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सोर्स - JAGRAN
गिरीश्वर मिश्र : भारतीय समाज अपने स्वभाव में मूलतः उत्सवधर्मी है। यहां के अधिकांश उत्सव सृष्टि में मनुष्य की सहभागिता को रेखांकित करते दिखते हैं। इस दृष्टि से दीपावली का लोक उत्सव जीवन के हर क्षेत्र, घर-बार, खेत-खलिहान, रोजी-रोटी और व्यापार-व्यवहार सबसे जुड़ा हुआ है। इस अवसर पर भारतीय गृहस्थ की चिंता होती है घर-बाहर के परिवेश को स्वच्छ करना और निर्मल मन के साथ उत्साहपूर्वक आगामी चुनौतियों के लिए स्वयं को तैयार करना। प्रकृति की लय के साथ अपनी लय मिलाते हुए यह त्योहार जीवन में सुख, समृद्धि, उत्साह और गति के उत्सुक स्वागत का अवसर होता है।
इसका मुख्य आकर्षण है शक्ति के केंद्र प्रकाश की ऊर्जा से स्वयं को पुष्ट एवं संवर्धित करना। इसी भाव से गांव हो या शहर बच्चे हों या बूढ़े हर जगह हर किसी को प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु के बाद शीत के आरंभ की संधि वेला में दीपावली की आतुरता से प्रतीक्षा रहती है। यह भी अकारण नहीं है कि इस अवधि में उत्सवों की भरमार होती है। यह प्रकृति की सुषमा का ही प्रकटन है कि विजयदशमी से जिस मंगल-यात्रा की शुरुआत होती है, वह पूरे महीने भर चलती रहती है।
दीपावली के साथ उसके आगे-पीछे कई उत्सव भी जुड़े होते हैं। इनमें शरद पूर्णिमा (कोजागरी) और करवा चौथ के बाद आती है धनतेरस, जिस दिन धन्वंतरि जयंती भी होती है। इसी क्रम में छोटी दीपावली (नरक चतुर्दशी), काली पूजा (श्यामा पूजा या महा निशा पूजा), गोवर्धन पूजा, भैया दूज (यम द्वितीया) और चित्रगुप्त पूजा (बहीखाते और कलम की पूजा) और छठ की पूजा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इन उत्सवों को मनाने में पर्याप्त क्षेत्रीय विविधता भी दिखती है और विभिन्न समुदायों की भिन्न भिन्न रुचियां भी परिलक्षित होती हैं। समय के साथ होड़ ले रहे ये सभी त्योहार हमारी जिजीविषा के भी परिचायक हैं। समय के साथ इन्हें मनाने के तौर-तरीकों में बदलाव आता रहा है। कभी प्रकाश स्रोतों के लिए संघर्ष करना पड़ता था, लेकिन आज बिजली की महिमा से प्रकाश की कोई कमी नहीं है। हालांकि बिजली से भौतिक स्तर पर हमारी समस्या दूर हो जाती है, परंतु मन, बुद्धि और विचार में जो अंधेरा पलता रहता है उसका समाधान हमें स्वयं करना होता है। मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब मन का अंधेरा हमें अंधेरा ही नहीं लगता।
मनुष्य होने का एक अर्थ तो डार्विन महोदय की कृपा से यह समझ में आया है कि धरती पर प्राणियों के उद् विकास (इवोल्यूशन) के क्रम में सुदूर अतीत में कभी हम आज के दुपाए जीव के रूप में पहुंचे। साथ-साथ शरीर की जैविक रचना में परिवर्तन आया और आकार प्रकार भी बदला। मस्तिष्क की जटिलता और आकार भी बदला और एक लंबी छलांग के साथ हम आज के अर्थ में आदमी बन गए। होमो सेपियन होकर हममें सोचने-विचरने की विलक्षण क्षमता आ गई। इस काम में भाषा की उपलब्धि बड़ी मददगार हुई। इससे सोचने वाले दुपाए प्राणी के लिए वर्तमान में रहते हुए सोच-विचार के स्तर पर अतीत ही नहीं, अपितु भविष्य की कल्पना में भी आने-जाने की सुविधा मिल गई। अपनी रचनात्मक बुद्धि के जरिये मनुष्य ने नए प्रयोग शुरू किए। नित्य नई खोज के साथ धरती, पाताल और आकाश हर कहीं मनुष्य अपनी पदचाप छोड़ने लगा।
इस उन्नति का दूसरा पक्ष भी सामने है, जिसके चलते युद्ध, हिंसा, अविश्वास और अतिक्रमण का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा। अहंकार की घोर विभीषिका भी असर दिखाती जा रही है, जो सब कुछ लीलने पर आमादा है। पूरी सृष्टि हमारी भोग्य है, यह मानकर दर्प में डूबे मनुष्य को सिर्फ अपना सीमित अस्तित्व ही दिख रहा है। संस्कृति और प्रकृति के बीच एक अनवरत होड़ मच रही है कि किस तरह प्रकृति के साधन और शक्ति का अधिकाधिक दोहन कर संपदा अर्जित की जाए। यही अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मुख्य मुद्दा बन गया है।
भारतीय सोच इस दृष्टिकोण से भिन्न रहा है। उसमें मनुष्य इस ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है। न ही मनुष्य से इतर सृष्टि अकेले उसका भोग्य ही है। सिर्फ मनुष्य उसका अकेला भोक्ता नहीं है। आत्म या ब्रह्म या परम सत्ता या चैतन्य का विचार हमारे अस्तित्व की विराटता का स्मरण सदैव दिलाता रहता है। वेदांत का मोक्ष, बौद्ध मत का निर्वाण और योग का कैवल्य, ये सभी लक्ष्य मनुष्य जीवन के उद्देश्य के रूप में इसीलिए रखे गए कि अहंकार की तीव्र होती जा रही अंधी भूख पर लगाम लग सके। मनुष्य होने की सार्थकता मनुष्यता के सीमित आवरण वाली पहचान से बाहर निकलकर या कहें अपना अतिक्रमण कर व्यापक मनुष्यत्व को या समग्र जीवन की सत्ता को पहचान सके और आत्मसात कर सके। उसी के आलोक में मनुष्य को अपने कर्तव्य का निश्चय किया जाना चाहिए। शायद दूसरे का हित करना ही सुख की सही कसौटी है।
भौतिक शरीर के साथ जुड़े मनुष्य का जीवन अनंत नहीं होता है। उसका उपयोग और सार्थकता इसी में होती है कि उसका समुचित रूप से सदुपयोग हो। छोटे स्वार्थों के अधकचरे घरौंदों को बनाने-संवारने में हम टूटते भी हैं, परंतु अहंकार की ध्वनि और रूप के बीच उसकी आहट अक्सर अनसुनी कर देते हैं। तब कब दबे पांव अंधेरा जीवन में आ जाता है, यह पता ही नहीं चलता। हमारे जीवन का क्रम भी आज ऐसा ही बना जा रहा है।
काल का पहिया बिना रुके घूमता रहता है। दिन और रात के क्रम के साथ प्रकाश और अंधकार का अनुक्रम भी सदैव लगा रहता है। यानी दिन के प्रकाश से मिलने वाला आश्रय और संतोष नित्य नहीं रहने वाला है। सजग और सतर्क ढंग से अंधकार से जूझने के लिए सतत तैयार रहना जरूरी है। अस्तित्व और विश्व के प्रति हमारी दृष्टि ही जीवन-संग्राम का पाथेय होती है। विवेक कहता है कि विराट अस्तित्व के साथ जुड़ना जरूरी और कल्याणकारी है। इस जरूरत को पहचानना होगा और इसकी आवाज सुननी होगी। स्वयं को उसके साथ नियोजित भी करना होगा। सृष्टि की दीपावली में विराट प्रकाश का माध्यम बनना ही मनुष्य होने की सार्थकता है। संत रैदास के शब्दों में कहें तो हम प्रभु रूपी दीपक की बाती हैं: प्रभु जी तुम दीपक हम बाती जाकी जोत जरै दिन राती!

Rani Sahu
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