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- परहित की छीजती परंपरा
अतुल चतुर्वेदी: आम जिंदगी के दायित्वों को पूरा करते हुए जब अपने दायरे से बाहर कहीं आना-जाना होता है तब अक्सर ऐसे लोगों का सामना हो जाता है, जिनके भीतर स्वार्थ और निजी सुविधा के लिए कोई जगह नहीं होती। ऐसे लोग निस्वार्थ भाव से किसी के लिए कुछ करते हैं, लेकिन बदले में अपने लिए कुछ भी अलग से नहीं चाहते। बल्कि अगर कोई कुछ देने की चेष्टा करे तो भी वे विनम्र भाव से उन्हें मना कर देते हैं और साफ शब्दों में कहते हैं कि वे चूंकि बिना किसी स्वार्थ के सेवा करते हैं, इसीलिए उन्हें बहुत अच्छी नींद आती है और उनकी जिंदगी में शांति है। अगर वे अपने स्वभाव में स्वार्थ को जगह देंगे तो उन्हें पता है कि उनकी जिंदगी में सबसे जरूरी सुख-चैन छिन जाएगा।
ऐसे लोगों को देख कर सोचता हूं कि आज के स्वकेंद्रित होते समाज में ऐसे लोगों ने कैसे खुद को बचाया हुआ है। आखिर इनके भीतर इतना धैर्य कहां से आता है कि ये दुनिया के स्वार्थ के जंजाल से खुद को बचा पाते हैं। ऐसे लोग कोई बहुत सुशिक्षित और ऊंचे कहे जाने वाले सभ्य परिवारों से भी नहीं आते, साधारण परिवारों से होते हैं, लेकिन सेवा के लिए सादगी और निश्छलता की आवश्यकता होती है, न कि किसी बाह्य आडंबर और प्रदर्शन की जैसा की आज की दुनिया में अधिकतर देखा जाता है। यही ऐसे लोगों के भीतर एक खासियत के रूप में मौजूद होता है।
आज सेवा कम उसके प्रचार प्रसार पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाने लगा है। एक शहर में कोरोना काल में छुटभैये नेताओं को आटे की थैली और चार-चार रोटियां बांटते हुए फोटो खिंचाने के दृश्य अजीब जुगुप्सा पैदा करते हैं। इस क्रम में एक बात यह भी है कि कई समाजसेवी संस्थाएं तो चलती ही काले धन को सफेद करने के चक्कर में हैं। वहां सेवा की भावना की आड़ में अपने व्यापारिक हितों को अधिक साधा जाता है। सिर्फ जान-पहचान स्थापित करने के लिए ही ऐसी ऊंची फीस वाली तथाकथित संस्थाओं की सदस्यता ली जाती है।
आज सेवा का भाव समाज से लगभग लुप्त हो गया है। हर आदमी 'इस हाथ दे उस हाथ ले' की संस्कृति में विश्वास रखने लगा है। कभी गुप्त दान की बहुत महत्ता समझी जाती थी और दान करने वाला अपनी पहचान गुप्त रखने को महत्त्व देता था। इसके पीछे कोई प्रचार या फल की आशा नहीं छिपी होती थी। लेकिन समय तेजी से बदल रहा है। भौतिकवादी संस्कृति के चलते सब तुरंत फल चाहते हैं। मसलन, मेरा अखबार में नाम आ जाए, शिलापट्ट लग जाए, क्या पता कल उत्तराधिकारी यह श्रेय स्वयं ले ले तो!
राजनेताओं में यह लिप्सा समझ में आती है कि वे बेचारे घोर मायावी जीव ठहरे और उनका जीवन ही श्रेय और कोसने की दो पगडंडियों पर यात्रा करता रहता है। लेकिन जब कई बार आम आदमी भी इस होड़ में फंसता नजर आता है तब जरूर सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि हमारे जीवन मूल्य या तो तेजी से बदल रहे हैं या नई मान्यताएं समय के साथ गढ़ी जा रही हैं। सफलता के पैमाने बदल गए हैं। सेवा एक निर्विकार भावना नहीं, श्रेय लेने और समाज में दबदबा स्थापित करने की सीढ़ी हो गई है। जो नेकी करके दरिया में डाल देते हैं, मौन भाव से बिना शोरगुल के सेवा करते हैं, उनके मुखमंडल पर विशिष्ट चमक रहती है और मन में एक संतोष भाव। वे सच्चे कर्मयोगी होते हैं, उनको कोई आकांक्षा नहीं होती है, न प्रचार की आवश्यकता।
परहित का भाव आज हाशिए पर जा रहा है। निरर्थक आयोजनों फैशन शो, नृत्य आयोजनों के लिए दानदाताओं के पास धन है, लेकिन स्कूलों, अस्पतालों और अनाथालयों के लिए धनाभाव हो जाता है। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। कुछ कर्म निस्वार्थ भावना से भी करने चाहिए। प्रत्येक दान के प्रतिदान की इच्छा आखिर क्यों? हर सेवा का मूल्य क्यों प्राप्त करना? मौन सेवा के सुख को हम क्यों नहीं अनुभव करना चाहते? यही परंपरा आखिरकार परिवार में चली आ जाती है और घर में किसी बुजुर्ग के बीमार होने पर युवा पीढ़ी कन्नी काटती नजर आती है। बीमार व्यक्ति को अस्पताल के हवाले कर अपने कर्तव्यों को इतिश्री मान लिया जाता है।
सेवा न केवल एक परंपरा है, बल्कि समाज और देश की संस्कृति का हिस्सा भी है। बिना की आकांक्षा या महत्त्वाकांक्षा के सेवा करने वाले लोग आज के युग में किसी अन्य ग्रह के प्राणी भले ही लगें, लेकिन यही वे स्तंभ हैं, जिन पर किसी सभ्य और सुसंस्कृत समाज की नींव टिकी होती है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि मानवता के इस उज्ज्वल पक्ष को बरकरार रखें, बल्कि इसकी समृद्धि में अपना रचनात्मक योगदान भी बिना किसी लोभ के दें।