सम्पादकीय

यह आरक्षण के नए तरीके के साइड इफेक्‍ट्स हैं

Gulabi
29 Jan 2022 10:20 AM GMT
यह आरक्षण के नए तरीके के साइड इफेक्‍ट्स हैं
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रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा को लेकर बिहार और उत्‍तरप्रदेश में जिस तरह का माहौल बन रहा है
रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा को लेकर बिहार और उत्‍तरप्रदेश में जिस तरह का माहौल बन रहा है वह चिंताजनक है. इस चिंता का एक सिरा परीक्षा को लेकर रेलवे भर्ती बोर्ड की गफलत से जुड़ा है तो दूसरा सिरा उस हिंसा से जो इस भर्ती के लिए परीक्षा देने वालों ने की है. दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें और तर्क हैं, लेकिन जो हो रहा है उससे न तो रेलवे का भला होने वाला है और न ही बेरोजगारों का.
पर बात यहां इन दोनों ही सिरों से अलग एक तीसरे सिरे की है, जिस पर शायद किसी का ध्‍यान नहीं जा रहा. वह तीसरा सिरा है बेरोजगारी का बढ़ता जाल और रोजगार को लेकर युवाओं में हो रही गलाकाट स्‍पर्धा. अखबारों में रेलवे भर्ती बोर्ड की घटना को लेकर हिंसा करने वालों को छात्र कहा जा रहा है जो मेरे हिसाब से ठीक नहीं है. क्‍योंकि जिन लोगों ने भी वह परीक्षा दी, वह किसी कक्षा को उत्‍तीर्ण कर अगली कक्षा में जाने के लिए नहीं थी, बल्कि नौकरी पाने के लिए थी और इस लिहाज से वे नौकरी के उम्‍मीदवार या बेरोजगार हैं.
कई सालों से यह हो रहा है कि सरकारी नौकरियां कम से कम होती जा रही हैं. निजी क्षेत्र की अपनी स्‍पर्धा है और सरकारी नौकरियां कम होते जाने के कारण वहां नौकरियों के जरिये रोजगार पाने के अवसर भी और घटते जा रहे हैं. ऐसे में जब भी कहीं किसी सरकारी नौकरी के लिए जगह निकलती है, एक-एक पद के लिए हजारों लाखों उम्‍मीदवार टूट पड़ते हैं. और इसी प्रक्रिया में वह बारीक दरार भी छिपी हुई है जो हमारे सामाजिक ढांचे में एक अलग तरह की आरक्षण व्‍यवस्‍था को जनम देने के साथ एक अलग तरह के वर्गसंघर्ष को भी पैदा कर रही रही है.
दरअसल होता यह है कि छोटी से छोटी सरकारी नौकरी के लिए भी बड़ी से बड़ी डिग्री रखने वाला तक आवेदन कर देता है. यह सिर्फ रेलवे भर्ती बोर्ड का ही मामला नहीं है, इससे पहले भी देश के कई राज्‍यों से इस तरह की खबरें आई हैं, जहां चपरासी या खलासी के पदों के लिए भी इंजीनियरिंग पास और यहां तक कि पीएचडी डिग्रीधारियों ने भी आवेदन किया.
चूंकि नौकरियों में आमतौर आरक्षित पदों को छोड़कर, इस तरह की कोई बंदिश नहीं होती कि कौनसे पद के लिए कौन आवेदन कर सकता है, और कौन नहीं… और खासतौर से शैक्षिक योग्‍यता के मामले में तो ऐसा नहीं ही होता है. इसलिए जब भी भर्तियां निकलती हैं, हर कोई उसके लिए आवेदन कर देता है, बिना यह देखे या सोचे कि वह नौकरी उसकी पढ़ाई लिखाई या उसकी शैक्षिक योग्‍यता व प्रतिभा के अनुकूल है या नहीं.
बेरोजगारी की समस्‍या लगातार बढ़ते जाने के कारण युवा, बिना इस तरफ सोचे, आवेदन लगाते रहते हैं और परीक्षाएं देते रहते हैं. जाहिर है यदि अन्‍यथा कारणों से कोई पद किसी के लिए पहले से ही तय न हो, (हालांकि आमतौर पर वे पहले से तय ही होते हैं) तो अधिक शैक्षणिक योग्‍यता और प्रतिभा रखने वाला आवेदक उस पद के लिए पात्र हो जाता है. ऐसे में वह वर्ग उस नौकरी को पाने से वंचित रह जाता है, जिसके लिए यानी जिस स्‍तर की शैक्षिक योग्‍यता वाले बेरोजगारों के लिए, वे पद निकाले गए हैं.
यह एक मायने में नौकरियों में हो रहा अलग तरह का आरक्षण है, जिसमें कहने को तो कथित रूप से अधिक शैक्षिक योग्‍यता वाले या अधिक प्रतिभा वाले उम्‍मीदवारों को मौका मिल जाता है, लेकिन वास्‍तविकता में यह उन लोगों के हक का हरण ही होता है, जो कम शैक्षिक योग्‍यता रखते हुए भी कुछ सरकारी पदों पर अपने लिए अवसर मिज लाने का सपना देखते हैं.
यह बहस बहुत पुरानी है कि आखिर वे लोग नौकरी के लिए क्‍या करें और कहां जाएं जो न तो ज्‍यादा पढ़े लिखे हैं और न ही उतनी योग्‍यता और प्रतिभा रखते हैं. ऐसे में चपरासी या खलासी जैसे पद, जिनके लिए उतनी शैक्षणिक योग्‍यता या प्रतिभा की जरूरत नहीं होती, उनके लिए एक अवसर होते हैं पर अब उन्‍हें वहां भी मौका नहीं मिल पा रहा.
सरकारी नौकरी भर मिल जाए, यह एक ऐसी चाह है जो युवाओं को कुछ भी करने को तैयार कर देती है. ऐसे में होता यह है कि पांचवीं या आठवीं पास के लिए भी जो जगह निकली है उसमें एमए, इंजीनियर या पीएचडी धारक तक आवेदन कर डालते हैं. और जब परीक्षा या इंटरव्‍यू आदि होता है तो जाहिर है वे आठवीं या पांचवीं पास की तुलना में इक्‍कीस साबित होते हैं और उस अवसर को झटक लेते हैं जो शिक्षा या योग्‍यता का कम स्‍तर रखने वालों को ध्‍यान में रखते हुए रचा गया है.
इस स्थिति का दोहरा नुकसान होता है. एक तो जैसा मैंने कहा, कम शैक्षिक योग्‍यता वाले वंचति होते हैं वहीं दूसरा नुकसान यह होता है कि अपेक्षाकृत अत्‍यधिक शैक्षिक योग्‍यता और प्रतिभा के बल पर तुलनात्‍मक रूप से बहुत छोटे स्‍तर की नौकरी पा लेने वाला व्‍यक्ति उस काम को ठीक से नहीं कर पाता या हमेशा एक अफसोस में जीता रहता है.
इसे समझने के लिए कल्‍पना करिये कि यदि किसी इंजीनियरिंग पास युवा को या पीएचडी धारक को चपरासी या खलासी का काम मिल जाए तो क्‍या वह पूरे मन से उस काम को कर पाएगा? क्‍या उसे ऑफिस की झाड़ू लगाते वक्‍त, शौचालय साफ करते वक्‍त या फिर स्‍टाफ को पानी पिलाते वक्‍त में यह ख्‍याल नहीं आएगा कि वह अपनी योग्‍यता से कितना शर्मनाक समझौता कर रहा है.
यह स्थिति दोहरे असंतोष को जन्‍म देती है. पहला असंतोष उस व्‍यक्ति में होता है जो अपने से अधिक शैक्षिक योग्‍यता वाले व्‍यक्ति के, प्रतिस्‍पर्धा में आ जाने के कारण अवसर गंवा बैठता है और दूसरा असंतोष उस व्‍यक्ति के मन में होता है जो अधिक योग्‍यता रखते हुए भी निचले स्‍तर का काम कर रहा होता है. उसके बेमन से काम करने या न करने के कारण, पद भरा होने के बावजूद, एक तो काम ठीक से नहीं हो पाता, दूसरे सरकारी खजाने या जनधन का भी एक तरह से अपव्‍यय ही होता है क्‍योंकि उसे दिए जाने वाले वेतन की तुलना में काम उतना नहीं हो रहा होता है.
वैसे तो सरकारी नौकरियों में यह परिदृश्‍य कई सालों से चला आ रहा है लेकिन रेलवे भर्ती बोर्ड के ताजा मामले ने इसकी गंभीरता को एक बार फिर उजागर किया है. रेलवे ने अपनी भरतियों को लेकर आई समस्‍या के निराकरण के लिए तो एक उच्‍चस्‍तरीय समिति बना ली है, लेकिन यह सिर्फ रेलवे की ही समस्‍या नहीं है, यह समस्‍या सारे मंत्रालयों और सरकारी विभागों की है, इस पर पूरे देश के संदर्भ में समग्रता से विचार करने और इसका समुचित समाधान निकाले जाने की आवश्‍यकता है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

गिरीश उपाध्याय पत्रकार, लेखक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. नई दुनिया के संपादक रह चुके हैं.
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