सम्पादकीय

आवश्यकता है सधे कदम बढ़ाने की, नए भारत का निर्माण और सुभाष चंद्र की विचारभूमि

Gulabi
31 Jan 2022 6:01 AM GMT
आवश्यकता है सधे कदम बढ़ाने की, नए भारत का निर्माण और सुभाष चंद्र की विचारभूमि
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नए भारत का निर्माण और सुभाष चंद्र की विचारभूमि
सन्‍नी कुमार। यह इतिहास को व्यस्त रखने वाला समय है। ऐतिहासिक प्रक्रियाओं और उसके भागीदारों को लेकर यह दौर काफी सक्रिय है। इसलिए ही विगत 23 जनवरी को जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती मनाई गई और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंडिया गेट परिसर में नेताजी की एक विशेष प्रतिमा का अनावरण किया, तो बोस और तत्कालीन परिस्थितियों पर पुन: विमर्श प्रारंभ हो गया। स्वयं में यह एक पेचीदा विषय है, क्योंकि दिलचस्प ढंग से परस्पर विरोधी विचार के लोग बोस को 'अपना- कहते हैं
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रिय निर्मिति कुछ इस प्रकार की है कि वह एक ही संदर्भ में दो अलग छोर पर नजर आते हैं। इस सूत्र कथन को विस्तार दें तो बोस की एक छवि अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले राष्ट्रभक्त और इस बलिदान के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र के आपसी संबंधों से निर्मित हुई है, तो दूसरी छवि बोस द्वारा अपनाए जा रहे 'बलिदान के तरीकों- की आलोचना से बनी है। अर्थात एक तरफ के सुभाष वर्दी पहने, सीना ताने, कुशाग्र बुद्धि वाले एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने राष्ट्र के लिए सबकुछ न्यौछावर कर दिया तो दूसरी तरफ के सुभाष 'भटके हुए देशभक्त- हैं। एक सुभाष की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में नहीं हुई है तथा 'आध्यात्मिक सुभाष- के रूप में वह भारत में रहे हैं तो दूसरे सुभाष 18 अगस्त, 1945 को काल-कवलित हो चुके हैं।
संभावनाओं के आधार पर एक सुभाष की कल्पना ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में की जाती है जो नेहरू से बेहतर साबित होते तो वहीं दूसरी तरफ के सुभाष को गैर-लोकतांत्रिक व्यक्ति के रूप में चिन्हित किया जाता है। ऐसी कुछ और श्रेणियों का इस्तेमाल किया जा सकता है, किंतु इतिहास की समझदारी यही कहती है कि 'यह या वह- की शैली से निकला निष्कर्ष समावेशी नहीं होता। हमें किसी व्यक्तित्व का मूल्यांकन समग्रता से करना चाहिए। और जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो बेहतर यही होगा कि हम बोस के योगदान को इस रूप में देखें कि नए भारत के निर्माण में वह हमें कौन सी राह दिखाते हैं। यानी 21वीं सदी के हिंदुस्तान के लिए बोस किस रूप में प्रासंगिक हैं।
बोस और आर्थिक, वैज्ञानिक उन्नति का विचार : इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि आर्थिक रूप से सक्षम होना किसी भी राष्ट्र की बुनियादी चाह होती है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि इसकी प्राप्ति के लिए क्या बोस के पास कोई आर्थिक माडल था और क्या वह अर्थनीति आज भी प्रासंगिक है? वर्ष 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में दिए गए अध्यक्षीय भाषण से बोस के आर्थिक विचारों का पता चलता है जहां वह विस्तार से 'आर्थिक पुनर्संगठन- का खाका प्रस्तुत कर रहे थे। चूंकि बोस एक गुलाम समय से स्वतंत्र देश की अर्थव्यवस्था पर विचार कर रहे थे इसलिए गरीबी उन्मूलन उनकी अर्थनीति के केंद्र में था। उपनिवेशवादी आर्थिक शोषण के उपरांत देश की 'प्रधान समस्या- के रूप में बोस गरीबी को चिह्नित करते हैं। इसके निवारण के रूप में वह भूमि सुधार, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, कृषि सुधार व औद्योगिक विकास पर बल देते हैं। कहना न होगा कि गरीबी आज भी प्रधान समस्या है और जिस आर्थिक असमानता को दूर करने की बात बोस कर रहे थे वह आज कहीं अधिक जटिल समस्या बन गई है।
बोस दो रूपों में आर्थिक सुधार की बात करते हैं। पहला कृषि सुधार और दूसरा औद्योगिक विकास। कृषि सुधार के लिए सस्ते कर्ज की व्यवस्था, उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत और वैज्ञानिक कृषि की आवश्यकता तथा इसे सहकारी आंदोलन से जोड़कर आय संवर्धन करना बोस के आर्थिक सिद्धांत की बुनियाद है। साथ ही वह कहते हैं कि कृषि विकास आवश्यक तो है, किंतु यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। इसके साथ वह औद्योगिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने की बात भी करते हैं। इसके लिए वह राज्य आधारित औद्योगिक विकास माडल की वकालत करते हैं। ऐसा नहीं है कि सुभाष चंद्र औद्योगिक विकास की चुनौतियों से नावाकिफ थे, किंतु उनका मानना था कि 'हम पूर्व-औद्योगिक युग में नहीं लौट सकते, भले ही हम ऐसा करना भी चाहें।- इस कथन के पीछे बोस का आशय यही था कि नए समय के अनुकूल आर्थिक विकास के उपायों को अपनाने से हिचकना नहीं चाहिए। हां, इतना जरूर ध्यान रखना चाहिए कि ये सभी उपाय अधिकतम सीमा तक बुराइयों से मुक्त हों। इसके अतिरिक्त, सुभाष चंद्र यह भी स्पष्ट कर रहे थे कि कुटीर उद्योग तथा बड़े उद्योग परस्पर विरोधी नहीं हैं, बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक हैं। उनका मानना था कि भारत के सर्वांगीण विकास के लिए कुटीर उद्योग पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। इन विचारों को यदि आज की कसौटी पर परख कर देखें तो निश्चित ही ये वर्तमान और भविष्य के लिए मार्गदर्शक प्रतीत होती हैं।
बोस वैज्ञानिक सूझबूझ और प्रौद्योगिकी विकास से युक्त राष्ट्र निर्माण के पक्षधर थे। इस संदर्भ में एक रोचक प्रसंग का उल्लेख करना समीचीन होगा। अगस्त, 1938 में 'द इंडियन साइंस न्यूज एसोसिएशन- ने अपनी बैठक में सुभाष चंद्र बोस को आमंत्रित किया था। वहां प्रसिद्ध विज्ञानी मेघनाद साहा ने बोस से प्रश्न किया, 'क्या भविष्य का भारत भी ग्रामीण जीवन को पुनर्जीवित करने और बैलगाड़ी से चलने वाला ही होगा या फिर वह एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र होगा।- प्रत्युत्तर में बोस ने आधुनिक राष्ट्र की आवश्यकता को स्वीकार किया और कहा कि राजनीति और विज्ञान के सहयोग से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही उन्होंने तकनीकी शिक्षा पर भी बल देने की बात कही। राष्ट्रीय शोध परिषद की आवश्यकता के प्रति भी सहमति जताई तथा साहा की पत्रिका 'साइंस एंड कल्चर- में ऊर्जा आपूर्ति, बाढ़ नियंत्रण व नदी भौतिकी विषयों पर प्रकाशित लेख की प्रशंसा की। यह दर्शाता है कि बोस एक राष्ट्र निर्माण में विज्ञान की भूमिका को लेकर कितने सजग थे। राजनीति की यह सजगता निश्चित ही अब कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
जनसंख्या नियंत्रण : आमतौर पर बोस के इस पक्ष पर कम बात होती है, किंतु बड़ी रोचक बात है कि वह तत्कालीन भारत के उन गिने-चुने प्रभावशाली व्यक्तियों में थे, जिन्होंने नीतिगत रूप से जनसंख्या नियंत्रण की बात की थी। यद्यपि उन्होंने इस प्रश्न की सैद्धांतिकी पर विचार नहीं किया कि तत्कालीन भारत की जनसंख्या अधिक है या नहीं, पर इस पक्ष पर उनकी सहमति थी कि राष्ट्रीय संसाधनों के अनुरूप ही जनसंख्या का आकार होना चाहिए। अगर हम जीवित सभी व्यक्तियों के लिए बेहतर जीवन सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा सकते तो हमें जनसंख्या वृद्धि को जरूर नियंत्रित करना चाहिए, ऐसा बोस का मानना था। इस संदर्भ में भी हम कह सकते हैं कि भविष्य के भारत के लिए बोस एक जरूरी सूत्र सुझाते हैं।
बोस राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की सशक्त और स्पष्ट भूमिका के हिमायती थे। तत्कालीन राजनीति में जहां एक ओर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को सीमित अर्थों में देखा जाता था, वहां बोस ने महिलाओं को बराबर की समानांतर शक्ति के रूप में स्वीकार किया। इसलिए जब आजाद हिंद फौज में उन्होंने लगभग एक हजार सैनिकों की महिला रेजिमेंट बनाई तो उसका नाम 'रानी लक्ष्मीबाई- रेजिमेंट रखा। जाहिर तौर पर यह एक योद्धा और आत्मनिर्भर स्त्री का प्रतीक था जो युद्ध कौशल को 'पुरुषोचित- गुण मानने का स्पष्ट प्रतिकार था। इतना ही नहीं, जब बोस ने आजाद हिंद सरकार बनाई तो उसमें पृथक रूप से महिला विभाग का गठन किया, जिसमें स्वास्थ्य और कल्याण जैसे विभाग भी शामिल थे। बोस ने महिलाओं की शिक्षा के लिए राज्य को विशेष प्रयास करने की नीति पर सहमति जताई। आजाद हिंद फौज से इतर भी देखें तो अपनी तरह के पहले महिला संगठन 'महिला राष्ट्रीय संघ- के निर्माण को भी बोस ने प्रोत्साहित किया था। आज अधिकार आधारित जिस स्त्रीवाद की बात की जाती है बोस ने भी उसी संकल्पना का समर्थन किया था।
समाज और संस्कृति संबंधी विचार % एक प्रगतिशील सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में बोस के विचार एकदम स्पष्ट थे। समाज में हाशिये के लोगों के उत्थान को लेकर वह काफी सजग थे। छुआछूत तथा जाति प्रथा जैसी बुराइयों के विरुद्ध उन्होंने 'संपूर्ण स्वतंत्रता- की बात की। अर्थात स्वतंत्रता का अर्थ केवल राजनीतिक आजादी नहीं, बल्कि सामाजिक बराबरी तथा आर्थिक उत्थान भी है। इसका व्यावहारिक रूप आजाद हिंद फौज की संरचना में भी देखने को मिलता है जहां सैन्य नियुक्ति जातिगत भेदभाव से परे थी। यह बात उस समय के लिए आश्यर्यजनक थी, क्योंकि एक तरफ जहां अंग्रेज 'नस्लीय आधार- पर स्तरीकरण करते थे, वहीं भारतीयों में भी 'जातिगत आधार- सेना में हावी था। सुभाष चंद्र बोस ऐसे भेदभाव की समाप्ति के पक्षधर थे। दूसरी ओर सांस्कृतिक भारत के संबंध में भी बोस के विचार स्पष्ट थे। उनका मानना था कि एकीकृत भारत की स्थापना के लिए यह अनिवार्य है कि शासन व्यवस्था में सामुदायिक विविधता का सम्मान किया जाए। सामुदायिक एकता को भाषायी सूत्र से मुकम्मल करने के लिए वह 'हिंदुस्तानी- भाषा के पक्षधर थे। हालांकि भाषा और लिपि को लेकर वह बहुत स्पष्ट रूप से कुछ तय नहीं नहीं कर पा रहे थे, किंतु सामुदायिक सद्भाव के प्रति उनकी निष्ठा असंदिग्ध थी। कुछ इतिहासकार गांधी के खिलाफत प्रयोग की तुलना बोस द्वारा 'हालवेल स्मारक- को नष्ट करने से करते हैं। इन प्रयोगों के परिणाम के संबंध में मतभिन्नता हो सकती है, किंतु यह कह सकते हैं बोस ने राष्ट्रीय एकीकरण में अपनी पूरी ऊर्जा झोंकी थी। यहां इस बात को भी समझने की आवश्यकता है कि बोस भारत की सांस्कृतिक निरंतरता के प्रति आदर रखते हुए सामुदायिक सद्भाव की बात कह रहे थे।
बोस कहते हैं कि भारत की निर्मिति कोई दशकों या सदियों पूर्व की नहीं है, बल्कि यह हजारों वर्षों का इतिहास है। बोस के विचार में भारत की सांस्कृतिक विविधता कभी भी समस्या नहीं रही है। भारत के एकीकरण में बोस हिंदू धर्म को सबसे महत्वपूर्ण कारक मानते हैं। वह कहते हैं कि भारत के प्रत्येक हिस्से में हिंदू एक समान धार्मिक विश्वास, संस्कृति व प्रथाओं का अनुसरण करते हैं और भारत को अपना पवित्र भूमि मानते हैं। मुस्लिम मत के प्रश्न पर बोस कहते हैं कि यद्यपि इसके बाद नए किस्म के कला-संस्कृति का विकास हुआ, किंतु मूल रूप से वे भारतीय ही हैं। साथ ही बोस का यह भी मानना था कि भारत को अपनी सांस्कृतिक विरासत से विश्व को परिचित कराने के लिए सक्रिय प्रयास करने चाहिए। एक समावेशी समाज निर्माण की दिशा में बोस के विचार महत्वपूर्ण हैं।
अंत में यह कहा जा सकता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की विचारभूमि में ऐसी अनेक राहें हैं जिनसे भविष्य के भारत की ओर बढ़ा जा सकता है। आवश्यकता है सधे कदम बढ़ाने की, सुंदर भारत के निर्माण में भूमिका निभाने की। बोस भी यही चाहते थे।
( लेखक इतिहास के अध्‍येता हैं )
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