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सम्पादकीय
By डॉ धनंजय त्रिपाठी
पिछले कुछ दिनों में श्रीलंका में घटनाक्रम तेजी से बदला है, पर इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता है. बेहद गंभीर आर्थिक संकट के कारण वहां समाज और राजनीति में कई महीने से अस्थिरता व्याप्त है और लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. ऐसा लगता है कि यह अनिश्चित माहौल अभी बना रहेगा. मई में प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा था और रानिल विक्रमसिंघे के नेतृत्व में नयी सरकार गठित हुई थी.
इस बदलाव के बावजूद हालात बद से बदतर होते गये. महिंदा राजपक्षे के प्रधानमंत्री रहते ही श्रीलंका एक प्रकार से दिवालिया हो गया था और उसके पास विदेशी कर्ज चुकाने या बाहर से चीजें आयात करने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं बची थी. उनके पद से हटने के बाद ऐसी उम्मीद की जा रहे थी कि उनके भाई गोटाबया राजपक्षे भी जल्दी ही राष्ट्रपति पद छोड़ देंगे और नये सिरे से नये कार्यक्रम के तहत सरकार संकट से निकलने का प्रयास करेगी, पर ऐसा नहीं हुआ और गोटाबया राजपक्षे राष्ट्रपति बने रहे.
चूंकि जनता की परेशानियां बढ़ती जा रही थीं, तो आक्रोश भी गहन होता जा रहा था. खबरों में हम पेट्रोल पंपों में लंबी कतारें देख रहे हैं, वह समस्या तो है ही, पर उसके साथ-साथ जीवनरक्षक दवाओं की भी बड़ी कमी हो गयी है, क्योंकि विदेशी मुद्रा नहीं होने के कारण उनका आयात करना संभव नहीं हो रहा है. मुद्रास्फीति इतनी अधिक है कि आर्थिक रूप से बहुत अधिक संपन्न लोग ही खाने-पीने की चीजों और अन्य जरूरी वस्तुओं की खरीद कर पा रहे हैं.
इन चीजों की उपलब्धता भी बहुत घट चुकी है. मध्य आय वर्ग, निम्न आय वर्ग और गरीबों की स्थिति बेहद खराब है. इन मुश्किलों से किसी प्रकार की राहत मिलने के आसार नहीं दिख रहे थे. ऐसे में जनाक्रोश अनियंत्रित हो गया और लोगों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आवासों पर कब्जा कर लिया. प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने इस्तीफा की पेशकश की है और राष्ट्रपति गोटाबया ने पद छोड़ने की बात कही है.
जनता का गुस्सा भड़कने की एक अहम वजह यह भी है कि सर्वोच्च पदों पर आसीन इन दोनों नेताओं के द्वारा हालात सुधारने के लिए कोई ऐसी पहलकदमी भी नहीं हो रही थी कि लोग कोई उम्मीद देखते. यह संकेत भी लोगों में जा रहा था कि राजपक्षे की प्राथमिकता श्रीलंका की सत्ता और राजनीति में अपने वर्चस्व को बचाने की है, न कि देश को इस भारी मुसीबत से निकालने की.
श्रीलंका के लोग इस आर्थिक संकट के लिए पूरी तरह से राजपक्षे परिवार को जिम्मेदार मानते हैं. इसकी दो वजहें हैं. साल 2009 से ही यह परिवार किसी न किसी तरीके से सरकार या राजनीति में हावी रहा है. महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व वाली हालिया सरकार की बात करें, तो श्रीलंका के राष्ट्रीय बजट का 70 प्रतिशत हिस्से का नियंत्रण राजपक्षे परिवार के मंत्रियों के हाथ में था. वह सरकार एक के बाद लायी जा रही गलत नीतियों के साथ आगे बढ़ रहे थी.
पिछले एक-दो साल में जब स्थिति बिगड़ने के स्पष्ट संकेत आने लगे थे, तब भी सरकार ने किसी भी तरह का उल्लेखनीय प्रयास नहीं किया. जैविक खेती की नीति से पैदावार में बड़ी कमी आयी, जिससे किसानों की आमदनी तो घटी ही, बाजार में चीजें काफी महंगी हो गयीं.
कोविड महामारी ने पर्यटन कारोबार को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया. राजपक्षे परिवार के हाथ पर हाथ धरे रहने से जनता में बनी उसके भ्रष्ट होने और सत्ता को पकड़े रहने की छवि को और मजबूती मिली. एक नाराजगी यह भी रही है कि गोटाबया ने यह तो कह दिया है कि वे इस्तीफा दे देंगे और शायद दे भी दें, पर श्रीलंका की संवैधानिक व्यवस्था में त्यागपत्र की वैधता तभी होती है, जब वह लिखित रूप में हो. अभी तो यह भी पता नहीं है कि वे राष्ट्रपति भवन से निकलने के बाद कहां गये हैं.
यह स्पष्ट रूप से समझना जरूरी है कि श्रीलंका की स्थिति ठीक होने में लंबा समय लगेगा. आर्थिक स्थिति इतनी चौपट हो चुकी है कि किसी चमत्कार से ही उसका कोई तुरंत समाधान हो सकता है. अभी कुछ समय के लिए यही हो सकता है कि श्रीलंका के पड़ोसी देश और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तात्कालिक तौर पर मदद मुहैया कराएं, ताकि लोगों को राहत मिले तथा देश को आगे का रास्ता निकालने की मोहलत मिले.
अब तक भारत ने बड़े पैमाने पर सहायता की है और आगे भी उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी. भारत की ओर से इस संबंध में सकारात्मक संकेत भी दिये गये हैं. यह इसलिए भी जरूरी है कि अगर इस द्वीपीय देश में अस्थिरता बढ़ती है, तो भारत भी उसके असर से अछूता नहीं रहेगा. वहां भारत की जो अच्छी छवि है, उसे बरकरार रखना भी आवश्यक है. भारत की वर्तमान विदेश नीति में पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देना अहम आयाम है.
इसके लिए भी श्रीलंका का मसला एक बड़ी चुनौती है. हालांकि भारत जैसे देशों की सहायता का बड़ा महत्व है, लेकिन बड़े पैमाने पर राहत और भविष्य के लिए मजबूत आधार जरूरी है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ओर से बेलआउट पैकेज मिले, जिसके लिए चर्चा भी हो रही है. इसके अलावा भारत, जापान समेत कुछ देशों की संयुक्त बैठक का प्रस्ताव भी है.
पर यह सब तब ही हो सकेगा, जब श्रीलंका में कुछ राजनीतिक स्थिरता आए और जो नयी अंतरिम सरकार बनेगी, उसका रवैया भी बड़ा निर्धारक हो. संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप संसद के सभापति अंतरिम रूप से सरकार गठित कर सकते हैं, पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या जनता राजपक्षे परिवार और उनकी पार्टी से संबंधित किसी व्यक्ति को स्वीकार करेगी.
कौन-कौन पार्टियां संयुक्त सरकार में शामिल होंगी और कौन-कौन बाहर रहती हैं, यह भी देखा जाना है. राजनीतिक दलों के लिए भी यह संकट का समय है. रानिल विक्रमसिंघे प्रधानमंत्री पद लेकर और असफल रह कर अपना बड़ा नुकसान कर चुके हैं. चूंकि बहुत जल्दी देश इस मुश्किल से बाहर आ पाने की स्थिति में नहीं है, तो पार्टियां भी सोच-समझ कर जिम्मेदारी लेना चाहेंगी, ताकि कोई दोष उनके सिर न आए. महिंदा राजपक्षे भी सभी पार्टियों को लेकर सरकार बनाना चाहते थे, पर सहमति नहीं बन सकी. ऐसा विक्रमसिंघे के साथ भी हुआ. एक पहलू यह भी है कि ऐसे समय में चुनाव पर खर्च कराना समझदारी की बात होगी और अगर चुनाव होता है, उसका खर्च कहां से आयेगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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