकि प्रदेश के चिंतन मनन में कलम का योगदान पत्रकारिता से साहित्य तक रहा है, लेकिन आलोचना के प्रति समाज और सरकार के जनप्रतिनिधियों का रवैया नकारात्मकता से भरा है। नब्बे के दशक में बेशक मीडिया के संदर्भ अति प्रादेशिक हो गए और एक साथ कई समाचार पत्रों का प्रकाशन यहां से शुरू हुआ, लेकिन हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में शब्द भी राजनीतिक अर्थों के अलावा जमीन नहीं खोज पाए।

यह दीगर है कि सोशल मीडिया के आगमन ने कुछ प्रबुद्ध लोगों के निजी विचारों की पलकें खोली हैं और सामाजिक समरूपता के फलक पर सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों पर कुछ हटकर या आलोचनात्मक टिप्पणियां सामने आ रही हैं, लेकिन यहां आपसी द्वंद्व के खतरे हैं और यह भी कि पूरी सोच ही सत्ता के विरोध में खड़ी न हो जाए या इनके पीछे राजनीति कतारबद्ध न हो जाए। इससे क्षेत्रवाद व स्थानीयवाद के खतरे भी पनप सकते हैं। सोशल मीडिया के आगोश में थिंक टैंक की परिपक्वता इसलिए भी असंभव है, क्योंकि यह त्वरित मसलों पर 'एक राय' से अधिक कुछ नहीं। किसी शहर की पार्किंग समस्या या बाजार को माल रोड की तरह वाहन वर्जित करना एक अच्छा मुद्दा हो सकता है, लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए नीतियों पर प्रादेशिक नेतृत्व की कमी है। किसी समय सामाजिक सोच का कटोरा केवल यह चाहता था कि गांव, कस्बे या शहर में सरकारी स्कूल-कालेजों के अलावा दफ्तर खुल जाएं या अब नगर निगम बनाने की होड़ में राजनीतिक मनोविज्ञान शिरकत कर रहा है। हिमाचल में शहरीकरण या ग्राम एवं नगर योजना के तहत क्या होना चाहिए, ऐसे विषयों पर विवेचन के लिए कोई थिंक टैंक नहीं। नागरिक सुविधाओं की लड़ाई जब तक राजनीतिक विषय बना रहेगा, प्रदेश बिना किसी मॉडल चलता रहेगा। मंडी के स्कूल को बचाना शहर की धरोहर से जुड़ा विषय है या विकास के नए कदमों को आगे बढ़ने के लिए ढांचा बदलना पड़ेगा, ये सवाल थिंक टैंक ही हल कर सकता है।

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