- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- अजमेर के ये 'उन्मादी...
आदित्य नारायण चोपड़ा; भारत में जिस प्रकार से धार्मिक उन्माद बढ़ रहा है उस पर तुरन्त नियन्त्रण किये जाने की जरूरत है क्योंकि इसमें यदि और इजाफा होता है तो उसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं जिनसे राष्ट्रीय एकता को ही गंभीर खतरा पैदा हो सकता है। इसके साथ ही हमें यह भी विचार करना होगा कि 'धर्मांधता' को समाप्त करके हम किस प्रकार सभी धर्मों के लोगों के भीतर वैज्ञानिक सोच को पैदा करें। इस सन्दर्भ में हमें सबसे पहले धार्मिक कट्टरता पैदा करने वाले संस्थानों पर संविधान के प्रावधानों के तहत लगाम कसनी होगी। यह लगाम निरपेक्ष रूप से कसी जानी चाहिए जिससे प्रत्येक धर्म के अनुयायी नागरिक की पहली पहचान 'भारतीय' ही हो सके। इस मामले में किसी भी मजहब को कोई रियायत नहीं दी जा सकती। आजादी के बाद हमने जिस धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारा उसका मतलब किसी भी मजहब के लोगों का तुष्टीकरण नहीं था बल्कि प्रत्येक धर्म को एक समान दृष्टि से देखना था। चूंकि यह देश हिन्दू बहुल है अतः स्वयं को हिन्दू कहने वाले नागरिकों को ही सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि उनके धर्म में कट्टरता का प्रवेश किसी सूरत से न हो सके और उनकी सनातन संस्कृति 'सर्वे सन्तु निरामयः' का पालन करते हुए 'प्राणियों मे सद्भावना हो' का निरन्तर उवाच करती रहे। परन्तु दूसरी तरफ देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय माने जाने वाले मुसलमान नागरिकों को भी यह विचार करना होगा कि वे उस हिन्दोस्तान के नागरिक हैं जिसकी संस्कृति में ही आपसी प्रेम और भाईचारा इस तरह घुला हुआ है कि सातवीं सदी में इस्लाम धर्म के अरब में उद्भव के साथ मदीना में बनी पहली मस्जिद के बाद दूसरी मस्जिद भारत के ही केरल राज्य के कोच्चि नगर के पास तामीर हुई। अतः 'सर्वधर्म समभाव' भारत की रगों में बहता है। परन्तु यह भी इसी देश का दुर्भाग्य है कि पिछली सदी में इसमें 'मुस्लिम लीग' जैसी तास्सुबी सियासी तंजीम का जन्म हुआ और इसका नेता मुहम्मद अली जिन्ना बना जिसने भारत के ही मुसलमानों के लिए अलग मुल्क पाकिस्तान का निर्माण लाखों लोगों की लाशों पर कराया। निश्चित रूप से एेसा केवल मुसलमानों को धर्मोन्मादी या कट्टर बना कर किया गया। अतः आज सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि जो तंजीमें या उलेमा या वाइज अथवा धर्मोपदेशक मुसलमानों मंे कट्टरता भरना चाहते हैं उन्हें संविधान के दायरे में लाकर सुधारा जाये। जिस तरह भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब के बारे में व्यक्त विचारों से मतभेद रखते हुए भाजपा ने उनके खिलाफ कार्रवाई की है और कानून ने अपना काम शुरू किया है उसे देखते हुए मुस्लिम समुदाय को भी भारत के संविधान और कानून पर भरोसा करना चाहिए था और कट्टरता दिखाने वाले नारों व जुमलों से बचना चाहिए था। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार इसी हद तक है कि हिंसा के किसी भी विचार का प्रतिपादन न किया जाये। अतः नूपुर शर्मा के विरोध में निकाले गये मुस्लिम समुदाय के जुलूसों में 'सर तन से जुदा' के नारे लगाना पूरी तरह संविधान का उल्लंघन था और आम मुसलमान को हिंसा के लिए प्रेरित करने वाला था। इसका प्रतिकार उसी समय यदि मुस्लिम उलेमाओं व दारुल उलूम जैसी संस्थाओं द्वारा किया जाता तो न उदयपुर में कन्हैयालाल का कत्ल होता और न ही अमरावती में उमेश कोल्हे को मौत के घाट उतारा जाता। सवाल सिर्फ संविधान का पालन करने का था। मगर इसके विपरीत यदि अजमेर शरीफ की दरगाह का खादिम सलमान चिश्ती वीडियो जारी करके यह कहता है कि जो कोई भी नूपुर शर्मा का सिर लायेगा उसे इनाम में वह अपना घर दे देगा, बताता है कि किस तरह ख्वाजा की दरगाह का खादिम भी तास्सुबी खयालों से लबरेज इंसान है। ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू जाते हैं और चादर चढ़ाते हैं। इस स्थान को भारत की मिली- जुली संस्कृति का प्रतीक माना जाता है । मगर यदि इसके एक खादिम के ही ऐसे विचार हैं तो हिन्दुओं को विपरीत सोचने पर विवश होना पड़ सकता है। मगर इससे भी ऊपर ख्वाजा चिश्ती की दरगाह की इन्तजामिया अंजुमन कमेटी के सचिव सरवर चिश्ती भी यह फरमाने लगें कि यदि नूपुर शर्मा को गिरफ्तार नहीं किया गया तो भारत के मुसलमान इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे, और भी ज्यादा गंभीरता से लिया जाने वाला बयान है जो उन्होंने विगत 26 जून को एक वीडियो बना कर जारी किया। यदि गौर से देखा जाये तो यह सब तालिबानी मानसिकता का ही एक स्वरूप है। यह मानसिकता मानवीयता को रौंधते हुए केवल मजहब की वरीयता गालिब करने की हिमायत करती है। भारत में यह कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि यहां कि संस्कृति ही मानवीयता को सर्वोच्च पायदान पर रखने वाली संस्कृति है। क्या इसका प्रमाण स्वयं ख्वाजा की दरगाह नहीं है जहां हिन्दू यह जानते हुए भी एक मुस्लिम फकीर की मजार पर चादर चढ़ाने सिर्फ इसलिए जाते हैं कि उसने कभी मानव कल्याण का मार्ग अपनाया था। किसी भी धर्म के आराध्य के विरुद्ध गलत टिप्पणी करना भी भारत की संस्कृति नहीं रही है। इस देश ने तो अनीश्वरवादी धर्मों के प्रवर्तकों को भी भगवान की संज्ञा दी है।भारत में जिस प्रकार से धार्मिक उन्माद बढ़ रहा है उस पर तुरन्त नियन्त्रण किये जाने की जरूरत है क्योंकि इसमें यदि और इजाफा होता है तो उसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं जिनसे राष्ट्रीय एकता को ही गंभीर खतरा पैदा हो सकता है। इसके साथ ही हमें यह भी विचार करना होगा कि 'धर्मांधता' को समाप्त करके हम किस प्रकार सभी धर्मों के लोगों के भीतर वैज्ञानिक सोच को पैदा करें। इस सन्दर्भ में हमें सबसे पहले धार्मिक कट्टरता पैदा करने वाले संस्थानों पर संविधान के प्रावधानों के तहत लगाम कसनी होगी। यह लगाम निरपेक्ष रूप से कसी जानी चाहिए जिससे प्रत्येक धर्म के अनुयायी नागरिक की पहली पहचान 'भारतीय' ही हो सके। इस मामले में किसी भी मजहब को कोई रियायत नहीं दी जा सकती। आजादी के बाद हमने जिस धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारा उसका मतलब किसी भी मजहब के लोगों का तुष्टीकरण नहीं था बल्कि प्रत्येक धर्म को एक समान दृष्टि से देखना था। चूंकि यह देश हिन्दू बहुल है अतः स्वयं को हिन्दू कहने वाले नागरिकों को ही सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि उनके धर्म में कट्टरता का प्रवेश किसी सूरत से न हो सके और उनकी सनातन संस्कृति 'सर्वे सन्तु निरामयः' का पालन करते हुए 'प्राणियों मे सद्भावना हो' का निरन्तर उवाच करती रहे। परन्तु दूसरी तरफ देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय माने जाने वाले मुसलमान नागरिकों को भी यह विचार करना होगा कि वे उस हिन्दोस्तान के नागरिक हैं जिसकी संस्कृति में ही आपसी प्रेम और भाईचारा इस तरह घुला हुआ है कि सातवीं सदी में इस्लाम धर्म के अरब में उद्भव के साथ मदीना में बनी पहली मस्जिद के बाद दूसरी मस्जिद भारत के ही केरल राज्य के कोच्चि नगर के पास तामीर हुई। अतः 'सर्वधर्म समभाव' भारत की रगों में बहता है। परन्तु यह भी इसी देश का दुर्भाग्य है कि पिछली सदी में इसमें 'मुस्लिम लीग' जैसी तास्सुबी सियासी तंजीम का जन्म हुआ और इसका नेता मुहम्मद अली जिन्ना बना जिसने भारत के ही मुसलमानों के लिए अलग मुल्क पाकिस्तान का निर्माण लाखों लोगों की लाशों पर कराया। निश्चित रूप से एेसा केवल मुसलमानों को धर्मोन्मादी या कट्टर बना कर किया गया। अतः आज सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि जो तंजीमें या उलेमा या वाइज अथवा धर्मोपदेशक मुसलमानों मंे कट्टरता भरना चाहते हैं उन्हें संविधान के दायरे में लाकर सुधारा जाये। जिस तरह भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब के बारे में व्यक्त विचारों से मतभेद रखते हुए भाजपा ने उनके खिलाफ कार्रवाई की है और कानून ने अपना काम शुरू किया है उसे देखते हुए मुस्लिम समुदाय को भी भारत के संविधान और कानून पर भरोसा करना चाहिए था और कट्टरता दिखाने वाले नारों व जुमलों से बचना चाहिए था। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार इसी हद तक है कि हिंसा के किसी भी विचार का प्रतिपादन न किया जाये। अतः नूपुर शर्मा के विरोध में निकाले गये मुस्लिम समुदाय के जुलूसों में 'सर तन से जुदा' के नारे लगाना पूरी तरह संविधान का उल्लंघन था और आम मुसलमान को हिंसा के लिए प्रेरित करने वाला था। इसका प्रतिकार उसी समय यदि मुस्लिम उलेमाओं व दारुल उलूम जैसी संस्थाओं द्वारा किया जाता तो न उदयपुर में कन्हैयालाल का कत्ल होता और न ही अमरावती में उमेश कोल्हे को मौत के घाट उतारा जाता। सवाल सिर्फ संविधान का पालन करने का था। मगर इसके विपरीत यदि अजमेर शरीफ की दरगाह का खादिम सलमान चिश्ती वीडियो जारी करके यह कहता है कि जो कोई भी नूपुर शर्मा का सिर लायेगा उसे इनाम में वह अपना घर दे देगा, बताता है कि किस तरह ख्वाजा की दरगाह का खादिम भी तास्सुबी खयालों से लबरेज इंसान है। ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू जाते हैं और चादर चढ़ाते हैं। इस स्थान को भारत की मिली- जुली संस्कृति का प्रतीक माना जाता है । मगर यदि इसके एक खादिम के ही ऐसे विचार हैं तो हिन्दुओं को विपरीत सोचने पर विवश होना पड़ सकता है। मगर इससे भी ऊपर ख्वाजा चिश्ती की दरगाह की इन्तजामिया अंजुमन कमेटी के सचिव सरवर चिश्ती भी यह फरमाने लगें कि यदि नूपुर शर्मा को गिरफ्तार नहीं किया गया तो भारत के मुसलमान इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे, और भी ज्यादा गंभीरता से लिया जाने वाला बयान है जो उन्होंने विगत 26 जून को एक वीडियो बना कर जारी किया। यदि गौर से देखा जाये तो यह सब तालिबानी मानसिकता का ही एक स्वरूप है। यह मानसिकता मानवीयता को रौंधते हुए केवल मजहब की वरीयता गालिब करने की हिमायत करती है। भारत में यह कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि यहां कि संस्कृति ही मानवीयता को सर्वोच्च पायदान पर रखने वाली संस्कृति है। क्या इसका प्रमाण स्वयं ख्वाजा की दरगाह नहीं है जहां हिन्दू यह जानते हुए भी एक मुस्लिम फकीर की मजार पर चादर चढ़ाने सिर्फ इसलिए जाते हैं कि उसने कभी मानव कल्याण का मार्ग अपनाया था। किसी भी धर्म के आराध्य के विरुद्ध गलत टिप्पणी करना भी भारत की संस्कृति नहीं रही है। इस देश ने तो अनीश्वरवादी धर्मों के प्रवर्तकों को भी भगवान की संज्ञा दी है।