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हमें कलियुगी हिंदू मनोविज्ञान की चीर-फाड़, ऑटोप्सी से समझना होगा कि
हमें कलियुगी हिंदू मनोविज्ञान की चीर-फाड़, ऑटोप्सी से समझना होगा कि हमने इतने देवी-देवता क्यों तो बनाए हुए हैं और इतनों को पूजते हुए भी क्यों नहीं उनका आशीर्वाद है?…सोचें इतने करोड़ देवी-देवता और जीवन का हर चक्र उन्हें समर्पित बावजूद इसके कलियुगी हिंदू 'चित्त' अकेले इस सूत्र का काला धागा बांधे हुए है कि सब भाग्य-नियति का नतीजा!
कलियुगी भारत-10: पता नहीं किस मोड़ पर हिंदुओं के 33 करोड़ देवी-देवताओं का कलियुगी शिलालेख बना। मैं इसे मृत्यु दर घटाने और भारत में जनसंख्या विस्फोट वाली बीसवीं सदी के विज्ञान से पहले का मोड़ मानता हूं। कलियुग में हिंदुओं का एक वह वक्त था, जब जितने बच्चे पैदा होते थे उसमें से ज्यादातर मर जाते थे। मुगल काल से अंग्रेजों के वक्त में हिंदुस्तान की आबादी का आंकड़ा दस से पैंतीस करोड़ के बीच अनुमानित है। मेरा मानना है अंग्रेज लोग आबादी, धर्म, रहन-सहन के अधिक जिज्ञासु थे तो उन्हीं ने 18वीं सदी में तुक्का बनाया कि जितने हिंदू उतने भगवान! अंग्रेजों के 18वीं सदी के बनारस वृतांत में यह आश्चर्य है कि जिधर जाओ उधर देवी-देवता और मूर्तियां। आज भी जब जिंदा साधु-संत-प्रवचक अपने को भगवान बताते हुए हैं तो दो सौ साल पहले पीर, बाबा, संत, साधु, मठाधीश, प्रवचक सब अंग्रेज जिज्ञासुओं को मूर्तियों के साथ आराध्य समझ आए होंगे। तभी ख्याल बना कि, जितने हिंदू उतने या उससे दोगुने 33 करोड़ देवी-देवता।
ठीक विपरीत कल्पना करें ऋग्वेद के सतयुगी वक्त की। न ईश्वर, न मूर्ति और अधिकांश निराकार उपासक। पूजा में सूर्य, वायु, इंद्र आदि प्रकृति देवताओं को आह्वान। जिस मिट्टी, हवा, पानी के पंचतत्वों से शरीर की काया बनी है उसके कौतुक, और जिंदगी के अनुभवों में तूफान, आंधी, बारिश जैसी मुश्किलों से बचने, उन्हें साधने के लिए दिल-दिमाग-बुद्धि के 'चित्त' से मंत्र, श्लोक, वेदों की रचना हुई। एक तरफ 33 करोड़ देवी-देवताओं का अतार्किक कलियुगी हिंदू अस्तित्व तो दूसरी तरफ बुद्धि, सत्य, प्रकृति-जीवन के अनुभव वाला सतयुग! तभी भरतवंशियों के जीवन धर्म का सतयुग से कलियुग का यह ट्रांसफर अजूबा है कि जितने लोग उतने देवी-देवता! फिर आलम यह कि न 33 करोड़ देवी-देवता और न भक्त गरिमा पाए हुए और न बतौर मनुष्य शरीर की काया बुद्धि, ब्रह्म से जीवन को भोगने में समर्थ!….. गौर करें फ्रांसिसी कार्टून पत्रिका के महामारी में हिंदुओं की दशा के उस कार्टून पर, जिसमें सवाल है इतने! 33 करोड़ देवी-देवता लेकिन ऑक्सीजन भी नहीं!…
फिर एक बार मूल सनातनी मान्यता अनुसार जानें कि शरीर-जीवन की निज चेतनता 'दिल-दिमाग' से बने 'चित्त' से है। 'चित्त' ख्यालों की हलचल याकि 'वृत्ति' मतलब तर्क-विचार-भावना लिए होता है। इनकी तीन पटरियों से गति है। इसका धड़कना मानस, अहंकार और बुद्धि की तीन पटरियों से है। मानस मतलब अंतर्मन जो स्मृति-अनुभूति-सेंसरी प्रोसेस से है। अहंकार मतलब अपने आपका बोध, अपनी पहचान, अपने होने का गुमान। बुद्धि का अर्थ सत्य-कल्पना में फैसले, निर्णय।
इस नाते हिंदू शरीर की जैविक चीरफाड़ से पतन के जैसे कारण हैं वैसे मनोविज्ञान ऑटोप्सी का यह निचोड़ बनता है- मानसः गुलाम, भयाकुल, पराश्रित। अंहकारः स्वकेंद्रित, निज अहमियत, घमंड, दंभ, सर्वज्ञता। बुद्धिः जड़, अतीत में अटकी, अमौलिक-रट्टा मार-स्मृति से ख्याली।
ईमानदारी से दिल पर हाथ रख कर सोचें कि सन 2020-21 के महामारी काल में हिंदू मानस और उसका नेतृत्व 'वृति' में क्या ऐसा ही प्रमाणित नहीं है?
अंत में मेरे, आपके याकि आम हिंदू के शरीर-जीवन की ईकाई की धड़कन की निज चेतनता के पर्याय 'चित्त' की चीरफाड़ का निष्कर्ष बनेगा- सुषुप्त, अंतहीन नींद, हाइबरनेशन, कलियुगी ग्रहण!
सो, सतयुग जहां सत्य जीवन और बुद्धि की जाग्रतता वहीं कलियुग सुषुप्त, ख्याली-भ्रष्ट जीवन।
तथ्य नोट (पूरी दुनिया में सर्वमान्य) रखें कि ऋग्वेद-उपनिषद् काल (मतलब पूरी पृथ्वी पर मानव विकास का बाल काल) में भरतवंशियों का बौद्धिक-ज्ञानेन्द्रिय चिंतन-मनन, ध्यान-ज्ञान-तप और जीवन पद्धति का विकास अपूर्व-अद्भुत था।
तो आगे कलियुग का स्थायी ग्रहण कैसे हुआ? ऐसा क्या हुआ कि सप्त-सिंधु याकि सिंधू-सरस्वती-यमुना-गंगा नदी के किनारे के भरतवंशियों की एक लाख आबादी के ऋषि-मुनि, वंश-कुल अधिष्ठाताओं का चेतन विश्व दस लाख आबादी (जनसंख्या विशेषज्ञों के अनुसार ईसा पूर्व सन् दस हजार में हम एक लाख थे व सन् 4000 बीसी में दस लाख) होते-होते कलियुगी भंवर बना बैठा!
कैसे हुआ यह? दो वजह समझ आती है। एक, जैसा मैने पहले लिखा कि सतयुग की जो नंबर एक खूबी थी वहीं कलियुगी पतन की जड़ है। सतयुगी आह्वान शरीर-जीवन के तेज, ऊर्जा को स्वतंत्रता से जीने का था। सो, पूर्वज भरतवंशी अपनी अलग-अलग स्वतंत्रता, ध्यान-ज्ञान-तप, काम, कर्म की अलग-अलग सोच से जीवन जीते थे। उन विभिन्नताओं से उपासाना-यज्ञ की जरूरत में फिर वह कर्मकांड बना, वे धारणाएं बनीं, जिससे प्राकृतिक शक्तियों सहित पितृ-मातृ-वंश-कुल ऋषि परंपरा में पहले निराकार, फिर देवी-देवताओं के नाम-मूर्तियों की साकार पूजा होने लगी। सतयुगी जीवन निराकार की जगह साकार उपासना में देवी-देवताओं के रूप सोचने लगा और विचार-चिंतन-दर्शन की विविधताओं में धर्म बनने लगा।
जैसा वर्तमान में है, मध्यकाल में था, ईसा बाद के सन् एक में था और बुद्धम शरणम् गच्छामि के वक्त भी था कि विविध मान्यताओं, आस्थाओं और मूर्तियों की विविधताओं में जीवन की एकात्मकता मानी जाती रही। सो, सिलसिला सतयुग के इस सत्य से है कि हर शरीर-जीवन स्वतंत्र-अस्तित्व-पहचान लिए एक सार्वभौम यूनिट है। उसकी जैसी बुद्धि होगी वैसा कर्म होगा वहीं चेतनता, वहीं आत्मा और वहीं परमात्मा। हर व्यक्ति खुद ही अपने को बनाता, खोजता और कमाता है तो जीवनकाल में उसका जो क्रियमाण, प्रारब्ध व संचय है जैसे श्लोक, मंत्र, ज्ञान-विद्या, खेती जैसे काम तो उसी से उसकी स्मृति, वहीं पुण्य, वहीं आत्मा और परमात्मा।….सब कुछ निज-अहम् केंद्रित। समाज, देश, धर्म का तब मतलब नहीं था। आखिर दूसरा धर्म नहीं तो धर्म का परिप्रेक्ष्य कैसे बनेगा? तब की एक लाख से दस लाख की आबादी का भरतवंश जीवन, उसकी चेतनता में जिंदगी जीने के तरीको में कर्म, यज्ञ, काम करते हुए था, जीवन पद्धति बनाते हुए था। तब पुनर्जन्म, जन्म-जन्मांतर, 84 लाख योनियों के सफर की नियति, वर्ण-वर्ग बंधन आदि की बातें थी ही नहीं!
मैं भटका हूं। मोटी बात सतयुग में मनुष्य उम्र को पूर्णता (तब अगले जन्म, परलोक, स्वर्ग-नरक का ख्याल नहीं था) बेफिक्री, स्वतंत्रता, चित्त की सात्विक वृत्तियों, बुद्धि बल, कर्म से जीता हुआ था। इसका एक उलटा परिणाम हुआ। मतलब जितनी स्वतंत्र धाराएं उतना ही शास्त्रार्थ और भेद-विभेद व विविध धाराओं, दर्शन, अध्यात्म मत निर्माण। इसी से क्रमशः भरतवंशी 'चित्त' में बहुईश्वरवाद के देवी-देवताओं के प्रसंग-फूल खिलने लगे। असंख्य प्रमोटर और असंख्य शेयरहोल्डर। हर प्रमोटर अपना अहम, अपनी समझ, अपने लक्ष्य, अपना विस्तार लिए हुए। वैसे ही जैसे पुराण काल से (या त्रेता, द्वापर युग) से आज तक समुदायों, साधु-संतों-प्रवचकों-मठाधीशों-विचारकों-गुरूओं के लाखों-लाख अखाड़ों-डेरों-संप्रदायों, वर्ण-वर्गों से करोड़ों-करोड देवी-देवताओं, मूर्तियों का कलियुगी हिंदू धर्मविस्तार व भटकाव है।
दूसरे शब्दों में जीवन की अपूर्वता पर विचार की बुद्धि-ब्रह्म गंगोत्री के सनातनी विचार की खूबी बाद में अजस्त्र धाराओं के कारण ऐसी बिखरी, भटकी की भरतवंशियों की जनसंख्या बढ़ने के साथ सब गुड़गोबर होता गया!
इस भूल-भुलैया का वह नक्शा बनाना सचमुच असंभव काम है कि ऐसा कैसे भला जो शुरू कहां से हुए थे लेकिन जा कहां पहुंचे!
मोटा निष्कर इतना भर कि सनातनी जीवन के प्रारंभ में बुद्धि बल का आशीर्वाद सतयुग बनाने वाला था। ऋग्वेद-उपनिषद्-धर्म के बीज प्रस्फुटित हुए और फिर उसके पालन-पोषण, उसकी वृद्धि में खाद-पानी, कर्मकांड, जन्म-मरण के वे ख्याल बने, जिससे आगे बुद्धि ज़ड होती गई और कलुयगी परती जमीन, रेगिस्तान बनने-फैलने लगा।
सनातनी जीवन को रेगिस्तान की और ले जाने के संक्रमण काल में दो ख्यालों का अहम रोल है। एक जन्म-मृत्यु के चक्र में आत्मा का 84 लाख योनियों में भ्रमण और दूसरा उससे फिर प्रत्येक शरीर-व्यक्ति का भ्रमण ही जीवन का प्रोजेक्ट।… संक्रमण काल व्यक्ति के दिल-दिमाग में एक के बाद एक बेड़ियां बनाने वाला था। पहले निराकार प्रकृति पूजा से साकार पूजा में मूर्तियां बनीं। इनको आह्वान के साथ इनसे जीवन बंधा। शरीर का प्राण, बुद्धि रूप में आत्मा का पर्याय बना। आत्मा की अमरता परमात्मा में विलीन। फिर शरीर के कष्ट-दुख-पीड़ा का चित्त, चिंतन बना तो जीवन मुक्ति, निर्वाण का विचार।… धीरे-धीरे जीवन कर्म के पुण्य-पाप बोध में स्वतंत्र-बुद्धिवादी-कर्मवादी सनातनी 84 लाख योनियों के जीवन चक्र का बंधक हो गया! ..नई मूर्तियां नया समर्पण…नए अवतार नई भक्ति। धीरे-धीरे कर्मफल, नियति, भाग्य ने शरीर की जिंदादिली को उस चिरनिद्रा में जा धकेला जो नियति-भाग्य परिणामों में सोती हुई।…. सोचें इतने करोड़ देवी-देवता और जीवन का हर चक्र उन्हें समर्पित बावजूद इसके कलियुगी हिंदू 'चित्त' अकेले इस सूत्र का काला धागा बांधे हुए है कि सब भाग्य-नियति का नतीजा!
सारा मामला दिमाग, बुद्धि विचार से है। विचार (याकि 'चित्त', दिल-दिमाग) के परिणाम में ही सतयुग था और उससे फूटी धाराओं, विचारों से ही आज का सुषुप्त कलियुगी हिंदू जीवन! (आगे कल)
क्रेडिट बाय नया इंडिया
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