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हिंदी और उर्दू को लेकर छिड़ी बेतुकी बहस
कृपाशंकर चौबे। गीतकार जावेद अख्तर ने हिंदी-उर्दू को लेकर एक बेतुकी बहस छेड़ी है। उन्होंने उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के चुनावी नारे पर तंज कसते हुए लिखा कि 'सोच ईमानदार, काम दमदार' में तीन शब्द उर्दू के हैं। उन्होंने क्या यह साबित करने की कोशिश की है कि हिंदी का काम उर्दू के बिना संभव नहीं? क्या उर्दू का काम हिंदी के बगैर चल सकता है? क्या उर्दू का काम अरबी-फारसी के बगैर चल सकता है? क्या अख्तर भूल गए कि स्वयं उर्दू शब्द तुर्की भाषा का है। उर्दू उसी तरह दाएं से बाएं लिखी जाती है जैसे अरबी और फारसी लिखी जाती हैं। उर्दू में जो कुल 52 अक्षर हैं, वे सभी अक्षर मूलत: अरबी और अंशत: फारसी के हैं।
कोई भाषा अपनी बोलियों और दूसरी भाषाओं से प्राप्त जीवन शक्ति से ही फलती-फूलती है। आज हिंदी विश्व भाषा इसीलिए बन पाई है, क्योंकि वह अपनी बोलियों और दूसरी भाषाओं से स्नोत ग्रहण करती रही है। इसीलिए वह नीरभरी नदी बन पाई है। कबीर जब 'भाषा बहता नीर' कहते हैं तो उसका निहितार्थ यही है कि भाषा प्रवाहमयी होती है। उस प्रवाह में पड़ने से नालियों का जल भी शुद्ध हो जाता है। इसी भांति हम देख सकते हैं कि दूसरी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में इस कदर घुल-मिल गए हैं कि लगता ही नहीं कि वे दूसरी भाषा के शब्द हैं।
'अंग्रेज' शब्द फ्रेंच का है, जिसे हम बेधड़क इस्तेमाल करते हैं। 'तुरुप' डच का शब्द है, जो हिंदी में खूब चलता है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं ने पुर्तगाली से जो शब्द ग्रहण किए हैं, वे हैं-अलकतरा, अनन्नास, आलमारी, आलपिन, बाल्टी, किरानी, चाबी, फीता और तंबाकू। हिंदी ने तुर्की से जो शब्द ग्रहण किए हैं, वे हैं-आका, आगा, उजबक, कालीन, काबू, कैंची, उर्दू, तोप, तलाश, बेगम, लाश, कुली, चेचक, चमचा, चकमक, तमगा, बहादुर, मुगल, लफंगा, सुराग, सौगात।
हिंदी ने फारसी से जो शब्द ग्रहण किए, वे हैं-अफसोस, आबदार, आबरू, आतिशबाजी, अदा, आराम, आमदनी, आवारा, आवाज, आईना, उम्मीद, कबूतर, गुलाब, खामोश, खरगोश, खुश, खुराक, गुम, गवाह, गिरफ्तार, गरम, गिरह, जंग, जहर, जोर, चाबुक, चूंकि, जिंदगी, चादर, चश्मा, जादू, जान, जुर्माना, जिगर, तमाशा, तीर, दिलेर, दंगल, पलक, पुल, बीमार, नापसंद, बेहूदा, तनख्वाह, बेरहम, बहरा, दवा, नामर्द, सितारा, सितार, सरासर, मलाई, सरदार, सूद, सौदागर, मजा, रंग, पेशा, सरकार, हफ्ता, हजार, शादी, मुर्दा, जोश, तरकश।
हिंदी ने अरबी से जो शब्द ग्रहण किए हैं, वे हैं-अदावत, अजीब, अक्ल, अमीर, इज्जत, औरत, आदमी, गरीब, इस्तीफा, आदत, इलाज, खराब, किला, किस्सा, अहसान, कसम, कीमत, कसरत, कुर्सी, गैर, जाहिल, कब्र, कसर, कमाल, कातिल, जिस्म, कायदा, जलसा, इमारत, जनाब, जवाब, जिक्र, तकाजा, तारीख, तकिया, मशहूर, दुनिया, हक, वारिस, हुक्म, वकील, हमला, हवालात, दाखिल, मौका, दफा, दुआ दान, दीन, बाकी, हाल, हाशिया, दफ्तर, मुल्क, दावत।
इसी तरह कंपनी, केतली, कापी, डायरी, डिग्री, पार्टी, टाई, कैमरा, गैस, पासपोर्ट, चेन, चाकलेट, टार्च, टेलीफोन, टिकट, प्रेस, पार्सल, प्लेटफार्म, मशीन, सिगरेट, हाकी, सीमेंट, हार्मोनियम, समन, पास, फेल, बोनस, बजट, ब्रेक, मनीआर्डर, मेल, एक्सप्रेस, सिग्नल, लीज, लाइसेंस, रबर, बैंक आदि बहुत सारे शब्द अंग्रेजी से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं ने ग्रहण किए हैं। ऐसे ही हिंदी में उपन्यास, गल्प, कविराज, गमछा, रसगुल्ला, संदेश, चमचम आदि बांग्ला से आए हैं तो हड़ताल गुजराती से।
ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषाओं से हिंदी ने ही शब्द ग्रहण किए, दूसरी भाषाओं ने भी हिंदी से शब्द ग्रहण किए हैं और ऐसा कर उन्होंने संप्रेषण को प्रभावी बनाया है। दूसरी भाषा का शब्द होने पर भी अभिव्यक्ति के लिए उसकी आवश्यकता होने पर उसका प्रयोग सर्वथा उचित है। भारत सरकार ने भी जब देखा कि राजभाषा विभागों द्वारा होने वाले अनुवाद सहज संप्रेषणीय नहीं हैं तो उसने 2011 में सभी मंत्रलयों और विभागों के लिए आदेश निकाला कि सरकारी हिंदी में उर्दू, फारसी और अंग्रेजी स्नोतों के आमफहम शब्दों का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं किया जाना चाहिए।
भारत एक बहुभाषी देश है। अच्छे संप्रेषण के लिए दूसरी भाषाओं से शब्द ग्रहण कर उसका प्रयोग होता है तो जाहिर है कि इससे भाषाओं के बीच सहकार संबंध स्थापित करने में सहायता मिलती है। आपसी संवेदना का विकास होता है। भारतीय भाषाओं के बीच पहले से ही सहकार संबंध रहा है। भारत के सभी परिवारों की भाषाओं में संस्कृत शब्दावली बहुतायत में प्रयोग होती है। भारतीय भाषाओं और साहित्य के पारस्परिक आदान-प्रदान पर बल देने के बजाय 'चार में से तीन शब्द उर्दू के हैं' कहकर तंज कसना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। अख्तर का वक्तव्य सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को कमजोर करने वाला है। भाषाओं के बहुजातीय स्वरूप को क्षत-विक्षत करने वाला है। इस तरह की गांठ पारस्परिक साङोदारी और समझदारी के आड़े आती है।
कोई भाषा यदि स्वयं को हावी करने की होड़ में लगे तो इससे वह खुद को समर्थ, उपयोगी और अर्थकारी भाषा के रूप में स्थापित नहीं कर सकती। कोई भाषा अभिव्यक्ति की अपार संभावनाओं के कारण ही समर्थ बनती है। उर्दू समेत भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनना चाहिए। उर्दू के साहित्यिक महत्व और एक भाषा के रूप में बने रहने की जरूरत की बात तो ठीक है, किंतु उर्दू को केवल मुसलमानों की भाषा मानना बहुत बड़ी भूल है। इस प्रकार की सोच वैज्ञानिक दृष्टि से भी गलत है और जातीय दृष्टि से भी।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)
उर्दू के प्रयोग को लेकर जावेद अख्तर का तंज सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को कमजोर करने वाला है
बयान के बाद निशाने पर आए जावेद अख्तर। फाइल
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