सम्पादकीय

मानसिक पराधीनता से मुक्ति का मार्ग, स्वदेशी मान्यताओं में भरोसे से ही मिलेगी मंजिल

Rani Sahu
10 Sep 2022 5:45 PM GMT
मानसिक पराधीनता से मुक्ति का मार्ग, स्वदेशी मान्यताओं में भरोसे से ही मिलेगी मंजिल
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सोर्स- जागरण
विकास सारस्वत : पिछले दिनों देश की राजधानी में राजपथ को कर्तव्य पथ का नाम देकर गुलामी के एक और प्रतीक से छुटकारा पाया गया। इसके पहले कोच्चि में आइएनएस विक्रांत को नौसेना को सौंपने के साथ प्रधानमंत्री ने भारतीय नौसेना के ध्वज को भी उसके औपनिवेशिक अतीत से मुक्ति दिलाई। नए ध्वज से गुलामी के प्रतीक सेंट जार्ज क्रास को हटाकर राष्ट्रीय चिन्ह और अंकड़े को उस नीले अष्टकोण में जड़ा गया, जो कभी शिवाजी महाराज की नौसेना का चिन्ह था।
यह कदम उस कड़ी का हिस्सा है, जिसके तहत स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने देशवासियों से उपनिवेशवादी मानसिकता त्यागने की अपील की थी। यह आजादी के अमृत काल में लिए गए पांच प्रणों में से एक यानी मानसिक दासता से मुक्ति को दर्शाता है। यह थोड़े आश्चर्य की बात अवश्य है कि गौरवमयी इतिहास और सांस्कृतिक समृद्धता से परिपूर्ण उस भारत को स्वदेशी दृष्टिकोण का महत्व समझाना पड़ रहा है, जो सभ्यता की दृष्टि से विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है।
आज मानसिक गुलामी से मुक्ति की चर्चा भले ही अंग्रेजी राज से आजादी के 75 वर्ष बाद हो रही हो, परंतु इसके अवयवों में अरब, तुर्क, अफगानों की अधीनता से उत्पन्न मानसिक विकार भी उतना ही महत्व रखते हैं। जहां एक ओर भारतीय मानस पर अंग्रेजी या और व्यापक रूप में पश्चिम का अत्यधिक प्रभाव दिखता है, वहीं दूसरी ओर एक बड़ा वर्ग पाक कला से लेकर हिंदू त्योहारों तक को मुगलों की सौगात सिद्ध करने में लगा हुआ है। दोनों ही प्रकार की मानसिक पराधीनता इस विश्वास से प्रेरित है कि भारत में संस्कृति हो या आचार-विचार, परंपरागत ज्ञान हो या खान-पान, ऐसा कुछ भी नहीं है, जो गौरवशाली या महत्वपूर्ण हो।
इतिहास लेखन और शैक्षणिक संस्थानों पर मार्क्सवादी प्रभाव ने ऐसी आत्मलज्जित पीढ़ियों को जन्म दिया, जो मुगलकाल और अंग्रेजी राज को देश के लिए वरदान समझती है। पराधीनता का भाव इतना प्रबल है कि हमारे बच्चों को ही भारत की खोज वास्कोडिगामा द्वारा की गई बताई जाती है। इस हीन भावना के चलते देश में आज भी ऐसे ढेरों क्लब और रेस्त्रां मिल जाएंगे, जहां भारतीय परिधान वर्जित हैं। इसी तरह बहुत से विद्यालयों में मातृभाषा में बात करने पर दंड दिया जाता है। गली-गली कान्वेंट नाम वाले स्कूलों की भरमार या फिर ऐक्जोटिका, एन्कलेव, आर्केडिया, गार्डेनिया, रिवेरा जैसे रिहायशी नाम दर्शाते हैं कि समाज में हीन भावना कितनी गहरी है।
किसी भी समाज के लिए बाह्य विचारों औ बाह्य संस्कृति का पूर्ण बहिष्कार जड़ता प्रदान कर सकता है, परंतु पश्चिमी मूल्यों, व्यवहार, दृष्टिकोण और फलस्वरूप पश्चिमी संस्थाओं में ऐसी अगाध श्रद्धा कि सिर्फ वही सच्चे और श्रेष्ठ दिखें, न सिर्फ राष्ट्रीय स्वाभिमान पर चोट है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से भी देश के लिए हानिकारक है। इस मनोवृत्ति का खामियाजा हमें कई क्षेत्रों में भुगतना पड़ा है। पश्चिम के हथियार निर्माताओं पर विश्वास के चलते न केवल भ्रष्टाचार और हथियार लाबी को पैर पसारने का मौका मिला, बल्कि सेना का आधुनिकीकरण भी अधर में लटका रहा। तेजस के प्रति उदासीनता और सुखोई, राफेल की चाहत ने लड़ाकू विमानों की कमी लंबे समय तक बनाए रखी। तेजस उतना उन्नत न सही ,पर संख्या के महत्व से लड़ाकू विमानों की पूर्ति अवश्य कर सकता है।
कोविड काल में कोवैक्सिन को लेकर जो अविश्वास फैलाया गया, वह सबने देखा। एक लाबी ने सरकार पर फाइजर को जल्द अनुमति और व्यावसायिक अनुबंध करने का दबाव लगातार बनाए रखा। आज भ्रामक परीक्षण के आरोप झेल रही फाइजर पर पश्चिम में ही विश्वसनीयता का संकट मंडराया हुआ है। इस लाबी का पाश्चात्य प्रेम कितना गहरा है, इसकी मिसाल नौसेना ध्वज से ही मिलती है। वास्तव में 2001 में अटल सरकार ने सेंट जॉर्ज क्रास को नौसेना ध्वज से हटाया था, परंतु 2004 में संप्रग ने सत्ता में आते ही इसे वापस बहाल कर दिया।
राष्ट्र जीवन में प्रतीकों का गहरा महत्व है, लेकिन मानसिक गुलामी के चलते आज सबसे बड़ी चिंता राजनीतिक मोर्चे पर खड़ी हो रही है। ऐरे-गैरे संस्थान प्रेस स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, मानवाधिकार सूचकांकों का फर्जीवाड़ा ठेल भारतीय लोकतंत्र को धौंस में लेने का प्रयास कर रहे हैं। इन सूचकांकों की कोई विश्वसनीयता न होते हुए भी एजेंडाधारी ताकतें उन्हें महत्व देती रहती हैं। इसी क्रम में देश की राजनीति को न्यूयार्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट के माध्यम से साधने का चलन भी चल निकला है। हर प्रकार के भारत विरोधी एजेंडे को इन पत्रों में स्थान मिलता है। दिल्ली की राजनीति में भी ये पत्र उत्साहपूर्वक दखल दे रहे हैं। इसकी एक बानगी हाल में तब देखने को मिली, जब दिल्ली सरकार के उपमुख्यमंत्री पर आबकारी नीति बदल कर किए गए भ्रष्टाचार के आरोप में की गई सीबीआइ कार्रवाई का जवाब देने के लिए दिल्ली सरकार ने अपनी शिक्षा नीति की प्रशंसा में न्यूयार्क टाइम्स में छपे लेख को ढाल बनाया। ऐसी राजनीति तभी होती है, जब समाज में पाश्चात्य प्रेम आत्मवंचना की हद तक रच-बस गया हो।
किसी राष्ट्र के पुनरुत्थान में जितना महत्व आकांक्षाकृत समाज, राजनीतिक शुचिता, सही अर्थनीति, मजबूत संस्थाओं और व्यवहारिक सामरिक नीति का होता है, उतना ही निज गौरव और स्वाभिमान का भी। इसी महत्व के चलते 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पश्चिम से टक्कर लेने के लिए जापान ने तकनीक, उद्योग आदि क्षेत्रों में हुई आधुनिक प्रगति को पुरातन जापानी मूल्यों के साथ गूंथ कर मेईजी इशिन यानी पुनर्स्थापन को जन्म दिया। हंगरी में तूरानवाद और दक्षिणी अफ्रीका का ऊबंटूवाद ऐसे बौद्धिक आंदोलन रहे, जिन्होंने स्वदेशी मूल्यों पर आधारित सामाजिक रचना का प्रयास किया। पश्चिम में पढ़े होने के बावजूद ली क्वान यू ने सिंगापुर को एशियाई मूल्यों पर आधारित देश बनाने का बीड़ा उठाया। चीन ने भी शुरुआती उलझन छोड़ अपने लिए औपचारिक रूप से चीनी विशेषताओं वाले समाजवाद का चयन किया।
आज तमाम विश्लेषक 21वीं सदी के भारतीय सदी होने की अपेक्षा रख रहे हैं, परंतु यह तभी संभव है, जब भारत स्वदेशी चेतना को सभी क्षेत्रों में अंगीकार करे। वैश्विक चुनौतियों से निपटने और सशक्त-समृद्ध राष्ट्र निर्माण के लिए भारत को जो दिशा और आत्मवाश्वास चाहिए, वह विदेशी विचार प्रभाव से मुक्ति और स्वदेशी मान्यताओं में भरोसे से ही मिलेगा। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी का यह आह्वान आशातीत सफलता पाएगा।
Rani Sahu

Rani Sahu

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