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पटाखों के पीछे पड़ने का कोई मतलब नहीं
यह अच्छा हुआ कि उच्चतम न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद कर दिया, जिसमें दीपावली, छठ पूजा से लेकर नव वर्ष तक पटाखों पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई थी। ऐसे आदेश उत्सवों के उल्लास को तो फीका करने का काम करते ही हैं, प्रदूषण पर नियंत्रण में सहायक भी नहीं होते। यदि यह समझा जा रहा है कि साल में दो-चार दिन और खासकर दीपावली पर पटाखे चलाने से प्रदूषण गंभीर रूप ले लेता है, तो यह समस्या का सरलीकरण है। यह विचित्र है कि पटाखों के इस्तेमाल को रोकने पर तो जरूरत से ज्यादा जोर दिया जा रहा है, लेकिन प्रदूषण फैलाने वाले अन्य कारकों, जैसे पराली के दहन, वाहनों-कारखानों से होने वाले उत्सर्जन और सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल को रोकने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हैं।
आखिर यह एक तथ्य है कि पंजाब और हरियाणा में पराली जलनी शुरू हो गई है। दुर्भाग्य से यह एक माहौल बना दिया गया है कि प्रदूषण के लिए पटाखे ही सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। इसके चलते अदालतों से लेकर सरकारें तक पटाखों पर पाबंदी को लेकर मनमाने आदेश दे रही हैं। हैरानी नहीं कि इस तरह के आदेशों का विरोध होने लगा है- न केवल जनता की ओर से, बल्कि पटाखे बनाने और बेचने वालों की ओर से भी।
जैसे कलकत्ता हाई कोर्ट का आदेश सवाल खड़े करने वाला रहा, वैसे ही सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश भी, जिसके तहत उसने कहा कि देश भर में केवल ग्रीन पटाखे ही बिक सकते हैं। उत्तर भारत के उन इलाकों के लिए तो यह आदेश उचित है, जहां सर्दियों का आगमन होते ही वायु की गुणवत्ता खराब होने लगती है और प्रदूषण सिर उठा लेता है, लेकिन आखिर पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिण भारत के सुदूर एवं ग्रामीण इलाकों में भी ग्रीन पटाखों की बाध्यता का क्या अर्थ?
यह सवाल तब और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब यह देखने में आ रहा है कि देश में अभी पर्याप्त मात्र में ग्रीन पटाखे नहीं बन पा रहे हैं। जब सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में ही पर्यावरण के लिए हानिकारक पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी थी, तब यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया गया कि केवल ग्रीन पटाखे ही बनाए और बेचे जाएं?
चूंकि दीपावली पर पटाखों पर रोक को लेकर कुछ ज्यादा ही सख्ती बरती जाने लगी है, इसलिए यह आवश्यक है कि उनके निर्माण एवं उपयोग को लेकर कोई समग्र-सुविचारित नीति बनाई जाए, ताकि उत्सवों का उल्लास भी बना रहे और पटाखा उद्योग भी चौपट न होने पाए। प्रदूषण बढ़ाने वाली अन्य गतिविधियों की अनदेखी कर केवल पटाखों के पीछे पड़ने का कोई मतलब नहीं।
दैनिक जागरण
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