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देश में स्कूली शिक्षा का ढांचा सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर एक विभेदकारी समाज का निर्माण कर रहा है
डा. अजय खेमरिया। एक देश-एक राशन कार्ड, एक देश-एक ग्रिड, एक देश-एक परीक्षा संभव है तो एक देश-एक पाठ्यक्रम क्यों नहीं हो सकता है? सबको शिक्षा की संवैधानिक गारंटी देने वाले देश में स्कूल, बोर्ड, परीक्षा और पाठ्यक्रम के स्तर पर भेदभाव क्यों है? क्यों देश के पांच प्रतिशत बच्चे तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ केंद्रीय शिक्षा बोर्ड से शिक्षा हासिल करते हैं और 95 प्रतिशत अलग-अलग राज्यों के बोर्ड पर निर्भर हैं? नई शिक्षा नीति बुनियादी रूप से सभी स्कूलों में शिक्षा, पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली में एकरूपता की वकालत करती है। संयोग से हाल में शिक्षा एवं बाल मामलों से जुड़ी एक संयुक्त संसदीय समिति ने केंद्र सरकार का ध्यान विविध शिक्षा बोर्ड एवं परीक्षा प्रणालियों से निर्मित होने वाली व्यावहारिक परेशानियों की ओर आकृष्ट किया है। अभी देश में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) और इंडियन सर्टिफिकेट आफ सेकेंडरी एजुकेशन (आइसीएसई) के रूप में केंद्र सरकार के शिक्षा बोर्ड कार्यरत हैं। सीबीएसई संचालित स्कूलों में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) का पाठ्यक्रम और आइसीएसई में केवल अंग्रेजी माध्यम का अलग पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। देश के महज पांच प्रतिशत स्कूली बच्चों को यह उपलब्ध होता है। राज्यों के अपने अलग माध्यमिक शिक्षा बोर्ड हैं। कुछ राज्यों में ओपन एवं संस्कृत बोर्ड भी हैं जिनमें पढ़ने वाले बच्चों के मध्य यह स्थापित धारणा है कि सीबीएसई उनके बोर्ड से श्रेष्ठ है। अभिभावकों के स्तर पर भी यही मानसिकता काम करती है।
इस तथ्य से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता है कि देश में स्कूली शिक्षा का ढांचा सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर एक विभेदकारी समाज का निर्माण कर रहा है। खुद सरकारों ने इसे अपनी नीतियों से बढ़ाया ही है। केंद्र सरकार अगर अपने कार्मिकों के लिए केंद्रीय विद्यालय संगठन के जरिये सीबीएसई नियंत्रित पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली का संचालन कर सकती है और अन्य सक्षम लोगों के लिए निजी स्कूलों के जरिये ऐसी सुविधा उपलब्ध कराती है, तब सवाल यह कि देश के शेष बच्चों को सीबीएसई या आइसीएसई जैसी प्रतिस्पर्धी शिक्षा व्यवस्था से वंचित क्यों रखा जाए? क्यों कुछ राज्यों के बच्चे अन्य राज्यों के बच्चों या सीबीएसई संबद्ध बच्चों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते हैं? जवाब राज्यों के बोर्ड का सरकारी र्ढे पर चलना है। केंद्रीय विद्यालय संगठन आज देश भर में 25 क्षेत्रीय कार्यालयों के जरिये 1,200 से अधिक स्कूलों का संचालन करता है। इनके अलावा देश में करीब 25 हजार ऐसे निजी स्कूल हैं, जो सीबीएसई से मान्यता प्राप्त हैं। 700 से अधिक नवोदय विद्यालय भी इसी तर्ज पर देश के हर जिले में पहले से ही चल रहे हैं। केंद्रीय जनजातीय मंत्रालय द्वारा जिन एकलव्य आवासीय विद्यालयों एवं कन्या आश्रमशालाओं को संचालित किया जा रहा है, वे भी केंद्रीय विद्यालय की प्रतिकृति ही हैं।
जाहिर है देश के हर कोने में आज सीबीएसई स्कूल मौजूद हैं। ऐसे में कोई कारण नहीं कि एक देश-एक पाठ्यक्रम के विचार को अमल में नहीं लाया जा सकता है। मध्य प्रदेश में चरणबद्ध तरीके से 2,000 सरकारी स्कूलों को मुख्यमंत्री राइज योजना के तहत केंद्रीय विद्यालय मोड में बदला जा रहा है। महाराष्ट्र सरकार ने हाल में अपने सभी सरकारी स्कूलों को सीबीएसई प्रणाली पर लाने की घोषणा की है। यानी राज्य सरकारें भी यह मानती हैं कि केंद्रीय बोर्ड तुलनात्मक रूप से बेहतर है। इसलिए बुनियादी सवाल यही है कि इस बेहतर व्यवस्था का हकदार देश का हर बच्चा क्यों नहीं होना चाहिए? देश के नामी शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों में भी उन बच्चों का प्रतिशत अधिक है, जो सीबीएसई पाठ्यक्रम से निकलकर आते हैं। दिल्ली के निकटवर्ती राज्यों के बच्चे भी दिल्ली के स्कूलों में पढ़ना चाहते हैं, क्योंकि वहां अभी सभी सीबीएसई स्कूल हैं। दिल्ली सरकार तो आधिकारिक रूप से कहती आई है कि जो बच्चे सीबीएसई पाठ्यक्रम पढ़ते हैं, उनका मुकाबला दूसरे राज्य बोर्ड के बच्चे नहीं कर पाते। असल में कहना तो सभी राज्य ऐसा ही चाहते हैं, लेकिन अपनी कमियों को छिपाने के लिए वे राजनीतिक कारणों से सीबीएसई को श्रेष्ठ नहीं मानते हैं। यह अलग बात है कि देश के औसतन हर नेता, अधिकारी, उद्योगपति या आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति अपने बच्चों को राज्य के बोर्ड में पढ़ाने से परहेज करते हैं। वस्तुत: राज्यों के बोर्ड पिछले 75 वर्षो में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सर्वव्यापी और समावेशी बनाने में बुरी तरह असफल रहे हैं। एक समानांतर उद्योग की तरह यह क्षेत्र फला-फूला है, जिसका खामियाजा करोड़ों लोग पीढ़ी दर पीढ़ी भोगने के लिए विवश हैं।
केंद्र सरकार को चाहिए कि व्यापक राष्ट्रीय हित में राजनीतिक आधार पर एक सर्वानुमति निर्मित करे, जिसके तहत सीबीएसई प्रणाली को समावेशी बनाकर देश के हर राज्य में लागू किया जाए। जहां तक राज्यों की स्वायत्तता और स्थानीय सरोकारों का विषय है तो उसे पाठ्यक्रम के साथ हर राज्य में अलग से डिजाइन किया जा सकता है। हर राज्य के गांवों-कस्बों तक भी सीबीएसई के स्कूल अभी चल रहे हैं। इन स्कूलों के विरुद्ध अभिभावकों की तरफ से किसी केंद्रीयकरण या स्थानीयता की अवहेलना की शिकायत नहीं आई है। बेहतर होगा कि एक समावेशी पाठ्यक्रम बनाया जाए, जो भारतबोध, स्वत्व और स्थानीयता के सभी मानबिंदुओं को समाविष्ट करता हो। एक देश-एक बोर्ड तकनीकी रूप से भले कठिन हो, लेकिन एक देश-एक पाठ्यक्रम तो बहुत ही आसान है। यह अपेक्षित कार्य आने वाली पीढ़ियों के न केवल उत्कर्ष में सहायक होगा, बल्कि सामाजिक न्याय के नजरिये से भी सशक्त और श्रेष्ठ भारत की आधारशिला का काम कर सकता है।
(लेखक लोकनीति विशेषज्ञ हैं)
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