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वैश्विक सलाहकार फर्म कुशमैन एंड वेकफील्ड की एक हालिया रपट के अनुसार, भारत अमरीका को पछाड़ता हुआ दुनिया में मैनुफैक्चरिंग गंतव्य की सूची में तीसरे स्थान से बढ़ता हुआ
वैश्विक सलाहकार फर्म कुशमैन एंड वेकफील्ड की एक हालिया रपट के अनुसार, भारत अमरीका को पछाड़ता हुआ दुनिया में मैनुफैक्चरिंग गंतव्य की सूची में तीसरे स्थान से बढ़ता हुआ दूसरे पायदान पर पहुंच गया है. चीन इस मामले में अभी भी पहले स्थान पर है. अमेरिका के बाद कनाडा, चेक गणराज्य, इंडोनेशिया, लिथुआनिया, थाईलैंड, मलेशिया और पोलैंड क्रमशः चौथे से दसवें स्थान पर हैं.
इसका अर्थ यह है कि अब अमेरिका सहित दूसरे मुल्कों की तुलना में भारत दुनिया का पसंदीदा मैनुफैक्चरिंग हब बन रहा है. इसकी वजह भारत की परिस्थितियां और लागत प्रतिस्पर्धा अनुकूलता मानी जा रही है. गौरतलब है कि भारत लगातार वैश्विक आउटसोर्सिंग आवश्यकताओं की सफलतापूर्वक पूर्ति करते हुए साल दर साल रैकिंग में आगे बढ़ रहा है. इस रैंकिंग में चार मुख्य मापदंडों को शामिल किया जाता है- देश की मैनुफैक्चरिंग पुनः प्रारंभ करने की क्षमता, बिजनेस परिवेश, परिचालन लागत और जोखिम (जिसमें राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय जोखिम भी शामिल हैं).
अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध एवं कोरोना काल में बदली परिस्थितियों के कारण बड़ी संख्या में कंपनियां चीन से भारत सहित विभिन्न एशियाई देशों में स्थानांतरित हो रही हैं. 'कुशमैन और वेकफील्ड' के अनुसार, भारत की रैंकिंग बढ़ने का यह एक प्रमुख कारण है. बीते एक साल में चीन से विमुख होती दुनिया और भारत के प्रति उसके बदलते रुख के चलते देश में मैनुफैक्चरिंग के नये आयाम खुलने की संभावनाएं बढ़ रही हैं.
इसे अब दुनियाभर की एजेंसियां भी मानने लगी हैं. गौरतलब है कि पिछले छह-सात वर्षों में भारत में इज ऑफ डूईंग बिजनेस भी बेहतर हुआ है. विश्व बैंक के आकलन के अनुसार, भारत 2014 में 142 से आगे बढ़ता हुआ अब 63 रैंक पर पहुंच चुका है. इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सब कुछ भारत के अनुकूल हो गया है, पर यह भी सत्य है कि राजनीतिक व आर्थिक स्थिरता, आर्थिक संस्थाओं एवं नियामक प्राधिकरणों की मजबूत स्थिति, प्रतिभावान व सस्ते श्रम की उपलब्धता आदि भारत को मैनुफैक्चरिंग में एक पसंदीदा देश बना रही हैं.
देश में तीन प्रकार की आर्थिक गतिविधियां संचालित होती हैं- कृषि एवं सहायक गतिविधियां, औद्योगिक गतिविधियां और सेवा गतिविधियां. कृषि क्षेत्र में पहले से ही बड़ी मात्रा में श्रम शक्ति लगी हुई है और इस क्षेत्र में उत्पादकता बहुत कम है. इसलिए माना जाता है कि इस क्षेत्र से श्रम शक्ति को कम कर उसे अधिक उत्पादक क्षेत्रों में भेजना आर्थिक विकास के लिए लाभकारी होगा. लेकिन यह तभी संभव होगा, जब दूसरी गतिविधियों में रोजगार के अवसर बढ़ें. पिछले कुछ समय से सेवा क्षेत्र का दायरा बढ़ा है.
जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ने के बावजूद रोजगार उस अनुपात में नहीं बढ़ा. ऐसे में रोजगार बढ़ाने का सबसे अहम तरीका औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार विस्तार है. दुनियाभर में मैनुफैक्चरिंग रोजगार का महत्वपूर्ण स्रोत है तथा शेष गतिविधियों की तुलना में इसमें अतिरिक्त रोजगार की संभावनाएं काफी अधिक होती हैं. अधिक रोजगार के कारण मैनुफैक्चरिंग के माध्यम से आय के अधिक स्रोत उत्पन्न होते हैं.
उदाहरण के लिए, वाहन उत्पादन आज कुल मैनुफैक्चरिंग उत्पादन का 49 प्रतिशत से भी अधिक है. इस उत्पादन में बड़ी संख्या में सहायक उद्योगों का सृजन हुआ है, साथ ही बिक्री केंद्र और अन्य सहायक गतिविधियों से बड़ी मात्रा में उद्यमों का निर्माण भी संभव हुआ. इससे न केवल रोजगार मिला, बल्कि देश इस क्षेत्र में पूरी तरह आत्मनिर्भर भी हो गया. आज भारत बड़ी मात्रा में वाहन उत्पादों का निर्यात भी कर रहा है.
पिछले 20 सालों में चीन से असमान प्रतिस्पर्धा, चीन के अनैतिक हथकंडों के कारण देश का मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. अनेक उद्योग-धंधे बंद हुए और बेरोजगारी में वृद्धि हुई. कोरोना काल में भारत समेत संपूर्ण विश्व में चीन के प्रति नाराजगी भी बढ़ी है और देशों में आत्मनिर्भरता की नयी इच्छा भी जागृत हुई है. भारत सरकार द्वारा इस लक्ष्य को लेकर कई उपाय किये जा रहे हैं. सरकारी खरीद में भारत में निर्मित वस्तुओं को प्राथमिकता की नीति तो पिछले चार-पांच साल से चल ही रही थी, अब सरकार द्वारा भारत में मैनुफैक्चरिंग को पुनर्जीवित करने के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना भी घोषित की गयी है, जिसमें लगभग दो लाख करोड़ रुपये का आवंटन अगले कुछ वर्षों के लिए हुआ है.
चीन से आयातों को रोकने के लिए आयात शुल्क बढ़ाये जा रहे हैं, एंटी डंपिंग शुल्क भी लगाये जा रहे हैं और गैर-टैरिफ उपायों को भी लागू किया जा रहा है. आयात कम करते हुए देश में उत्पादन बढ़ाने की नीति को संरक्षणवादी कहकर बदनाम करने की कोशिश भी होती है, लेकिन हमें समझना होगा कि यदि आज वाहन क्षेत्र भारत की मैनुफैक्चरिंग का सिरमौर है, तो उसका श्रेय इस क्षेत्र को ऊंचे टैरिफ के रूप में मिले सरकारी संरक्षण को ही जाता है.
यदि ऐसा कर विदेशी वाहन उत्पादों को रोका नहीं जाता, तो इस क्षेत्र का विकास संभव नहीं था. सरकारी उपायों के कारण आज देश में फार्मा उत्पादों के लिए कच्चे माल, विभिन्न रसायनों, इलेक्ट्रॉनिक, टेलीकॉम, खिलौनों, मशीनरी समेत अनेक औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए वातावरण अनुकूल बन रहा है. इससे देशी-विदेशी उत्पादक आकर्षित हो रहे हैं और शायद इस कारण अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भारत को मैनुफैक्चरिंग के लिए एक बेहतर गंतव्य के रूप में देख रही हैं.
देश में मैनुफैक्चरिंग में एक नया आयाम जुड़ने जा रहा है- इलेक्ट्रिक वाहनों का उत्पादन. पेट्रोल और डीजल वाहनों के कारण पर्यावरण को काफी नुकसान होता है और देश पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर अधिक से अधिक निर्भर होता जाता है. आज हमारे आयात बिल का एक तिहाई कच्चा पेट्रोलियम तेल ही है. ऐसे में इलेक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने की कोशिश जारी है. टेस्ला सरीखी इलेक्ट्रिक कार निर्माण कंपनियां भारत सरकार पर दबाव बना रही हैं कि ऐसे वाहनों पर आयात शुल्क घटाकर उन्हें तैयार कारें आयात करने की अनुमति मिले.
इससे जोखिम यह है कि भारत की विदेशों पर निर्भरता बढ़ सकती है. सो, इलेक्ट्रिक वाहनों के घरेलू उत्पादन बढ़ाने के हर संभव प्रयास करने की जरूरत होगी, जिसमें खरीद पर सब्सिडी, कल-पुर्जे बनानेवाले उत्पादकों को सहायता, अतिआवश्यक आयातित कल-पुर्जों के लिए आयात शुल्क में छूट आदि जैसे उपाय मददगार हो सकते हैं.
क्रेडिट बाय प्रभात खबर
Rani Sahu
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