- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- इस देश में अच्छे लोग...
x
आपको विदित होगा कि वह (भारत की जनसंख्या) रूस रहित समस्त यूरोप की जनसंख्या से अधिक है
राजेंद्र प्रसाद,
आपको विदित होगा कि वह (भारत की जनसंख्या) रूस रहित समस्त यूरोप की जनसंख्या से अधिक है। यह जनसंख्या 31 करोड़, 90 लाख है और रूस रहित यूरोप की जनसंख्या 31 करोड़, 70 लाख है। एक एकात्मक सरकार के अधीन आना तो दूर रहा, यूरोप के देश कभी संगठित तक नहीं हो पाए हैं या एक संयुक्त मंडल तक नहीं बना पाए हैं। यहां जनसंख्या और देश के इतने बड़े आकार के होते हुए भी हम एक ऐसा संविधान बनाने में सफल हुए हैं, जिसके अंतर्गत सारा देश और सारी जनसंख्या आ जाती है। आकार के अतिरिक्त और भी कठिनाइयां थीं। ...हमारे यहां देश में कई संप्रदाय रहते हैं। हमारे यहां देश के भिन्न-भिन्न भागों में कई भाषाएं प्रचलित हैं। हमारे यहां और भी अन्य प्रकार की भिन्नताएं हैं, जो भिन्न-भिन्न भागों में मनुष्यों को परस्पर विभाजित करती हैं।...
सबसे पहला और अति स्पष्ट तथ्य जो किसी भी पर्यवेक्षक का ध्यान आकर्षित करेगा, वह यह है कि हम एक गणराज्य बना रहे हैं। भारत में प्राचीन काल में गणराज्य थे, पर यह व्यवस्था 2000 वर्ष पूर्व थी, इससे भी अधिक समय पूर्व थी, और वे गणराज्य बहुत छोटे-छोटे थे। जिस गणराज्य की हम अब स्थापना कर रहे हैं, उसके जैसा गणराज्य हमारे यहां कभी नहीं था, यद्यपि उन दिनों में भी और मुगलकाल मेें ऐसे साम्राज्य थे, जो देश के विशाल भागों पर छाए हुए थे। इस गणराज्य का एक निर्वाचित राष्ट्रपति होगा। हमारे यहां ऐसे बड़े राज्य का निर्वाचित मुखिया कभी नहीं हुआ, जिसके अंतर्गत भारत का इतना बड़ा क्षेत्र आ जाता है और यह प्रथम बार ही हुआ है कि देश के तुच्छ से तुच्छ और निम्न से निम्न नागरिक को भी यह अधिकार मिल गया है कि वह इस महान राज्य के राष्ट्रपति या मुखिया के योग्य हो और बने, जो आज संसार के विशालतम राज्यों में गिना जाता है। यह कोई छोटा विषय नहीं है।...
मैं एक ग्रामीण व्यक्ति हूं और यद्यपि अपने कार्य के कारण मुझे बहुत अधिक समय तक नगरों में रहना पड़ा है, परंतु मेरी जड़ अब भी यहीं है। अत: मैं उन ग्रामीण व्यक्तियों से परिचित हूं, जो इस महान निर्वाचक मंडल का एक बड़ा भाग होंगे। ...वे साक्षर नहीं हैं और पढ़ने-लिखने का मंत्रवत कौशल उनमें नहीं है, पर इस बात में मुझे रंचमात्र भी संदेह नहीं है कि यदि उनको वस्तुस्थिति समझा दी जाए, तो वे अपने हित तथा देश के हित के लिए उपक्रम कर सकते हैं।...
देश का कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा, जो देश पर प्रशासन करेंगे। यह एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है, वैसी ही सरकार उसे प्राप्त होती है। ...जिन व्यक्तियों का चुनाव किया जाता है, यदि वे योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हैं, तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम संविधान बना सकेंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा, तो यह संविधान देश की सहायता नहीं कर सकेगा। आखिर संविधान एक यंत्र के समान निष्प्राण वस्तु ही तो है। उसके प्राण तो वे लोग हैं, जो उस पर नियंत्रण रखते हैं और उसका प्रवर्तन करते हैं और हमारे देश को आज ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है, जो अपने सामने देश के हित को रखें।
हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न तत्वों के कारण भेदमूलक प्रवृत्तियां पैदा हो जाती हैं। हममें सांप्रदायिक भेद हैं, जातिगत भेद हैं, भाषा के आधार पर भेद हैं, प्रांतीय भेद हैं और इसी प्रकार के अन्य भेद हैं। इसके लिए ऐसे दृढ़ चरित्र व्यक्तियों की, ऐसे दूरदर्शी लोगों की और ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो छोटे-छोटे समूहों और क्षेत्रों के लिए पूरे देश के हितों का परित्याग न करें और जो इन भेदों से पैदा हुए पक्षपात से परे हों। हम केवल यह आशा ही कर सकते हैं कि इस देश में ऐसे लोग बहुत मिलेंगे।...
इस बात में मुझे संदेह नहीं है कि जब देश को चरित्रवान व्यक्तियों की आवश्यकता होगी, तब ऐसे व्यक्ति मिलेंगे और जनता ऐसे व्यक्तियों को पैदा करेगी। जो लोग पहले से सेवा करते चले आ रहे हैं, वे यह कहकर अपनी पतवार न डाल दें कि वे अपना सेवा कार्य समाप्त कर चुके हैं...। मैं समझता हूं कि भारतवर्ष में आज जो कार्य हमारे सन्मुख है, वह उस कार्य से भी अधिक कठिन है, जो उस समय हमारे सन्मुख था, जब हम संघर्ष में लगे हुए थे। उस समय हमारे सामने ऐसी कोई विरोधी मांगें नहीं थीं, जिनमें परस्पर मेल बिठाना हो, दाल-रोटी का प्रश्न नहीं था और शक्तियों को बांटने की बात नहीं थी। इस समय हमारे सामने ये सब बातें हैं और बड़े-बड़े प्रलोभन भी हैं। ईश्वर करे, इन प्रलोभनों से ऊपर उठने और उस देश की सेवा करने की, जिसको हमने आजाद किया है, बुद्धि और शक्ति हममें हो।
...अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जिन साधनों को अपनाना होता है, उनकी पवित्रता पर महात्मा गांधी ने जोर दिया था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह शिक्षा चिरस्थायी है और यह केवल संघर्ष काल के लिए नहीं थी, वरन आज भी इसका उतना ही प्राधिकार तथा मूल्य है, जितना पहले था। यदि कोई काम गलत हो जाता है, तो हमारी यह प्रवृत्ति है कि हम दूसरों को दोष देते हैं, परंतु अंतरपरीक्षण कर यह देखने का प्रयास नहीं करते कि हमारा दोष है या नहीं? यदि कोई व्यक्ति अपने कर्मों और उद्देश्यों का विवेचन करना चाहे, तो दूसरों के कर्मों और उद्देश्यों को सही-सही जानने की अपेक्षा अपने कर्मों और उद्देश्यों का विवेचन करना बहुत सरल है।
मैं तो यही आशा करूंगा कि वे सब लोग, जिनको भविष्य में इस संविधान को कार्यान्वित करने का सौभाग्य प्राप्त होगा, यह याद रखेंगे कि वह एक असाधारण विजय थी, जिसको हमने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा सिखाई गई अनोखी रीति से प्राप्त किया था और जो स्वाधीनता हमने प्राप्त की है, उसकी रक्षा करना, उसे बनाए रखना एवं जन-साधारण के लिए उसको उपयोगी बनाना उन पर ही निर्भर करता है। विश्वासपूर्वक सत्य तथा अहिंसा के आधार पर और सबसे अधिक यह कि हृदय में साहस धारण कर और ईश्वर में विश्वास कर हम अपने स्वाधीन गणराज्य के संचालन करने के इस नए कार्य में संलग्न हों।
Rani Sahu
Next Story