सम्पादकीय

असल लोकतंत्र की तलाश में दुनिया

Gulabi
22 Dec 2021 10:15 AM GMT
असल लोकतंत्र की तलाश में दुनिया
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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने लोकतंत्र पर आयोजित जिस शिखर सम्मेलन का खासा प्रचार किया था
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने लोकतंत्र पर आयोजित जिस शिखर सम्मेलन का खासा प्रचार किया था, वह बिना कोई हलचल मचाए खत्म हो गया। लोकतंत्र को विश्व स्तर पर आकर्षक बनाना अमेरिकी शासनाध्यक्ष की प्राथमिकता रही है। इस लिहाज से लोकतंत्र शिखर सम्मेलन का मकसद मित्रवत लोकतांत्रिक देशों में एकजुटता की अधिकाधिक भावना पैदा करना था। हम फिलहाल ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जिसमें दुनिया के तमाम देशों में लोकतंत्र की बिगड़ती सेहत चिंता का विषय है। चीन के उद्भव ने राजनीतिक संस्थाओं की प्रभावशीलता पर बहस को आज कहीं ज्यादा मौजूं बना दिया है। ऐसे में, कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि तमाम उपलब्ध विकल्पों में लोकतंत्र के सर्वश्रेष्ठ होने जैसे दावे बहुत दिनों तक शायद ही टिके रहें।
बाइडन प्रभावी लोकतंत्र में दृढ़ विश्वास रखने वाले नेता हैं, और उन्होंने इसी एजेंडे के तहत सम्मेलन का प्रचार किया था। चीन व रूस जैसी एकल सत्तावादी व्यवस्थाओं को किनारे रखते हुए उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं में विश्वास रखने वाले विश्व भर के तमाम नेताओं को आपस में मिलकर काम करने का आह्वान किया। इस वर्ष 6 जनवरी को वाशिंगटन डीसी में कैपिटल कॉम्प्लेक्स पर भीड़ के हमले के संदर्भ में उन्होंने यह तर्क देकर विश्व समुदाय का ध्यान खींचा कि 'अपने लोकतंत्र को बेहतर बनाने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करने के लिए अमेरिका को लगातार प्रयास करना होगा'।
इस शिखर सम्मेलन में 100 से अधिक नेताओं ने शिरकत की। उन्होंने लोकतंत्र के सामने मौजूद भ्रष्टाचार, सामाजिक-आर्थिक असमानता, दुष्प्रचार और प्रमुख प्रौद्योगिकी कंपनियों की बढ़ती भूमिका जैसी वैश्विक चुनौतियों पर चर्चा की। चीन और रूस की तरफ से नकारात्मक टिप्पणियां भी आईं, और उन्होंने बाइडन प्रशासन को 'शीत युद्ध की मानसिकता बनाए रखने' के लिए जमकर लताड़ा। उनके मुताबिक, बाइडन प्रशासन की नीतियों से वैचारिक टकराव बढे़ हैं और दुनिया भर में तनाव दिखने लगा है।
इस क्रम में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी तो एक कदम और आगे बढ़ गई। उसने लोकतंत्र पर एक इंटरनेशनल फोरम का आयोजन किया, जिसमें उसने दावा किया कि वही ऐसा 'लोकतांत्रिक मुल्क है, जो कारगर है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वही एकमात्र लोकतंत्र है, जो प्रक्रिया-उन्मुख लोकतंत्र को परिणाम-उन्मुख लोकतंत्र से, प्रक्रियात्मक लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र से, प्रत्यक्ष लोकतंत्र को अप्रत्यक्ष लोकतंत्र से और लोगों के लोकतंत्र को राष्ट्र की इच्छा से जोड़ता है'। उसने चाइना : डेमोक्रेसी दैट वर्क्स नामक एक श्वेतपत्र भी जारी किया, जिसमें कहा गया है कि लोकतंत्र का कोई स्थायी मॉडल नहीं है। यह खुद को कई रूपों में प्रकट करता है। लिहाजा, संसार भर की सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं और विविध राजनीतिक संरचनाओं का एक ही मापदंड से आकलन करना ही अपने आप में अलोकतांत्रिक है।
विडंबना यह है कि लोकतंत्र के अर्थ पर यह टकराव तब हो रहा है, जब चीन विश्व व्यापार संगठन, यानी डब्ल्यूटीओ में शामिल होने के दो दशक पूरा कर चुका है। दिसंबर, 2001 में डब्ल्यूटीओ में उसके शामिल होने के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वैश्विक राजनीति भी खासा प्रभावित हुई है। यह वह समय था, जब फ्रांसिस फुकुयामा की 'एंड ऑफ हिस्ट्री' अवधारणा नीति-निर्माताओं को मथती रहती थी। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की सोच में भी इसकी झलक दिखी थी, जब उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र के सबसे पोषित मूल्यों में से एक आर्थिक स्वतंत्रता को समाहित करने से चीन में अंतत: सियासी बदलाव आएगा। उस समय के राजनीतिक और अकादमिक जगत में यह आम सहमति थी कि आर्थिक उदारीकरण से राजनीतिक स्वतंत्रता बेहतर तरीके से काम करेगी।
मगर अवसरों का फायदा उठाते हुए चीन पिछले दो दशकों में क्रय शक्ति समता के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया, बाजार विनिमय दरों के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश बना और विश्व के सबसे बडे़ व्यापारिक राष्ट्र की कुरसी पर काबिज हो गया, लेकिन वहां लोकतंत्र मानो कहीं गायब हो गया। उल्लेखनीय है कि चीन ने अपने भू-राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए आर्थिक दबदबे का इस्तेमाल करना शुरू किया। अमेरिकी नीति-निर्माताओं ने तो अब यह शिकायत भी छोड़ दी है कि बीजिंग एक राष्ट्र-केंद्रित आर्थिक मॉडल अपना रहा है, जिसके तहत उन नीतियों का पोषण किया जा रहा है, जो अमेरिकी कारोबार और अन्य विदेशी कंपनियों को रणनीतिक लिहाज से काफी अहम समझे जाने वाले क्षेत्रों में नुकसान पहुंचा रहा है।
दशकों से अपने नजरिये के बुनियादी अंतर्विरोध को नजरंदाज करने के बाद पश्चिमी देश वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के सामने खड़ी उन चुनौतियों को समझ सके हैं, जो चीन पेश करता है। नतीजतन, अमेरिका पहले की कहीं अधिक मुखर होकर उसके खिलाफ है। यह आर्थिक हितों के अधीन राजनीति को देखने संबंधी अमेरिकी रुख में आए एक बड़े बदलाव का संकेत है। यह हमें लोकतंत्र के मूल मुद्दे की ओर वापस ले आता है। यहीं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिखर सम्मेलन में कहा भी कि भारत का दुनिया को स्पष्ट संदेश है- लोकतंत्र काम कर सकता है। इस लोकतंत्र ने ही काम किया है और यही लोकतंत्र आगे भी काम करेगा।
भारत ने देश के लोकतांत्रिक सुदृढ़ीकरण के लिहाज से आलोचकों को बार-बार गलत साबित किया है। एक लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर भारत का आर्थिक उत्थान अपने आप में एक सत्तावादी मॉडल की प्रभावशीलता पर चीन के दुष्प्रचार का जवाब है। एक ओर, जहां पश्चिम में लोकतंत्र की नाजुकता पूरी दुनिया में स्पष्ट है, वहीं भारतीय लोकतंत्र अब भी समर्थ बना हुआ है।
पश्चिम के लिए इस शिखर सम्मेलन में वैश्विक व्यवस्था में महत्वपूर्ण सुधार की सोच भी निहित थी, लेकिन चीन के लिए सम्मेलन का अर्थ भारतीय लोकतंत्र को अपने राजनीतिक दावों से विमुख करना हो सकता है। हालांकि, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जब अपनी अस्तित्वहीन लोकतांत्रिक साख का शंखनाद कर सकती है, तो भला हम तमाम चुनौतियों को देखते हुए भी अपनी वास्तविक लोकतांत्रिक उपलब्धियों के बारे में मुखर क्यों नहीं हो सकते?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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