सम्पादकीय

बेरोजगारी के विरोधाभास

Gulabi
7 Aug 2021 5:11 PM GMT
बेरोजगारी के विरोधाभास
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यदि किसी नागरिक को एक सप्ताह में एक घंटे का ही काम मिलता है, तो

यदि किसी नागरिक को एक सप्ताह में एक घंटे का ही काम मिलता है, तो वह बेरोज़गार नहीं है। यदि नागरिक इतना-सा भी काम हासिल न कर पाने की स्थिति में है, तो उसे बेरोज़गार माना जाएगा। इसी तरह जो व्यक्ति एक दिन में औसत 375 रुपए या उससे कम ही कमा पाता है, तो वह गरीब है। ये बेरोज़गारी और गरीबी पर सरकार की परिभाषाएं हैं। यह उस देश की सरकार की मान्यताएं हैं, जो विश्व की छठे स्थान की अर्थव्यवस्था होने का दावा करती रही है और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना पाले हुए है। देश में कितने बेरोज़गार और गरीब हैं, भारत सरकार या नीति आयोग ने आज तक ऐसे किसी अधिकृत डाटा की घोषणा नहीं की है। यदि कोई निजी एजेंसी अपने सर्वे के आधार पर बेरोज़गारी और गरीबी के आंकड़ों का खुलासा और विश्लेषण करती है, तो सरकार और भाजपा के प्रवक्ता उसे खारिज कर देते हैं, लेकिन देश के सामने एक अनुमानित तस्वीर जरूर उभर आती है। क्या हास्यास्पद विडंबना है…! विशेषज्ञ यह तथ्य कई बार दोहरा चुके हैं कि करीब 23 करोड़ भारतीय गरीबी-रेखा के नीचे आए हैं। गरीबी-रेखा के नीचे जीने को जो पहले से ही अभिशप्त हैं, वे आंकड़े इनसे अलग हैं। यह गरीबी की नई जमात है। इसमें आर्थिक मंदी और कोरोना महामारी दोनों की ही भूमिकाएं हैं। करीब 97 फीसदी लोगों की आय औसतन वही है, जो 4-5 साल पहले होती थी। उस पर एक और भयानक वज्रपात यह हुआ है कि जुलाई, 2021 में ही करीब 32 लाख लोगों की नौकरियां छिन गई हैं। उनमें करीब 26 लाख शहरी थे, नतीजतन करीब 7.64 करोड़ ही वेतनभोगी बचे हैं। दिलचस्प और चौंकाने वाला आंकड़ा यह है कि भारत सरकार दावा कर रही है कि बेरोज़गारी घटी है। करीब 24 लाख छोटे दुकानदार, रेहड़ी-पटरी वाले और दिहाड़ीदार बढ़े हैं। सरकारी आंकड़ों का खुलासा है कि करीब 30 लाख लोग किसानी के धंधे से जुड़े हैं।

ये नए किसान हैं, जबकि राजधानी दिल्ली के बाहर बीते 8 माह से धरने पर बैठे किसान अपने आर्थिक हालात और धंधे के लगातार घाटे को लेकर रो रहे हैं। सरकार ने जिन आधारों पर बेरोज़गारी कम होने का दावा किया है, उन्हें मुकम्मल रोज़गार भी करार दे रही है। हकीकत यह है कि जो प्रवासी मज़दूर या कामगार अपने गांव को, कोरोना-काल के दौरान, लौटे थे, उनमें से कई तो परिवार की परंपरागत खेती-किसानी में जुट गए हैं। सरकार उन्हें 'पूरा किसान' मान रही है। यह आत्म-छलावे की सोच है। यह भी महत्त्वपूर्ण डाटा है कि करीब 50 फीसदी प्रवासी मज़दूर अपने गांवों से शहरों को लौटे ही नहीं हैं। जो लौटे भी हैं, वे औने-पौने वेतन या दिहाड़ी पर काम करने को विवश हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की ताज़ा रपट में अनेक खुलासे किए गए हैं, जो नए भारत की असली तस्वीर बयां करते हैं। सरकार के ही स्वास्थ्य, शिक्षा, रेलवे, गैर-शिक्षक, आंगनवाड़ी आदि विभागों में लाखों रिक्तियां अधिकृत हैं और पद खाली पड़े हैं, लेकिन उन्हें भरा क्यों नहीं जा रहा है? प्रधानमंत्री मोदी ने नया खुलासा किया है कि पहली बार 2020-21 के दौरान भारत का निर्यात 2.5 लाख करोड़ रुपए को पार कर गया है। भारत कृषि क्षेत्र में विश्व के शीर्ष 10 देशों में शामिल हो चुका है। अर्थव्यवस्था ठोस रूप से बढ़ रही है। यदि आर्थिक स्रोत और संसाधन बढ़ रहे हैं, तो लाखों खाली पड़े पदों पर ही भर्तियां करके बेरोज़गारी को कम क्यों नहीं किया जा सकता? सरकार ही सफाई दे सकती है कि बेरोज़गारी के विरोधाभास कब समाप्त होंगे?

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