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औरत और गाय में कोई फर्क नहीं
मनीषा पांडेय.
इस साल की शुरुआत में दक्षिण कोरिया से एक खबर आई थी, जिसके बाद हजारों की तादाद में उस देश की औरतों ने सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन किया. वो खबर कह रही थी कि दक्षिण कोरिया में चोरी-छिपे, हिडेन कैमरे के इस्तेमाल से महिलाओं के आपत्तिजनक फोटो लेने, वीडियो बनाने और उसे इंटरनेट पर डालने की घटनाओं में आश्चर्यजनक रूप से इजाफा हुआ है. इतना कि ये आंकड़े न सिर्फ चौंकाने, बल्कि डराने वाले हैं.
अमेरिकन राइटर, एक्टिविस्ट और डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर जेन किलबॉर्न ने 1979 में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई. इस फिल्म में जेन न सिर्फ विज्ञापनों और पॉपुलर मीडिया में औरतों के एक खास तरह के सेक्सिस्ट पोट्रेयल की बात करती हैं, बल्कि कहती हैं कि कोई भी समाज अपनी औरतों के साथ कैसे पेश आता है, इसका एक अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां के पॉपुलर मीडिया में औरतों को किस तरह दिखाया जा रहा है.
इसकी एक बानगी दक्षिण कोरिया में हाल ही में बने एक विज्ञापन में मिलती है, जिसके लिए कंपनी ने अब माफी मांग ली है और उस विज्ञापन को यूट्यूब से हटा दिया है. कंपनी की माफी पर बाद में आएंगे, पहले उस विज्ञापन की बात करते हैं.
ये विज्ञापन बनाने वाली कंपनी सियोल डेयरी दक्षिण कोरिया की सबसे बड़ी दूध का उत्पादन करने वाली कंपनी है. सियोल डेयरी का एक विज्ञापन पिछले महीने की 29 तारीख को रिलीज हुआ. सबसे पहले एक दक्षिण कोरियाई पत्रकार हवोन जुंग का इस ओर ध्यान गया. उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि ये 21वीं सदी का सबसे सेक्सिस्ट और सबसे खतरनाक विज्ञापन है.
इस विज्ञापन की शुरुआत कुछ यूं होती है कि एक बड़ा सा खेत है, जिसमें कुछ महिलाएं घास पर लेटी हुई हैं. कुछ योग कर रही हैं, कुछ बैठी हैं, कुछ मैदान में लेटी आसमान को निहार रही हैं. नदी से पानी पी रही हैं. इस पूरे दृश्य में महिलाओं को एक खास ऐंद्रिकता के साथ फिल्माया गया है. एक आदमी कैमरा लेकर झाडि़यों के पीछे छिपा हुआ है और इस महिलाओं की चुपके से तस्वीरें खींच रहा है. पीछे से वॉइसओवर चल रहा है, आखिरकार हमने उस जगह को कैमरे में दर्ज कर ही लिया. वह जगह, जहां खूब सफाई है. तभी झाडि़यों के पीछे छिपकर तस्वीरें खींच रहा वह आदमी हिलता है और उसके हिलने की आवाज से औरतें चौंक जाती हैं. जैसे ही उन्हें पता चलता है कि झाडि़यों के पीछे कोई आदमी है तो अचानक स्क्रीन पर दृश्य बदलता है और सारी महिलाएं गायों में तब्दील हो जाती हैं. विज्ञापन के अंत में टैगलाइन आती है- "शुद्ध पानी, शुद्ध चारा और सौ फीसदी शुद्ध सोल मिल्क."
अब इस विज्ञापन में गौर करने लायक कई बातें हैं. एक ऐसे देश में, जहां चंद महीनो पहले हजारों औरतों ने सड़कों पर उतरकर सीक्रेटली औरतों का फोटो और वीडियो बनाने पर विरोध जताया हो और जहां यह तेजी से बढ़ रहा संकट हो, उस देश की सबसे अमीर और प्रतिष्ठित कंपनी का विज्ञापन एक मर्द को चुपके से औरतों की तस्वीरें खींचते हुए दिखा रहा है. वो दरअसल न सिर्फ इस बात को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि इसे नॉर्मलाइज भी कर रहे हैं. इसे एक सामान्य घटना की तरह पेश कर रहे हैं.
दूसरे यह विज्ञापन औरतों की दुधारू गाय से तुलना कर रहा है. पहले तो महिलाओं को एक खास सेंसुअस अंदाज में पेश करना और फिर उन औरतों का अचानक गाय में तब्दील हो जाना आखिर क्या संदेश देता है. यही कि इन औरतों और गायों में कोई फर्क नहीं है. दोनों एक ही हैं. औरतें दरअसल दुधारू गाय हैं. शुद्धता, पवित्रता, सफाई के प्रतीक के रूप में पहले औरतों और फिर गायों को दिखाना न सिर्फ इस विज्ञापन को लिखने वालों, बल्कि उसे कंज्यूम करने वाले लोगों की एक खास तरह की स्त्रीद्वेषी मानसिकता की ओर इशारा करता है.
दुनिया के किसी देश में किसी भी सामान को बेचने के लिए मर्दों को प्रोडक्ट की तरह कभी इस्तेमाल नहीं किया जाता. मर्दों के आधिपत्य वाली इस दुनिया के लिए औरत ही सामान है. अपने सामान बेचने के लिए वो न सिर्फ औरतों का इस्तेमाल करते हैं, बल्कि उन्हें भी एक सामान की तरह ही पेश करते हैं. मर्दों के अंडरवियर से लेकर ट्रक के टायर और इंजन ऑइल तक के विज्ञापन का काम नंगी औरतों के बगैर नहीं चलता. उन उत्पादों का भी, जिनका औरतों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है. मर्दों की शेविंग क्रीम से लेकर उनके रेजर तक में बिकनी पहनी औरत जब तक न हो, विज्ञापन पूरा नहीं होता.
जेन किलबॉर्न ने 40 साल पहले जो बात कह रही थीं, आज दुनिया उससे बहुत आगे निकल आई है. अब फर्क सिर्फ इतना ही है कि चाहे हिंदुस्तान हो या कोरिया, औरतों ने शोर मचाना शुरू कर दिया है. बहुसंख्यक मर्द इन्हें कर्कश फेमिनिस्ट बुलाते हैं, लेकिन ये फेमिनिस्ट औरतें सोशल मीडिया पर इतना चिल्लाती हैं, सड़कों पर उतरकर आवाज उठाती हैं और कोर्ट-कचहरी का दरवाजा खटखटाती हैं कि मर्दों के पास अपने अहंकार की नींद से जागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता.
दक्षिण कोरिया में इस विज्ञापन के बनने और इसे वापस लिए जाने की कहानी इतनी सीधी भी नहीं हैं. बीबीसी से लेकर इंटरनेशनल मीडिया की कवरेज सिर्फ इतना बता रही है कि कंपनी को माफी मांगनी पड़ी. अब न सिर्फ टीवी, सोशल मीडिया से इस विज्ञापन को हटा दिया गया है, बल्कि कंपनी ने अपना वक्तव्य जारी कर कहा है कि वो इस मामले की पड़ताल करेंगे और इस पर विचार करेंगे कि इस तरह का मिसोजेनिस्ट काम उनके हाथों हुआ कैसे.
न इनके विज्ञापन पहले और आखिरी हैं और न इनकी माफी. अभी कुछ दिन पहले चीन में एक नामी कैफे को अपने सेक्सिस्ट विज्ञापन के लिए माफी मांगनी पड़ी थी और उसे हटाना पड़ा था. दो साल पहले यूके में ऐसे दो सेक्सिस्ट विज्ञापनों पर आपत्ति दर्ज हुई और उन्हें वापस लिया गया. वो इस तरह के सेक्सिस्ट थे कि भारत और कोरिया जैसे देशों में तो उतना सेक्सिस्ट होना दाल-भात है. और यूके में उन विज्ञापनों को वापस लेना नहीं पड़ा था क्योंकि कोई विरोध कर रहा था या शोर मचा रहा था. उनकी सेंसर अथॉरिटी ने खुद ही संज्ञान लिया था और खुद ही कदम उठाया था. पहली और तीसरी दुनिया के देशों में इतना फर्क तो है ही.
फिलहाल अपने बहीखाते में हरेक मामूली से मामूली मिसोजिनी की भी दर्ज करते चलिए. ये जीवन बीत जाएगा, लेकिन मिसोजिनी नहीं बीतेगी. थर्ड वर्ल्ड देशों के मर्दों को अभी कम से कम 200 साल और लगेंगे सिर्फ इंसान बनने और औरत को इंसान समझने में.
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