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कुलपति की नियुक्ति में हो पारदर्शिता
जगमोहन सिंह राजपूत। देश की शिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता के ह्रास पर सभी लगभग एकमत हैं। इसमें सुधार की त्वरित आवश्यकता प्रत्येक स्तर पर पहचानी जाती है। देश में शिक्षित युवा बेरोजगारी से ग्रस्त हैं। इसमें ऐसे तकनीकी शिक्षा और उपाधि प्राप्त युवा भी शामिल हैं, जिनका प्रशिक्षण स्तरीय नहीं पाया गया। शिक्षित युवाओं के साथ ऐसा खिलवाड़ कोई देश बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसके पीछे कौन है? इस संबंध में केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने मुख्यमंत्री पी. विजयन को एक पत्र लिखा है। यह पत्र हमें देश के शैक्षिक जगत में लगातार बढ़ रहे अस्वीकार्य आचरण के कारणों को समझने में मदद करता है और देश की शिक्षा व्यवस्था को आत्मचिंतन एवं सुधार का अवसर प्रदान करता है।
मुख्यमंत्री स्वयं ही यह उत्तरदायित्व ले लें
आरिफ मोहम्मद खान ने पत्र में गांधीजी के सिद्धांतों की व्यावहारिक संभावनाओं को ऐसे समय पर उजागर किया है, जब स्वयं को उनका वारिस घोषित करते रहने वाले गांधी और उनके सिद्धांतों को पूरी तरह भुला चुके हैं। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री से आग्रह किया है कि वह प्रांत के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति पद के संविधान-प्रदत्त उत्तरदायित्व को अपेक्षित ढंग से निभा नहीं पा रहे हैं। ऐसा वह मुख्यमंत्री के कारण ही नहीं कर पा रहे हैं। अत: यह उचित होगा कि मुख्यमंत्री स्वयं ही यह उत्तरदायित्व ले लें। प्रांत के सभी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति बन जाएं और उन्हें इससे मुक्त कर दें।
देश के कई प्रांतों में ऐसे विश्वविद्यालय हैं, जिनके कुलाधिपति अब वहां मुख्यमंत्री होते हैं। इसके पीछे के कारणों को समझना कठिन नहीं है। केरल के राज्यपाल ने नई व्यवस्था के लिए रास्ता भी सुझाया है। इसके लिए मुख्यमंत्री विजयन को केवल एक अध्यादेश उनके समक्ष प्रस्तुत करना होगा, जिसे वह बिना किसी हिचक या देरी के स्वीकार कर लेंगे। मेरी जानकारी में स्वतंत्र भारत में अभी तक ऐसा कोई पत्र न तो लिखा गया और न ही आगे लिखे जाने के आसार हैं। ऐसा पत्र केवल वही व्यक्ति लिख सकता है जिसने अपने जीवन में अंतर्मन से अपनाए गए सिद्धांतों पर चलकर और बहुत कुछ पीड़ा सहनकर उनसे आत्मीयता स्थापित कर ली हो।
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में सबसे कम आयु के मंत्री रहते हुए आरिफ मोहम्मद खान ने शाहबानो प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय के समर्थन में संसद में भाषण दिया था, लेकिन बाद में राजीव गांधी कट्टरपंथियों के दबाव में पलट गए। उन्होंने संविधान संशोधन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त करा दिया यानी उस महिला को और भविष्य में हर तलाकशुदा मुस्लिम महिला को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए गुजारा भत्ता पाने के अधिकार को खत्म करा दिया। यह वह बेशर्म राजनीति थी, जो संविधान की मूल आत्मा के बिल्कुल विपरीत थी। आरिफ मोहम्मद खान उस पलटाव का समर्थन करने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। यदि वह निर्णय निरस्त न किया गया होता तो निश्चित तौर पर आज देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बेहतर होती। अब राज्य के मुख्यमंत्री को लिखे उनके इस पत्र को उक्त सैद्धांतिक पृष्ठभूमि में देखा जाना आवश्यक है।
कुलपतियों की नियुक्ति को इतना महत्व देना क्यों आवश्यक है?
विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को इतना महत्व देना क्यों आवश्यक है? कुलपति भारतीय ज्ञान परंपरा में 'आचार्यो का आचार्य' होता है। उसका आचरण केवल विद्यार्थियों के लिए ही नहीं, समाज और लोक के लिए भी अनुकरणीय होना चाहिए। पूरा विश्व स्वीकार करता है कि प्रगति और विकास के लिए अब केवल आर्थिक संपदा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, क्योंकि आर्थिक संपदा का खजाना भी उन्हीं देशों का बढ़ेगा, जिनकी बौद्धिक संपदा उसका आधार बनेगी। यह साम्राज्यवाद के अंत के समय ही सभी को दिखाई देने लगा था कि 'भविष्य के साम्राज्य ज्ञान के साम्राज्य होंगे।' आज भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा में उन युवाओं का योगदान अग्रणी है जिन्होंने नासा और सिलिकान वैली में जाकर ज्ञान-श्रेष्ठता और कर्मठता के झंडे गाड़े। वे भारत के विश्वविद्यालयों से पढ़कर गए थे। युवा प्रतिभा विकास उसी विश्वविद्यालय में संभव है, जिसे उच्चतम स्तर का शैक्षिक और नैतिक नेतृत्व मिल रहा हो। जहां नैतिकता, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आचरण में उत्तरदायित्व और कर्तव्य-बोध हर तरफ दृष्टिगोचर हो रहा हो।
इस पृष्ठभूमि में देखने पर यह स्वयं ही उजागर हो जाता है कि कुलपति की नियुक्ति न केवल विश्वविद्यालयों के लिए, वरन राष्ट्र और उसके भविष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। अत: इस पद पर नियुक्ति में पारदर्शिता और नियमानुसार प्रक्रिया का पालन राज्यपाल का न केवल संवैधानिक, बल्कि नैतिक दायित्व भी है। केरल में इस प्रक्रिया में व्यवधान डालने का लगातार प्रयास किया गया है, जिसका वर्णन राज्यपाल ने अपने पत्र में किया है। सारी प्रक्रियाओं और प्रविधानों को धता बताते हुए मुख्यमंत्री ने संस्कृत विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति के लिए केवल एक नाम राज्यपाल के समक्ष औपचारिक स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया। केरल के एर्नाकुलम जिले में स्थित कालडी में जन्मे ज्ञान और आध्यात्मिकता के असीम सागर आदि शंकराचार्य ने भारत को एकता के सूत्र में बांधने का जो कालजयी कार्य किया, उसके समकक्ष विश्वपटल पर कोई अन्य उदाहरण ढूंढना असंभव है। अपने विश्वविद्यालयों को राजनीति से पददलित कर क्या केरल ज्ञानार्जन की अपनी सम्माननीय परंपरा और प्रतिष्ठा को बचा पाएगा? केरल को ही नहीं, बल्कि सभी प्रांतों और पूरे देश को राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान द्वारा उठाए कदम के महत्व को समझना होगा। यह भले ही एक राज्य का मामला हो, लेकिन ऐस मामले अन्यत्र भी सामने आते रहते हैं।
(लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)
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