सम्पादकीय

"मेक इन इंडिया" के लिए सैन्य तैयारियों में कोताही ठीक नहीं

Gulabi
9 Nov 2021 6:26 AM GMT
मेक इन इंडिया के लिए सैन्य तैयारियों में कोताही ठीक नहीं
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अब मेक इन इंडिया योजना के तहत BHEL को 127 मिमी सिस्टम बनाने का काम सौंपा गया है

बिक्रम वोहरा.

2019-20 के दौर में भारत ने सैन्य मोर्चे पर अमेरिका के साथ दोस्ती की और अमेरिकी सैन्य सामान की खरीदारी पर गंभीरता से विचार किया गया. नजदीकियों के सबूत के तौर पर हमने अपने 11 निर्माणाधीन फ्रिगेट और डिस्ट्रॉयर युद्धपोतों के लिए 1 बिलियन डालर की लागत पर 13 MK45 एंटी-सरफेस और एंटी-एयर गन की खरीदारी को मंजूरी दी. समुद्री हथिययारों की खरीदारी की यह पहल 2013 से जारी थी. लेकिन उस समय भारत ने इतालवी फर्म ओटीओ मेलारा के साथ डील का फैसला किया था, तभी अगस्ता हेलिकॉप्टर सौदे में घोटाले के आरोप लगे और साथ-साथ ओटीओ मेलारा के साथ हुए समझौते को भी रद्द कर दिया गया क्यूंकि ओटीओ मेलारा और अगस्ता की मूल पेरेंट कंपनी फिनमेकेनिका थी.


अब मेक इन इंडिया योजना के तहत BHEL को 127 मिमी सिस्टम बनाने का काम सौंपा गया है जो MK45 की जगह ले लेगा. MK45 पर "हाउडी मोदी" वाले दिनों में सहमति हुई थी जब मोदी और डोनाल्ड ट्रम्प की गलबहियां चर्चा में थी. अब देखना ये होगा कि क्या बीएचईएल अपनी काबिलियत के दम पर ऐसी जटिल प्रणाली बना पाएगा कि नहीं. बहरहाल, यह निश्चित ही काबिल-ए-तारीफ है कि अब हम अपने देश में पांचवीं पीढ़ी की ऐसी नौसैनिक हथियार प्रणालियां बना सकते हैं, जिससे इनका रखरखाव और गोले की मारक क्षमता का मसला घरेलू और किफायती हो जाएगा.
मेक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत बनाए जा रहे हैं तेजी से सैन्य उपकरण
लेकिन इसके बावजूद इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता कि सैन्य सामानों के घरेलू निर्माण में हमारा रिकॉर्ड उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है. LCA प्रोग्राम और अर्जुन टैंक से लेकर लड़ाकू राइफल और बुलेटप्रूफ जैकेट तक सभी निर्माण गुणवत्ता और प्रदर्शन की कसौटी पर खरे नहीं उतरे. ऐसे समय में जब अमेरिका भारत से हिंद-प्रशांत सागर में शामिल होने का आह्वान कर रहा है, खुद को आत्मनिर्भर बनाना निश्चित रूप से एक बढ़िया लक्ष्य है. और ये हमारे लिए निश्चित तौर पर फायदेमंद होता अगर हम 3 बिलियन डॉलर के 13 अमेरिकी निर्मित सिस्टम की डील को कुछ बदलाव के साथ तेजी से अमली जामा पहनाते. इसके बाद भारतीय निर्माता को और बढ़ावा दिया जा सकता था. अभी भी हमारी सैन्य सेवाओं में इस्तेमाल होने वाले ज्यादातर उपकरण रूसी हैं. पहले ये 80 फीसदी होते थे. लेकिन हाल के दिनों में मेक इन इंडिया प्रोग्राम की कामयाबी के बाद ये घटकर लगभग 55 फीसदी तक पहुंच गया है.

भारत का असली दुश्मन चीन है पाकिस्तान नहीं
बहरहाल, अब भारत को यह एहसास हो चुका है कि उसका असली दुश्मन चीन है न कि पाकिस्तान. जाहिर है बदले हालात में शर्तें भी बदल गई हैं. भारत-अमेरिका साझेदारी की प्रगाढ़ता का अंदाजा बंगाल की खाड़ी में चले नौसेना अभ्यास "मालाबार" से सहज ही लगाया जा सकता है. इसके अलावा, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच क्वॉड समझौते ने हाल ही में "एक ऐसे क्षेत्र के लिए अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की जो स्वतंत्र, खुला, समावेशी, स्वस्थ, लोकतांत्रिक और किसी भी तरह की जबरदस्ती (विस्तारवादी नीति) से मुक्त हो."

आपका अनुमान गलत नहीं होगा अगर आप ये मान लें कि क्वॉड के निशाने पर चीन की विस्तारवादी नीति रही है. अब जबकि हमने इस इलाके में रणनीतिक रूप से अपनी प्राथमिकताओं में बदलाव किया है तो हमें अपने हथियारों को अत्याधुनिक बनाने की जरूरत है ताकि हम बेहतरीन प्रशिक्षित सैनिकों, वायुसैनिकों और नौ सैनिकों की क्षमताओं से किसी तरह का समझौता न करें. हम सही रास्ते पर तो हैं लेकिन ये अंदेशा बना रहता है कि देशभक्ति के जोश में महत्वपूर्ण उपकरणों को आधुनिक करने के दौरान हमारी व्यवहारिकता पर कहीं अंध-देशभक्ति का ग्रहण न लग जाए.

पिछले साल भारत और अमेरिका ने BECA (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर किए. इस समझौते के तहत भारत की पहुंच अमेरिका की मजबूत खुफिया तंत्र तक होगी. रियल टाईम डेटा फीड के जरिए हमारी स्वचालित हथियार प्रणालियां न सिर्फ सटीक होंगी बल्कि और घातक भी होंगी.

आरोपों और घोटालों से घिरी रहती है हमारी सैन्य खरीद
हालांकि नौसैनिक तोपों पर खारिज हुए सौदों के बाद बड़ी तस्वीर तो नहीं बदलेगी, लेकिन अब अमेरिका निश्चित तौर पर भारत को एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में देखने से हिचकिचाएगा. इसके अलावा ये सर्वविदित है कि अमेरिकी थिंक टैंक भारत की बेढंगी और नौकरशाही खरीद-नीति के आलोचक रहे हैं. इस थिंक टैंक का मानना है कि सैन्य प्रणालियों की जानकारी न रखने वाले सिविलियन ब्यूरोक्रेट्स ही अंतिम निर्णय लेते हैं और अक्सर खरीद में देरी या अनावश्यक आपत्तियां उठाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. मिसाल के तौर पर, हमने लाइट हेलीकॉप्टरों के लिए एक टेंडर निकाला और यह 14 साल तक बिना किसी अनुरोध के जारी रहा. हमारे चेतक पचास वर्ष के हैं . हमारे कई टेंडर जारी होने के बीस साल बाद ही साकार होते दिखाई देते हैं.

इसके अलावा सैन्य खरीद को घोटाले से कलंकित करने का हमारा रिकार्ड भी जगजाहिर है. बोफोर्स से लेकर राफेल तक हमने दूसरों को कटघरे में खड़ा करने का खेल खेला है. चेक पिस्टल सौदा के तहत साल 2009 में सात कंपनियों पर 2 बिलियन डॉलर के भ्रष्टाचार का आरोप अपने आप में एक मिसाल है. इन सात कंपनियों में इजरायल और पोलैंड से एक-एक, सिंगापुर से दो और भारत की तीन कंपनियां शामिल थीं. हमारा पहला घोटाला 1948 में जीप खरीद का था जब हमने इस्तेमाल की गई जीपों को नई जीप की कीमत पर खरीदा था. यहां तो ताबूतों का निर्माण और उनकी खरीदारी भी संदेह के घेरे में रही है. इन तमाम आरोप, फिर उनकी जांच और इसके बाद आरोप-प्रत्यारोपों के अंतहीन दौर ने हमारी सेना को कमजोर ही बनाया है.

इसमें कोई दो मत नहीं कि तमाम सैन्य विशेषज्ञ ये मानते हैं कि किसी भी सुरक्षा बल को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए सैन्य सामानों की अविलंब डिलीवरी बेहद जरूरी है. सिर्फ नारेबाजी और स्नेह के प्रदर्शन से सेना को मजबूत नहीं बनाया जा सकता. सच तो ये है कि वे 13 बंदूकें आज भी उपलब्ध हैं. उनके लिए सौदा पक्का हो ही चुका था. हमारे समुद्री तटों पर तूफान और खतरा बरकरार है. इसलिए उन बंदूकों को जल्द से जल्द हमारे जहाजों पर तैनात होना चाहिए ताकि हम आधुनिक हथियारों से लैस हो दुश्मन को टक्कर दे सकें. इसके बाद ही हमें मेक इन इंडिया की तरफ कदम बढ़ाना चाहिए. कट्टर राष्ट्रवाद के चक्कर में रहकर अगर हम देरी करते रहें तो निस्संदेह ये सौदा काफी महंगा साबित हो सकता है. इसके अलावा सौदे को रद्द करने पर हमें आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ सकता है.
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