सम्पादकीय

OROP के फैसले से सशस्त्र बलों के नाराज होने के कई कारण हैं

Rani Sahu
21 March 2022 11:38 AM GMT
OROP के फैसले से सशस्त्र बलों के नाराज होने के कई कारण हैं
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यूक्रेन पर रूसी आक्रमण (Russia-Ukraine War) की तस्वीरों को जब हम टेलीविजन पर देखते हैं

दीपक सिन्हा

यूक्रेन पर रूसी आक्रमण (Russia-Ukraine War) की तस्वीरों को जब हम टेलीविजन पर देखते हैं तो यूक्रेनी सेना ने जिस तरह से इस हमले का जवाब दिया है वह निस्संदेह ही चकित करने वाला है. गौरतलब है कि रूस का सशस्त्र बल यूक्रेन से करीबन साढ़े चार गुना ज्यादा बड़ा है. लाजिमी है कि युद्ध के मैदान में जनशक्ति और मनोबल की गुणवत्ता ही मायने रखती है. तभी तो तीन सप्ताह के बाद भी रूसी सेना किसी भी महत्वपूर्ण शहर पर कब्जा नहीं कर पाई है. बहरहाल, यहां भारत में वन रैंक वन पेंशन (OROP) मामले पर फैसले से सेना नाखुश है और इसके कई कारण हैं. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट पिछले तीन साल से अधिक समय से इस मामले की सुनवाई कर रहा है. तीन न्यायाधीशों की बेंच, जिसकी अगुवाई न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ कर रहे हैं, ने कहा, "हमें पेंशन योजना के कार्यान्वयन पर 7 नवंबर, 2015 के सरकार के कम्युनिकेशन में परिभाषित OROP सिद्धांत में कोई संवैधानिक कमी नहीं मिली है." इस फैसले के नतीजों पर चर्चा करने से पहले, OROP का एक संक्षिप्त विवरण जरूरी है ताकि इसमें शामिल मुद्दों को पाठक बेहतर ढंग से समझ सकें.
युवा सेना की आवश्यकता
ओआरओपी की जरूरत उस सरल अवधारणा पर आधारित है जिसके तहत हमें एक युवा सेना की आवश्यकता होती है. एक युवा सेना ही अत्यधिक कठिन परिस्थितियों में काम कर सकती है और बिना किसी विफलता के जीत की गारंटी भी दे सकती है. इस प्रकार, लगभग 88% सैन्य कर्मी 35 से 37 वर्ष की आयु के बीच सेवानिवृत्त होते हैं, और जो बचे हुए हैं उनमें से 90%, 54-56 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं. उन्होंने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ वर्ष दिया है और नौकरी छोड़ने के बाद अक्सर उन्हें रोजगार के नए अवसर मुश्किल से मिलते हैं. फिर 10 सदस्यीय कोश्यारी संसदीय समिति ने ओआरओपी को परिभाषित करते हुए कहा कि इसका उद्देश्य पिछले और वर्तमान पेंशनभोगियों के बीच दरों में अंतर को पाटना था.
कमिटी ने यह भी नोट किया कि सेना में सेवा की समानता के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं. एक रैंक और दूसरी सेवा की अवधि. साधारणतया रैंक भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है और सेवा के लोकाचार के अनुरूप कमान, नियंत्रण और जिम्मेदारी का प्रतीक है. रैंक को संविधान ने मान्यता दिया हुआ है और यही वजह है कि सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्हें अपने रैंक को बनाए रखने की अनुमति मिलती है. इसलिए, स्टेटस की समानता सुनिश्चित करने के लिए, समान रैंक और समान सेवा अवधि वाले सभी कर्मियों को समान पेंशन मिलनी चाहिए, चाहे उनकी सेवानिवृत्ति की तारीख कुछ भी हो.
ओआरओपी का एक कमजोर संस्करण
इस परिभाषा को संसद ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया और तत्कालीन सरकार ने भी 2014 के आम चुनावों से ठीक पहले इस आशय का एक सरकारी आदेश जारी किया था. हालांकि, जब इसके पूर्ण कार्यान्वयन की बात आई तो मोदी सरकार उससे मुकर गई जबकि संसद में उन्होंने इसे स्वीकार किया था. बहरहाल , संसद में ओआरओपी के स्वीकृत मानदंडों के विपरीत उन्होंने ओआरओपी का एक कमजोर संस्करण प्रदान किया. बहरहाल, सेवानिवृत्त फौजी समुदाय की निरंतर आपत्तियों के मद्देनज़र केंद्र सरकार ने पटना उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एल नरसिम्हा रेड्डी की अध्यक्षता में एक सदस्यीय समिति नियुक्त की. उन्हें उन विसंगतियों , यदि कोई हो, का पता लगाना था जो ओआरओपी के कार्यान्वयन के दौरान उत्पन्न हो सकती है. ओआरओपी समिति ने 25 अक्टूबर 2016 को सरकार को अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कीं, जिन्हें अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है. नतीजतन, फौज के वेटरन समुदाय को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
ये एक हकीकत है कि हम में से अधिकांश न्यायिक प्रक्रिया की पेचीदगियों से विशेष रूप से परिचित नहीं होते हैं फिर भी यह कहा जा सकता है कि वर्तमान निर्णय उसी न्यायालय के पहले के फैसले के विपरीत प्रतीत होता है. इसने 9 सितंबर 2008 को यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मेजर जनरल एसपीएस वेन्स और अन्य के मामले में फैसला सुनाया था कि "रैंक में कोई भी वरिष्ठ रक्षा कार्मिक अपने कनिष्ठ से कम पेंशन प्राप्त नहीं कर सकता है चाहे उनकी सेवानिवृत्ति की तारीख कुछ भी हो. और इसी तरह समान रैंक वाले अधिकारियों को समान पेंशन दी जानी चाहिए चाहे उनकी सेवानिवृत्ति की तारीख कुछ भी हो."
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का आदेश
इसके बाद साल 2014 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम ने निर्देश दिया कि "संवैधानिक कार्यालयों के लिए एक रैंक एक पेंशन ही मानक होना चाहिए." ये निर्देश उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के पेंशन में विसंगतियों को ठीक करने के संदर्भ में था जिसका फायदा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी उठा रहे थे. इसी तरह, इसी सरकार ने 2018 में, "द सैलरी अलाउंस एंड पेंशन ऑफ मेंबर्स एक्ट, 1954" के क्लॉज 8 ए में संशोधन किया, ताकि हर पांच साल में सांसदों की अधिकृत पेंशन को मौजूदा मुद्रास्फीति सूचकांक के आधार पर बढ़ाया जा सके. इस तरह सभी पूर्व सदस्यों के लिए वही पेंशन सुनिश्चित किया गया जो मौजूदा पदाधिकारी को मिल रहा है.
हमारी नौकरशाही ने हमेशा बढ़-चढ़ कर नेतृत्व दिया है और जाहिर है कि अपने कलम की चतुराई दिखाते हुए 2006 की शुरुआत में ही खुद को ओआरओपी से सम्मानित कर लिया था. छठे केंद्रीय वेतन आयोग ने तब अखिल भारतीय और ग्रुप ' ए ' सेवा समूह के लिए सरकारी नियमों में दो सरल बदलाव करके Non-Functional Financial Upgrade ( NFFU ) की सिफारिश की थी. सबसे पहले, अखिल भारतीय और संगठित Group 'A' सेवाओं को SAG और HAG स्तर तक Non-Functional (गैर-कार्यात्मक) आधार पर उच्च वेतनमान का अनुदान दिया गया था. यह पदोन्नति संगठनात्मक आवश्यकताओं , रिक्तियों की उपलब्धता और जिम्मेदारी के स्तर या किसी पद के नियंत्रण की अवधि से स्वतंत्र थी. ये एक ऐसी व्यवस्था थी जिसकी मिसाल दुनिया में कहीं भी नहीं देखी जा सकती थी …. चाहे सरकार या कॉर्पोरेट प्रशासन का क्षेत्र हो.
HAG + का एक नया वेतन ग्रेड
दूसरे, इसने HAG + का एक नया वेतन ग्रेड बनाया जो Apex Grade के साथ मिलकर सभी उद्देश्यों के लिए एक टाइम स्केल बन गया, जिससे ओआरओपी का लाभ पूरे जीवन के लिए सुनिश्चित हो गया. बेशक , HAG+ की शुरुआत करके नौकरशाही ने यह भी सुनिश्चित किया कि सेना के शीर्ष अफसरों को कवर किया जाय जिससे ओआरओपी पर सरकार की नीति पर किसी तरह की आपत्ति नहीं उठाई जा सके. अखिल भारतीय और संगठित ग्रुप 'ए' सेवाओं के कर्मचारियों के एचएजी+ रैंकों में बड़े पैमाने पर अप-ग्रेडेशन ने यह सुनिश्चित किया कि एक विशाल संख्या अब उच्चतम वेतनमान पर सेवानिवृत्त होता है. इसके बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) के लिए एनएफएफयू को स्वीकृत किया गया था . दिल्ली उच्च न्यायलय ने सरकार के उस फैसले को रद्द कर दिया था जिसके तहत सीएपीएफ के अधिकारियों को एनएफएफयू नहीं देने का फैसला किया गया था क्योंकि सरकार के मुताबिक उन्हें एक संगठित सेवा नहीं माना जा सकता है.
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि ये वही मुद्दे हैं जिन्हें सेवारत और सेवानिवृत सैन्य समुदाय लगातार मांग कर रहे हैं. स्पष्ट रूप से हमारे संवैधानिक प्राधिकारियों के लिए समान परिस्थिति में रहने वाले दो व्यक्तियों के लिए अलग अलग मापदंड होते हैं … और ये पाखंड न सिर्फ जीवित है बल्कि अच्छी तरह से फल-फूल रहा है ! अपने कार्यों से सरकार ने जीत तो हासिल की है लेकिन इसमें खोया ज्यादा है और पाया कम ही है. इन फैसलों की वजह से सेना तेजी से अनाकर्षक कैरियर बनती जा रही है और उस तरह के गुणवत्ता पर आधारित अधिकारियों को आकर्षित नहीं करती है जिसके बदौलत युद्ध के मैदान पर हमें जीत की गारंटी मिल सके. यह वास्तव में हम सभी के लिए एक गंभीर नुकसान होगा.
Rani Sahu

Rani Sahu

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