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कोविड टीकाकरण अभियान को तेज करने के लिए हम 12 राज्यों में 500 से ज्यादा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) के साथ मिलकर काम कर रहे हैं
अनुराग बेहर। कोविड टीकाकरण अभियान को तेज करने के लिए हम 12 राज्यों में 500 से ज्यादा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। अक्तूबर के अंत तक हमारा प्रयास 20 राज्यों के 3,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से जुड़ने का है, जिससे करीब 10-12 करोड़ लोगों की सेवा करने में मदद मिल सकेगी। बहरहाल, देश के टीकाकरण अभियान में लगे कार्यकर्ताओं की तरफ से मैं यहां कुछ समस्याओं का जिक्र करूंगा, जो इस महत्वपूर्ण अभियान को प्रभावित करती हैं। मगर इससे पहले उन तथ्यों पर एक नजर, जिन्होंने हममें से कुछ को गुमराह किया है।
सबसे पहले तो यह धारणा पूरी तरह से गलत है कि सरकारी अधिकारियों में समर्पण और कड़ी मेहनत की कमी है। अग्रिम मोर्चे के डॉक्टरों व नर्सों से लेकर ब्लॉक, जिला और राज्य स्तर के अधिकारी (और मंत्री) तक, ज्यादातर लोग ऐसे काम कर रहे हैं, मानो यह जीवन-मरण का मामला हो, जो वाकई है भी। फिर, टीका को लेकर आम लोगों में उतनी झिझक भी नहीं है, जितनी अक्सर कल्पना की जाती है। एक आम परेशानी यह है कि निराधार आशंकाओं और धारणाओं के कारण लोग टीकाकरण में अरुचि दिखाते हैं। लोगों की इस उलझन को जहां संबंधित समस्याओं का हल निकालकर दूर किया जा सकता है, तो वहीं बेजा आशंकाओं से पार पाने के लिए हमें स्थानीय स्तर पर उन लोगों की मदद लेनी होगी, जिन्हें टीका लग चुका हो, और जिन पर आम लोगों का विश्वास हो। देश में टीकाकरण के लिए बुनियादी ढांचा भी पर्याप्त है। फिर चाहे वह कोल्ड चेन हो, टीके की ढुलाई हो या सुई को नष्ट करने के लिए जरूरी हब-कटर जैसे छोटे-छोटे उपकरण की उपलब्धता।
अब समस्याओं की चर्चा। पहली मुश्किल यह है कि दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों, दुर्गम इलाकों और बड़े शहरों की मलिन बस्तियों में टीकाकरण करने वालों की संख्या नाकाफी है। हम तकरीबन 20 फीसदी जगहों पर इस कमी का सामना कर रहे हैं। इतना ही नहीं, 90 फीसदी से अधिक स्थानों पर डाटा को लेकर भी तमाम तरह की समस्याएं हैं। जैसे, धीमी इंटरनेट कनेक्टिविटी के कारण कंप्यूटर सिस्टम में टीकाकरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति की जानकारियों को दर्ज करना एक मुश्किल काम है। टीका लेने आए लोगों के दस्तावेजों की जांच करना, उनका पंजीकरण करना और फिर तमाम सूचनाओं को कंप्यूटर में लिखना, वह भी धीमी इंटरनेट के साथ, एक ऐसी प्रक्रिया हो जाती है, जिसमें टीकाकरण के बजाय आंकड़ों को जांचना व संभालना ही मूल काम बन जाता है। कई जगहों पर तो इंटरनेट कनेक्टिविटी न होने के कारण टीका लेने वालों की सूचनाएं रजिस्टर में दर्ज की जाती हैं और शाम में स्थानीय पीएचसी के कंप्यूटर में उनको अपलोड किया जाता है। इन आंकड़ों को दर्ज करने वाले दक्ष हाथों का भी अभाव है, इसलिए टीका लगाने वालों को ही यह काम भी करना पड़ता है, जिससे टीकाकरण करने की उनकी क्षमता प्रभावित होती है।
दूसरी समस्या है, कंप्यूटर में दर्ज आंकड़ों में टीका लेने वाले व्यक्तियों का निवास स्थान न दर्ज होना। मान लें कि एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को 20 गांवों व एक छोटे कस्बे की कुल 50,000 आबादी का टीकाकरण करना है, और कंप्यूटर सिस्टम उसे बताता है कि 28 हजार लोगों को टीके की पहली खुराक मिल गई है। टीके पाने वालों के नाम, उम्र, पहचान संबंधी दस्तावेज, फोन नंबर आदि सभी कंप्यूटर में दर्ज होते हैं, लेकिन जहां ये 28 हजार लोग रहते हैं, उन बस्तियों या जगहों के नाम दर्ज नहीं होते। ऐसे में, अन्य 22 हजार लोगों तक पहुंचने के लिए भला किस तरह योजना बनाई जा सकती है? यही नहीं, इन 28 हजार लोगों तक ही दूसरी खुराक के लिए हम कैसे पहुंच सकेंगे? पीएचसी कर्मी अक्सर स्थानों का पता लगाने के लिए दिन में सौ के करीब फोन करते हैं, लेकिन आमतौर पर कोई फायदा नहीं होता है। फोन नंबर गलत होते हैं, लोग ठीक-ठीक जवाब नहीं देते या फिर कनेक्शन खराब होता है। इस उदाहरण का जिक्र तो मात्र मसले को आसान शब्दों में समझाने के लिए मैंने किया है। कई मामलों में तो हमारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के पास यह आंकड़ा तक नहीं होता है कि कितनी आबादी को टीका लगना है। इसीलिए उपरोक्त उदाहरण में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को तो यह पता ही नहीं होगा कि उसे 50 हजार लोगों का टीकाकरण करना है या इससे ज्यादा अथवा कम आबादी का, और ये लोग रहते कहां हैं।
असल में, टीकाकरण अभियान में अंतर्निहित सोच यह है कि लोग अपनी मर्जी से आएंगे और टीका लगवाएंगे। लोगों तक व्यवस्थित रूप से पहुंचने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना होगा। हालांकि, पहले के कुछ महीनों में ही यह जाहिर हो गया था कि यह एक दोषपूर्ण व्यवस्था है। लोगों तक टीके पहुंचाने के लिए व्यवस्थित, लगातार और बड़े पैमाने पर प्रयास करने होंगे। इसीलिए निवास स्थान और आबादी की सही जानकारी न होने से अराजकता पैदा हो रही है। इसकी गवाही यह आंकड़ा भी दे रहा है कि दूसरी खुराक जितने लोगों को मिल जानी चाहिए थी, उनमें करीब 25 फीसदी अब भी इससे दूर हैं। हर बीतते सप्ताह के साथ परिस्थिति-विशेष योजनाओं का निर्माण अधिक महत्वपूर्ण हो चला है। आखिरी बड़ी समस्या टीकाकरण के लिए लोगों को जुटाने के लिए स्थानीय स्तर पर टीम का न होना है। ऐसी टीमें कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा सकती हैं। मसलन, टीकाकरण में आने वाली बाधाओं का आकलन करना, लोगों की सुविधा के लिए काम करना, उनकी आशंकाओं को दूर करना, महामारी और टीके से जुड़ी सटीक जानकारियों का प्रचार-प्रसार करना आदि। साफ है, योजना और प्रबंधन की कमी है। समाज के अंतिम व्यक्ति तक टीका पहुंचाने की योजना और प्रबंधन के अभाव के कारण हर दिन एक करोड़ खुराक लगाने और समय पर दूसरी खुराक देने का लक्ष्य मुश्किल होता जा रहा है। अंतिम 25 फीसदी आबादी का टीकाकरण तो सबसे कठिन कार्य होगा, जिनमें से अधिकांश सबसे कमजोर और वंचित तबके के लोग होंगे। हालांकि, कुछ राज्य (बहुत ही कम) व्यवस्थित ढंग से सारा काम कर रहे हैं। लेकिन यदि हम अपनी जमीनी रणनीति नहीं बदलेंगे, तो पूरे देश के टीकाकरण में हमें एक साल तक का वक्त भी लग सकता है।
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