सम्पादकीय

उन्होंने बंटवारा करा लिया, लेकिन...

Rani Sahu
23 Aug 2022 2:34 PM GMT
उन्होंने बंटवारा करा लिया, लेकिन...
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विस्थापन इतिहास या भूगोल के किसी भी खंड में भयंकरतम त्रासदी है
विभूति नारायण राय,
विस्थापन इतिहास या भूगोल के किसी भी खंड में भयंकरतम त्रासदी है। यह एक व्यक्ति का हो या किसी बड़े समूह का, शरीर और आत्मा, दोनों पर ऐसे घाव छोड़ता है, जिन्हें पीढ़ियां भुगतती हैं। ऐसा ही एक अनुभव भारतीय उप-महाद्वीप ने भोगा था 1947 में, जब दो कौमी नजरिये पर दो देश बने और लाखों परिवार अपनी जमीनों से उखड़कर दूसरी तरफ गए।
विभाजन के शिल्पी मोहम्मद अली जिन्ना ने देश का बंटवारा करा तो लिया, पर शुरू में न तो उन्हें और न ही आबादी के शांतिपूर्ण स्थानांतरण की व्यवस्था के लिए जिम्मेदार गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन को एहसास था कि इस प्रक्रिया के दौरान कितना रक्तपात होगा। माउंटबेटन ने यह सोचकर कि उपद्रवियों को तैयारी का कम मौका देने से आसन्न हिंसा रोकी जा सकती है, नया राष्ट्र बनाने की तारीख खिसकाकर 1948 की जगह मध्य 1947 कर दी, पर यह दांव उल्टा पड़ गया।
पाकिस्तान में वर्षों तक मोहाजिरों या विस्थापितों के सबसे बड़े नेता अल्ताफ हुसैन ने एक पाकिस्तानी पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि विभाजन भारतीय उप-महाद्वीप के मुसलमानों के साथ सबसे बड़ा छल था। पहले वे दो, फिर तीन टुकड़ों में बंट गए। पाकिस्तान आंदोलन में सबसे सक्रिय भूमिका निभाने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की त्रासद कामदी की एक झलक राही मासूम रजा के प्रसिद्ध उपन्यास आधा गांव में गंगौली गांव के निवासियों की मासूम प्रतिक्रिया में मिलती है। दिन-रात लड़के लेंगे पाकिस्तान नारा लगाने वाले मुसलमान 15 अगस्त, 1947 को छले गए महसूस करते हैं, जब उनको पता चलता है कि गंगौली तो पाकिस्तान में गया ही नहीं। इस तरह के उदाहरण मौलाना हसरत मोहानी और दानियल लतीफी जैसे बुद्धिजीवी हैं, जो पाकिस्तान बनाने के लिए लड़ते रहे, पर जब पाकिस्तान बन गया, तो वहां गए नहीं। यह तय करना बहुत मुश्किल है कि कोई क्यों पाकिस्तान गया और क्यों नहीं गया? प्रधानमंत्री नेहरू और मौलाना आजाद के रोकने के बाद क्यों जोश मलीहाबादी पाकिस्तान चले गए और क्यों वहां जाकर भी कुर्रतुल ऐन हैदर वापस लौट आईं?
कई बार यह तर्क दिया जाता है कि भारत में रह गए मुसलमान अपनी मर्जी से भारतीय हैं, इसलिए मौका मिलने पर भी यहां से नहीं गए। क्या पश्चिमी पंजाब से आने वाले सिख और हिंदू अपनी धरती से प्यार नहीं करते थे? जैसे ही उन्हें पहला मौका मिला, वे अपना घर-द्वार छोड़कर भारत चले आए। ऐसी बेशुमार कहानियां हैं, जिनमें कोई बूढ़ा सिख अपने घर के एक-एक कमरे में जाता है, नम आंखों से सब कुछ निहारता है, और फिर बाहरी दरवाजे पर ताला लगाता है। चाभी पड़ोसी मुसलमान को सौंपकर कहता है कि घर की देखभाल करते रहना, वह जल्दी ही लौट आएगा। मगर यह लौटना कभी नहीं हो सका।
मैं एक ऐसी ही मार्मिक कथा का साक्षी बना, जिसमें कोई लौटा जरूर, पर थोड़ी सी देर के लिए ही और फिर भीगी आंखों से सब कुछ छोड़कर वापस चला आया। साल था 1999, जब एक सरकारी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में मैं लाहौर में था। 15 सदस्यों के इस दल में एक रिटायर ब्रिगेडियर बी के खन्ना भी थे, जिनका उस दल में चयन उनकी बड़ी कोशिशों के बाद हो पाया था। कारण मुझे तो पता था, पर शेष सदस्यों को वहां जाकर ही पता चला। 1947 के एक खूनी दिन, जब शहर में मार-काट मची थी, दो साल के बच्चे को लेकर उनकी मां अपने पिता वैद्य दौलत राम खन्ना की पांच मंजिला हवेली को छोड़कर भागी थी। उनकी गोद में छिपे बच्चे ने टुकुर-टुकुर अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को सूनी आंखों से अपने छूटते घर को निहारते देखा। आधी शताब्दी बाद यह बच्चा एक अधेड़ के रूप में अपने बिछड़े घर को देखने आया था।
ब्रिगेडियर बी के खन्ना को भारतीय सेना का सदस्य होने के कारण पहले कभी वीजा नहीं मिला और अब वह प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में लाहौर में थे। उनकी उम्रदराज मां की इच्छा थी कि उनके मरने से पहले बेटा पैतृक घर की कोई निशानी उन्हें दिखाने के लिए ले आए। उस दिन पुराने लाहौर के मछिहट्टा मोहल्ले की गलियों के बाहर एक खुली जगह पर पुलिस और फौज की कुछ गाड़ियां रुकीं। अभी दिन शुरू ही हुआ था, चाय की दुकानों पर भट्ठियां सुलगाने में लगे थे दुकानदार, कुछ शटर गिरे थे, कुछ खुले थे कि हमारी गाड़ियां वहां पहुंचीं। हमारे नीचे उतरते ही भगदड़ सी मच गई। हमारे साथ गए पुलिस वालों ने दौड़कर दुकानदारों को समझाया कि हम अतिक्रमण हटाने नहीं आए हैं।
ब्रिगेडियर खन्ना ने अपनी जेब से एक तुड़ा-मुड़ा कागज निकाला, जिस पर उनके बड़े भाई ने घर पहुंचने के रास्तों का नक्शा बना रखा था। उसके अनुसार हम आगे बढे़। गलियां, चौक, चौराहे सब वैसे ही थे, जैसे उस नक्शे में दर्ज थे, लेकिन एक महत्वपूर्ण निशानी शिव मंदिर गायब था। एक बुजुर्ग ने यह गुत्थी भी सुलझा दी। वह हमें उस इमारत तक ले गया, जो पहले मंदिर रहा होगा। पूजा करने वाला कोई नहीं बचा था, सो मूर्ति तो गायब हो गई थी और मंदिर के बरामदों और खुली जगहों पर चाय या पान की दुकानें खुली हुई थीं। एक बार मंदिर के बरामदे में खड़े होने के बाद ब्रिगेडियर खन्ना को फिर कागज देखने की जरूरत ही नहीं पड़ी। यह दो साल के बच्चे के मस्तिष्क में दर्ज स्मृतियों का फ्लैश बैक था या मां और दूसरे बड़ों द्वारा बार-बार सुनाए गए संस्मरणों का असर कि वह झपटते हुए सामने की गली में घुसे और फिर एक बड़े से आहाते के सामने खड़े हो गए। उसके चारों ओर कई मंजिलों वाले मकान मौजूद थे, पर उनमें एक भी पांच मंजिला नहीं था। वैद्य दौलत राम खन्ना का मकान तो पांच मंजिला था। गुत्थी तब सुलझी, जब एक चार मंजिला मकान का गृहस्वामी आकर उनका हाथ पकड़कर ले गया और बरामदे में लगे एक पत्थर पर जमी मिट्टी की परत को हटाने का इशारा किया। थोड़ा खुरचने के बाद ही नागरी में नाम चमकने लगा- दौलत राम खन्ना वैद्य।
मकान की एक मंजिल कुछ साल पहले भूकंप में गिर गई थी। इसके बाद भावुक स्मृतियों का वही उफान आया, जो ऐसे मौकों पर आ सकता था। बड़ी मुश्किल से घर के मौजूदा सदस्यों से हम विदा ले पाए। कई बार सोचता हूं कि 75 वर्षों के बाद दोनों मुल्क यह क्यों नहीं कर सकते कि ब्रिगेडियर खन्ना जैसे लोगों को अपनी स्मृतियों में बसे स्थल आसानी से देखने का मौका मिल सके।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Hindustan Opinion Column
Rani Sahu

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