सम्पादकीय

फिर 9/11 हमले के पहले जैसे हालात, दुनिया को अफगान धरती से दोबारा उपजने वाले आतंक का खतरा

Neha Dani
11 Sep 2021 2:28 AM GMT
फिर 9/11 हमले के पहले जैसे हालात, दुनिया को अफगान धरती से दोबारा उपजने वाले आतंक का खतरा
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जिसने तालिबान की वकालत करने दुशांबे पहुंचे पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की तालिबान सरकार को मान्यता प्रदान करने की अपील को ठुकरा दिया।

बीते दिनों जब तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि से मिल रहा था, तब उसी समय काबुल में तालिबानी आठ महीने की गर्भवती एक महिला पुलिस अधिकारी की उसके ही बच्चों के सामने निर्मम हत्या कर रहे थे। पिछली बार जब तालिबान शासन में था तो उसने बामियान में बुद्ध की प्रतिमाओं को तोप से उड़ा दिया था और 9/11 के हमलावरों को संरक्षण भी दिया था। इस बार उसने शुरुआत अफगानिस्तान के सम्मानित शिया नेता अब्दुल्ल अली मजारी के स्मारक को नष्ट करके की है। स्पष्ट है कि तालिबान नहीं बदला है। ऐसे में यह विचारणीय है कि अगर वामपंथी झुकाव वाले बाइडन प्रशासन और चीन की सहायता से तालिबान संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर स्वीकार्यता पा भी लेता है तो क्या अफगानिस्तान की स्थिति से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित देश भी क्या तालिबान के प्रति अपने रवैये को बदल सकते हैं? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मीडिया का एक धड़ा इस प्रचार में लगा है कि तालिबान को व्यापक वैश्विक स्वीकार्यता मिल रही है। इस प्रश्न का उत्तर भारत की भावी अफगानिस्तान नीति निर्धारण के लिए भी अहम है।

पाकिस्तान द्वारा पंजशीर घाटी में केंद्रित उपराष्ट्रपति सालेह के नेतृत्व वाले प्रतिरोध आंदोलन के विरुद्ध सैन्य शक्ति के प्रयोग और नई तालिबानी कैबिनेट से ताजिक उज्बेक, हजारा आदि समूहों और महिलाओं को पूरी तरह से बाहर रखे जाने ने तालिबान के पक्ष में नजर आ रही स्थितियों को तेजी से बदला है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ है कि तालिबान शासन का अर्थ अफगानिस्तान पर पाकिस्तान का शासन है, जो क्षेत्र के अन्य देशों की सुरक्षा खतरे में डालने वाला होगा। यही कारण है कि सबसे पहले ईरान ने तालिबान को लेकर अपना रुख बदला और पाकिस्तानी सेना द्वारा पंजशीर घाटी में सैन्य कार्रवाई के आरोपों की जांच की मांग की। इससे पहले ईरान ने अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान छोड़कर जाने पर खुशी जताई थी। तालिबान ने भी एक वीडियो जारी किया था, जिसमें तालिबानी ईरानी दूतावास जाकर वहां कर्मचारियों का हाल-चाल पूछते दिखाई दिए थे। इस सबसे लग रहा था कि ईरान और तालिबान पिछली बार की तरह एक-दूसरे के प्रति कड़ा रुख नहीं अपनाएंगे। ज्ञात हो कि पिछली बार जब तालिबान सत्ता में आया था तो उसने कुछ ईरानी राजनयिकों की हत्या कर दी थी, जिसके चलते ईरान और तालिबान में युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। इस बार जैश-ए-मुहम्मद जैसे कट्टरपंथी सुन्नी गुटों की तालिबान नेतृत्व से मुलाकात और आइएसआइ चीफ के काबुल दौरे के चलते ईरान ने अपनी नीति पर पुनर्विचार किया है। ईरान को अच्छे से मालूम है कि जैश आइएसआइ के उसी आतंकी सिंडिकेट का हिस्सा है, जिसका हिस्सा सिपाह-ए-साहबा, लश्कर-ए-झांगवी और जंडुल्लाह जैसे गुट हैं, जो लगातार पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान में शियों की हत्या को अंजाम देते रहते हैं। ऐसे में वह अफगानिस्तान पर तालिबान के जरिये आइएसआइ के परोक्ष शासन को स्थिर होते नहीं देखना चाहेगा। ऐसी ही स्थिति अफगानिस्तान के उत्तर में स्थित ताजिकिस्तान की है, जिसने तालिबान की वकालत करने दुशांबे पहुंचे पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की तालिबान सरकार को मान्यता प्रदान करने की अपील को ठुकरा दिया।


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