सम्पादकीय

आजादी के आंदोलन को नकारने का सिलसिला है

Rani Sahu
12 Nov 2021 6:28 PM GMT
आजादी के आंदोलन को नकारने का सिलसिला है
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क्या किसी को पद्म पुरस्कार इसलिए दिया जाता है

रवीश कुमार क्या किसी को पद्म पुरस्कार इसलिए दिया जाता है कि वह आंदोलन करने वाले किसानों को आतंकवादी कहे और देश को बांटने वाला कहे. क्या इसलिए दिया जाता है कि पुरस्कार मिल जाने के बाद भारत की आज़ादी और उसके लिए बलिदान देने वाले असंख्य शहीदों का अपमान करे? कंगना रनौत कह रही हैं कि आज़ादी भीख में मिली थी असली आज़ादी 2014 में मिली थी कंगना ने यह बात एक न्यूज़ चैनल के कार्यक्रम में कही. वहां पर सूट बूट में आए कई लोगों ने इस बात पर तालियां भी बजाईं. आजादी के इन जानकारों को ताली बजाते हुए आप यू ट्यूब में देख सकते हैं, वहां वीडियो होगा ही. इन्हीं सूट बूट वालों को सरकार के खिलाफ एक लाइन बोलने के लिए कह दीजिए तो ताली ही नहीं बज पाएगी. हाथ जम जाएंगे. कंगना रनौत की इस बात की निंदा से पहले यह देखना ज़रूरी है कि इस तरह की बात कंगना ने पहली बार नहीं कही है. कई साल से अलग अलग माध्यमों से इस तरह की बातें जनता के बीच पहुंचाई जा रही हैं. व्हाट्सएप से लेकर ट्विटर तक पर ऐसी सामग्री की भरमार है जिनमें लतीफों और भद्दी गालियों का सहारा लिया गया है और आज़ादी के आंदोलन को नकारा गया है.

एक मीम है जिमसें गांधी और नेहरू को बाल्टी चुराते दिखाया गया है. यह बताने के लिए कि आज़ादी के लिए संघर्ष बोस, भगत सिंह और तिलक ने किया. इस तरह गांधी और नेहरू को एक तरफ खड़ा किया जाता है, उसमें से सरदार पटेल को कुछ और अलग किया जाता है. बहुत चालाकी से सरदार पटेल को अलग कर ट्विटर पर और राजनीति में गांधी की हत्या का जश्न मनाया जाता है. ट्रेंड किया जाता है. तरह तरह की दलीलों से लोगों के दिमाग़ मे भूसा और नफरत भरा जाता है कि असली आज़ादी नहीं मिली. यह काम राजनीति के हिसाब से मनोवैज्ञानिक तरीके से किया जाता है. ऐसा करने वालों को पता है कि लोगों के भीतर कुछ नफरती पूर्वाग्रह होते हैं, कम जानकारियां होती हैं, उनके भीतर तरह तरह के नए पूर्वाग्रह और नई जानकारियों के नाम पर झूठ ठेल दिए जाते हैं. इस तरह से करोड़ों लोगों को तैयार किया जा चुका है.
पद्म पुरस्कार प्राप्त कंगना रनौत का बयान पहले से समाज में पहुंचाए जा चुके बयानों को मंच देने भर के जैसा था. जो बातें अंदर अंदर पहुंचाई जा चुकी हैं उसके औपचारिक रूप दिए जाने का परीक्षण शुरू हो चुका है. यही वो बातें हैं जिन्हें आप चर्चा योग्य नहीं मानते, जवाब देने के लायक नहीं मानते. आपके ऐसा मानने या नहीं मानने से अलग यह प्रक्रिया चलती रहती है. इस तरह की दलीलें हमें पहले भी कई बार सुनने को मिली हैं. खासकर जब हम महंगाई के सपोर्टर सीरीज़ के लिए महंगाई के सपोर्टरों की दलीलें सुनते हैं, यही सब बातें निकल कर आती हैं कि आज़ादी अब मिली है. इस आज़ादी को धार्मिक और सांस्कृतिक आज़ादी के नाम पर लोगों के बीच घुसाया जा रहा है ताकि इसके बाद 1947 से पहले की आज़ादी और उसके शानदार संघर्षों को अपमानित कर पीछे धकेला जा सके. महंगाई के सपोर्टर कहीं आसमान से नहीं टपके हैं बल्कि इसी राजनीतिक प्रयोगशाला में तैयार किए गए हैं जो केवल न्यूज़ चैनल के कार्यक्रम में नहीं मिलते हैं बल्कि सड़क चौराहों और चाय की दुकानों पर भी मिलते हैं.
अब आपको समझ आ सकता है कि कंगना रनौत ने जो कहा वो बात किस तरह से आम कर दी गई है. यह केवल अपमान नहीं है कि किसी ने कह दिया कि आज़ादी भीख में मिली और 2014 में असली आज़ादी मिली. हमें देखना चाहिए कि कौन कह रहा है, क्यों कह रहा है और जो कह रहा है वो बात क्या कोई अकेले में कही गई बात है तब आपको समझ आ जाएगा कि आपकी सहमति और भागीदारी से भारत को कहां पहुंचाया जा रहा है. यह काम बहुत चालाकी से हो रहा है और खुलेआम. धार्मिक और सांस्कृतिक आज़ादी के नाम पर तर्क गढ़े जा रहे हैं. कहते कहते लोग इस तरह भरम में आ ही जाएंगे कि धार्मिक आचार-व्यवहार 2014 के पहले नहीं करते थे, अब करने की आज़ादी मिली है. 1857 से 1947 के बीच असंख्य आम भारतीयों ने इसके लिए कुर्बानी दी. जान दी और जेल गए. 1857 की क्रांति के बाद इसी दिल्ली में कई हज़ार लोगों को पेड़ से बांध कर तोप से उड़ा दिया गया और मार कर पेड़ पर लटका दिया गया, जिस दिल्ली में कंगना ने कहा है कि आज़ादी भीख में मिली थी. हम सावरकर की माफी का ज़िक्र कर आज के कार्यक्रम के मेयार को छोटा नहीं करना चाहते हैं. भारत के संविधान में नागरिकों के लिए बताए गए मौलिक कर्तव्यों में इसे शामिल किया गया है
अनुच्छेद 51A में लिखा है कि स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखें और उनका पालन करें. संविधान का कहता है कि नागरिक का मौलिक कर्तव्य होगा कि हम उन उच्च आदर्शों को हृदय में संजो कर रखे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया. यहां तो हम हृदय से ही निकाल फेंके जाने का दृश्य हर दिन देख रहे हैं.
अक्टूबर महीने में झांसी की रानी के किरदार पर बनी फिल्म में अभिनय के लिए कंगना को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. उपराष्ट्रपति ने दिया जो इस देश का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद है. कुछ दिनों के बाद राष्ट्रपति पद्म पुरस्कार देते हैं. बताने की ज़रूरत नहीं कि राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च संवैधानिक पद है. यह भी बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह दोनों पद उस संविधान से निकले हैं जो आज़ादी की लड़ाई से निकला है. संविधान से आप इन पदों को और इनके फैसलों को अलग नहीं कर सकते हैं. न ही यहां बैठे प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों को अलग कर सकते हैं. फिल्म अभिनेत्री को पता ही होगा कि रानी झांसी ने ब्रिटिश हुकूमत से लड़ते हुए शहादत दी थी. इसी विवादित इंटरव्यू में कंगना झांसी की रानी की तारीफ भी करती हैं लेकिन इस तारीफ के बदले इसका लाइसेंस नहीं मिल जाता कि आज़ादी को भीख में मिली बता दिया जाए और कह दें कि असली आज़ादी 2014 में मिली थी.
आप व्यक्ति और बयान दोनों को इस राजनीतिक समर्थन से अलग नहीं कर सकते हैं. यह समर्थन न होता तो किसानों को आतंकवादी कहने वाली कंगना रनौत को पद्म पुरस्कार नहीं दिया जाता. न ही ऐसे शख्स को जो अदालत में तब हाज़िर होती हैं जब गिरफ्तारी का वारंट जारी करने की फटकार मिलती है. लेकिन सरकार ने दिया तो कुछ सोच कर दिया होगा ताकि वे जो बोल रही हैं बोलती रहें. आराम से बोलती रहें कि आज़ादी भीख में मिली थी और 2014 में असली आज़ादी मिली थी.
उसी दिल्ली में जहां यह पद्म पुरस्कार दिया गया वहां से थोड़ी दूरी पर एक न्यूज़ चैनल के कार्यक्रम में पद्म पुरस्कार प्राप्त के करने के बाद कंगना रनौत कहती हैं कि हमें आज़ादी भीख में मिली और असली आज़ादी 2014 में मिली. उनके बयान से ज्यादा अपमानजनक था मंच के नीचे बैठे लोगों का ताली बजाना. आज़ादी भीख में मिलने वाली बात कह कर कंगना और आगे बढ़ती हैं और कहती हैं कि इस बयान के बाद मुझ पर मुकदमे होने वाले हैं. तब न्यूज़ ऐंकर कहती हैं कि अभी तो आप दिल्ली में हैं, वो आपके साथ मुंबई में होता है. कंगना दिल्ली में हैं, मुंबई में नहीं दरअसल यही वो बात है जिससे साफ होता है कि कंगना के बयान को निजी तौर पर नहीं देखा जा सकता. ऐंकर ने साफ कर दिया है कि दिल्ली का समर्थन प्राप्त है ऐसा कह सकती हैं.
दिल्ली में कुछ नहीं होगा यह बात ऐंकर ने हौसला बढ़ाने के लिए भी कही और यह जताने के लिए कि दिल्ली का साथ है. अगर आपको इस बात में ज़रा भी संदेह है तो कुछ पुरानी घटनाओं को देख सकते हैं. जिस तरह से सीआरपीएफ का जवान कंगना रानौत के लिए दरवाज़ा खोल रहा है उसे देखकर कोई भी समझ सकता है कि कंगना रानौत को वाकई दिल्ली में कौन अरेस्ट करेगा, कमांडो का काम नहीं होता है दरवाज़ा खोलना. दूसरा कोई होता तो आज़ादी भीख में मिली है के बयान पर देश भर में राजद्रोह और UAPA के मामले दर्ज हो जाता. ऐसा कुछ नहीं हुआ. दिल्ली का ही आशीवार्द है कि इतनी सुरक्षा मिली है. बल्कि यही बात कन्हैया ने कही होती तो आज बीजेपी चारों तरफ सड़कों पर होती है, कांग्रेस विपक्ष में है इसलिए कांग्रेस ने ट्वीट ज़रूर किया होगा. आप कंगना और सरकार को अलग नहीं कर सकते हैं. कंगना पहले से ही नफरती बातें करती रही है. सुशांत सिंह राजपूत के फर्ज़ी विवाद के समय उन्हें सीआरपीएफ की सुरक्षा दी गई है. उनके ज़रिए इस डिबेट को खड़ा किया गया ताकि भारत की करोड़ों जनता फर्ज़ी बहस को महीनों देखे. आज भी उस समय के बयानों को लेकर कोर्ट में तरह तरह के मामले चल रहे हैं. एक तरफ सरकार कंगना को पद्म श्री देगी, कंगना आज़ादी का अपमान करेंगी, कहेंगी कि भीख में मिली है. दूसरी तरफ उन्हें पुरस्कार देने वाली सरकार आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाएगी.
24 अक्टूबर को प्रधानमंत्री ने मन की बात में बताया था कि आज़ादी के आंदोलन से जुड़े गीतों की प्रतियोगिता हो रही है. प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि क्या उन गीतों में आज़ादी के भीख मांगे जा रहे थे?
यह तस्वीर प्रधानमंत्री को याद होगी. चरखा चलाते हुए. अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप और इज़राइल के प्रधानमंत्री को साबरमती ले गए थे. वहां चरखा का महत्व समझाया था. क्या चरखा भीख का प्रतीक है? क्या गांधी जी ने भीख मांगी थी, अगर भीख मांगी थी तो फिर गांधी के प्रति सम्मान का दिखावा ही क्यों किया जा रहा है. क्या भीख मांगने के जुर्म में गांधी ने ब्रिटिश राज में छह साल से अधिक समय जेल में बिताए थे. जब भी गांधी जयंती आती है या 30 जनवरी आता है इस दिन ट्विटर पर ट्रेंड कराया जाता है, गोड्से ज़िंदाबाद कहा जाता है. क्या कभी सरकार ने इसके लिए ट्विटर को नोटिस भेजा, बुलाया कि इसे हटाया जाए, क्या कभी त्रिपुरा पुलिस ने इन सबको नोटिस भेजा? भोपाल से बीजेपी की सांसद साध्वी प्रज्ञा ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि नाथूराम गोड्से देशभक्त था और देशभक्त रहेगा. गांधी के हत्यारे को देशभक्त कहने वाली प्रज्ञा ठाकुर को भोपाल की जनता वोट देती है और संसद में आकर वे फिर से गोड्से को देशभक्त बता जाती हैं. जबकि चुनाव के समय उनके बयान के बाद प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे कभी माफ नहीं करेंगे. इसके बाद प्रज्ञा ठाकुर सांसद बनती हैं, भोपाल की जनता चुनती है और वे संसद में गोड्से को देशभक्त कहती हैं.
एक तरफ आज़ादी के आंदोलन से जुड़े नायकों का औपचारिक सम्मान खूब चल रहा है दूसरी तरफ उनका भी सम्मान किया जा रहा है जो आज़ादी के शहीदों का अपमान करते हैं ताकि उस गुप्त नैरेटिव को अब सामने लाया जा सके जो कई सालों से भीतर भीतर चल रहा था. जिसमें आज़ादी के आंदोलन को लेकर तरह तरह के विवाद पैदा कर उसके प्रति नफरत पैदा की जाती रही है. आप दोनों चीज़ें देखेंग. गांधी की तस्वीर भी लगाई जाती है और गोड्से ज़िंदाबाद का नारा भी लगाया जा रहा है. ट्विटर पर ट्रेंड हो रहा है. उनके खिलाफ कोई कार्रवाई तक नहीं होती है.
ऐसा हो नहीं सकता कि आप सरदार पटेल के सम्मान करें और गांधी के हत्यारे का भी सम्मान करें. ऐसा करना सरदार पटेल का अपमान ही करना होगा. जो भी सरदार पटेल की जीवनी का दस पन्ना पढ़ लेगा वो समझ जाएगा कि आज़ादी की लड़ाई के इस शानदार सिपाही की जान गांधी में बसती थी. उनके मन में कितनी श्रद्धा थी. गांधी की हत्या का इतना गहरा सदमा पहुंचा था कि सरदार पटेल को दिल का दौरा पड़ गया था. अपने इलाज के दौरान कहा करते थे कि मैं बापू के बिना नहीं रह सकता, उनके पास जा रहा हूं. 3000 करोड़ की मूर्ति बनाकर दावा किया जाता है कि पटेल को इतिहास में सम्मान दिला रहे हैं लेकिन सम्मान के नाम पर उस इतिहास की कालीन ही खींच दी जा रही है जिस पर चल कर पटेल जैसे नायक हमें मिले. पटेल की मूर्ति बनाकर गांधी के अपमान या आज़ादी के आंदोलन के अपमान की छूट नहीं मिल जाती है. क्या सरदार ने आज़ादी भीख से ली थी? क्या भीख में आज़ादी मिलने के कारण सरदार की इतनी ऊंची मूर्ति बनाई गई है? माफी सरदार ने मांगी थी या सावरकर ने?
इस तरह के बयान गलती से नहीं निकल रहे हैं. हाल ही में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें बीजेपी की युवा मोर्चा की सदस्य रुचि पाठक कहती हैं कि भारत को आज़ादी 99 साल की लीज़ पर मिली है. ऐसी फर्ज़ी बातों को यकीन के साथ दोहराया जा रहा है. ऐसे बहुत से लोग हैं जो इसे सही भी मान लेंगे. हर दिन इस तरह का झूठ औपचारिक और अनौपचारिक माध्यमों से फैलाया जा रहा है. अगर आपने अपने पर्स में मेरी बात लिख कर रखी है तो निकाल कर पढ़िए कि इस दौर में भारत का मीडिया भारत के अर्जित लोकतंत्र की हत्या कर रहा है. अगर लिख कर नहीं ऱखा है तो लिख कर पर्स में अब रख लीजिए कि भारत का मीडिया आपकी आंखों के सामने भारत के अर्जित लोकतंत्र की हत्या कर रहा है.
भले कंगना नहीं जानती होंगी, आप तो जानते हैं कि भारत सरकार भारत की आज़ादी के 75 साल पूरे होने के अवसर को आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रही है. इसके तहत देश भर में तरह तरह के कार्यक्रम होते रहते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने आज ही इसके तहत भाषण दिया है. लेकिन जिस महफिल में कंगना रनौत कह कर चली गईं कि असली आज़ादी 2014 में मिली थीं. क्या पता कंगना जैसे लोग एक दिन सामने आएं और कह दें कि आज़ादी का यह अमृत महोत्सव फेक है. अभी तो आज़ादी के सात ही साल हुए हैं, जो 2014 में मिली थी. असली अमृत महोत्सव 2014 के हिसाब से 2089 में मनाया जाएगा.
1947 के बाद से देश हमेशा से आज़ाद रहा है लेकिन यह धारणा कंगना से लेकर आगरा के चौराहे पर बहस कर रहे लोगों के बीच पहुंचा दी गई है कि आज़ाद अब हुआ है. कभी इसे सांस्कृतिक आज़ादी का नाम दिया जा रहा है तो कभी धार्मिक आज़ादी का. उस आज़ादी से इतनी नफरत है तो सम्मान का दिखावा क्यों होना चाहिए या फिर नफरत करने वाले ही सम्मान के समय क्यों नज़र आते हैं. विपक्ष ने पद्म पुरस्कार वापस लेने की मांग की है.
अच्छी बात है कि कंगना रनौत भी किसी और के संदर्भ में पद्म पुरस्कार वापस लिए जाने की मांग कर चुकी हैं. लेकिन निजी कारणों से.
आज़ादी का नारा पसंद नहीं है, समझ आता है, लेकिन आज़ादी ही भीख में मिली नज़र आती है यह भी समझ में आता है. 2016 में जेएनयू में कन्हैया ने गरीबी और अन्य चीज़ों से आज़ादी का नारा लगाया तभी समझना चाहिए था कि दरअसल चिढ़ नारे से नहीं, उस आज़ादी से है जो हर बड़ी लड़ाई में आदर्श और मकसद का प्रतीक बन जाता है.
जब नवंबर 2019 में लाखों लोग नागरिकता कानून के विरोध में आज़ादी के नारे लगा रहे थे तब यूपी के मुख्यमंत्री ने कहा था कि धरना और प्रदर्शन के नाम पर अगर आप आज़ादी का नारा लगाते हैं तो यह राजद्रोह माना जाएगा. सरकार सख्त कार्रवाई करेगी. मुख्यमंत्री बता दें कि कंगना रनौत ने आज़ादी भीख में मिली है, इसे कौन सा द्रोह माना जाएगा. उन्हीं की पार्टी के सांसद वरुण गांधी ने इसे शर्मनाक और देशद्रोह कहा है.
हरियाणा के गोहाना में एक किसान ने सहकारिता राज्य मंत्री बनवारी लाल के हाथ से सम्मान लेने से इंकार कर दिया. उसके इंकार करने से इतनी असहजता पैदा हो गई कि मंच से ही उतार दिया गया. बात करने की आज़ादी होती तो किसान को मंच से नहीं उतारा जाता. किसान ने यह कहते हुए मंत्री के हाथों सम्मानित होने से इंकार कर दिया कि किसान धरनों पर शहीद हो रहा है वह यहां भाजपा के मंत्री से सम्मानित होगा तो शहीद किसानों का अपमान होगा.
शहीदों के सम्मान में किसान पुरस्कार ठुकरा रहा है और आंदोलनकारी किसानों को आतंकवादी कहने वाली कंगना रनौत को राष्ट्रपति पद्म पुरस्कार दे रहे हैं और उसके बाद कंगना आज़ादी को भीख बताती हैं. इसे गहराई से समझने की ज़रूरत नहीं है, बिल्कुल कोशिश मत कीजिए. क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में आपको गहराई से जो समझाया गया है उससे टकराव पैदा हो जाएगा. शार्ट सर्किट हो सकता है. वैसे भी समझ में नहीं आएगा. ऐसे वक्त में कुछ किताबें पढ़ सकते हैं. जार्ज ऑरवेल की 1984. इसके सातवें चैप्टर का एक प्रसंग आपको रोचक लग सकता है.
'पार्टी का कहना है कि आपने आंखों से जो देखा है, कानों से जो सुना है उसे न मानें. यह उनका सबसे अंतिम और अनिवार्य हुक्म था. उसका दिल ही बैठने लगा जब उसे लगा कि कितनी बड़ी ताक़त उसके खिलाफ़ काम कर रही है, उसे तो पार्टी का कोई भी बुद्धिजीवी डिबेट में आसानी से हरा देगा, वह जब उनके महीन तर्कों को समझ ही नहीं सकेगा तो जवाब क्या देगा. इसके बाद भी वह अपनी जगह पर सही था. ग़लत वे लोग थे. जो भी सामने से दिख रहा है और सच है उसे बचाना ही होगा. सत्य को प्रमाण की ज़रूरत नहीं है. इसी पर टिके रहना है. आज़ादी का मतलब बहुत सरल है. दो और दो चार होते हैं अगर इतना भर कहने की आज़ादी है तो बाकी चीज़ें अपने आप निकल आएंगी.'
यहां दो और दो चार कहने वाले को मंच से उतार दिया जा रहा है और दो और दो पांच कहने वाले को मंच पर बिठाया जा रहा है. बात पेट्रोल और डीज़ल पर लगने वाले बेतहाशा टैक्स और महंगाई की हो रही है लेकिन उस बहस में कभी सेना तो कभी सुरक्षा तो कभी चीन तो कभी धर्म ले आ या जा रहा है. कंगना और महंगाई के सपोर्टर की तर्क शैली और प्रज्ञा ठाकुर की तर्क शैली में बहुत अंतर नहीं हैं
कभी आपने सोचा था कि 100 रुपया पेट्रोल के दाम को लोग सपोर्ट करेंगे, क्या पता यही लोग एक दिन 1947 की आज़ादी को भी नकारने आ जाएं और कहने लगें कि यहां सड़के बनी हैं, अस्पताल बने हैं इसलिए कंगना ने जो कहा वह सही है. कंगना तो पद्म पुरस्कार मिलने के बाद आज़ादी को नकार रही हैं जो आज़ाद और सार्वभौम भारत का पुरस्कार है. मुझे पता था कि आपको भीख वाली बात बुरी नहीं लगेगी. जब आप महंगाई का सपोर्ट कर सकते हैं तो इसका भी करेंगे. मैंने इस पर कार्यक्रम इसलिए किया ताकि उन लोगों से मिल सकूं जो कंगना रनौत के साथ खड़े हैं. कंगना के साथ खड़े रहने वालों को खड़े रहने दीजिए, आप जो इस वक्त बैठकर प्राइम टाइम देख रहे हैं, अब भी वक्त है, खड़े हो जाइये और ब्रेक ले लीजिए.
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