सम्पादकीय

रस्मी हो गई हिंदी पखवाड़ा मनाने की परंपरा

Rani Sahu
16 Sep 2022 6:57 PM GMT
रस्मी हो गई हिंदी पखवाड़ा मनाने की परंपरा
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हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ा मनाने की राष्ट्रीय परंपरा अब धीरे-धीरे रस्मी होती सरकारी संस्थाओं, संस्थानों की औपचारिकता बनती जा रही है। कुछ समय पूर्व हिंदी पढ़ाने और पढऩे वालों में इस दिवस पर छोटा-बड़ा आयोजन करने की स्वैच्छिक भावना से स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा आयोजन होते। लंबी यात्रा करके लेखक, सदस्य उसमें सम्मिलित होते। हिंदी के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करने की चाहना हर किसी के मन में होती। कांगड़ा में सन् 1957 में पंजाब तरुण साहित्य परिषद की शाखा थी जिसके संयोजक पपरोला निवासी श्री ओम प्रकाश प्रेमी थे। वह जीएवी स्कूल में हिंदी के अध्यापक थे, जिनके लिए प्रभाकर होना ज़रूरी था। उन दिनों हिंदी अध्यापक और प्रभाकर को विद्यालयों में बड़ा सम्मान दिया जाता था। उस समय पंजाब विश्वविद्यालय से लोग प्रभाकर, मैट्रिक, बीए बगैरा करते थे। तब कांगड़ा में श्री रत्न लाल मिश्रा जी प्रिंसिपल हुआ करते थे, जो बहुत ही विद्वान और प्रभावी व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे तरुण परिषद के संरक्षक और श्री पदमनाभ त्रिवेदी जी अध्यक्ष थे। मैं, श्री धर्मपाल चातक और पीयूष गुलेरी उसके संस्थापक सदस्य थे। उस्ताद कासिर उर्दू के अदबी शायर थे, लेकिन इसमें शामिल होते और इस्लाह, मश्विरा भी देते। वास्तव में कांगड़ा में हिंदी कविता को प्रारंभ में मंच प्रदान करने में ओमप्रकाश प्रेमी जी का उल्लेखनीय योगदान रहा।
इसके बाद पंजाब हिंदी साहित्य संगम की स्थापना पंडित चंद्रधर गुलेरी जी की जयंती पर गुलेर में आयोजित हिंदी सम्मेलन में हुई जिसमें पंजाब के प्रतिष्ठित साहित्यकार मोहन मैत्रेय आदि उपस्थित थे। इन दोनों संस्थाओं के प्रेरक श्री संतोष आचार्य जी रहे जो उस समय दैनिक वीर प्रताप के मुख्यालय जालंधर में हिंदी के सह संपादक थे। उस समय हम डाक द्वारा जो सामयिक रचनाएं भेजते, वे उन्हें प्रकाशित करते। हम बड़े प्रेरित होते। सन् 1975-76 में धर्मशाला में हिमाचल साहित्यकार संस्था का गठन हुआ। डा. पीयूष गुलेरी महासचिव और प्रो. चंद्रवर्कर अध्यक्ष बने। उस समय धर्मशाला कालेज में हिंदी के प्रति श्रद्धा रखने वाले प्रोफैसर इसके सदस्य बने, जैसे प्रो. परमानंद शर्मा अंग्रेजी के प्रोफैसर हैं, हरियाणा के राजकवि तथा अंग्रेज़ी के ही प्रोफैसर डा. आत्माराम जी भी काफी प्रेरक रहे हम सबके लिए। प्रो. कुलभूषण कायस्था गणित के थे। उस समय शबाब ललित फील्ड पब्लिसिटी अफसर थे। जिस भी जगह जाते वहां छोटा-बड़ा मुशायरा ज़रूर करवाया करते। उनके माध्यम से भी कांगड़ा के कवियों को उर्दू, पंजाबी के शायरों से मिलने-सीखने के अवसर मिले। इन्हीं मुशायरों में हमारी मुलाकात डा. शम्मी शर्मा, मनोहर सागर पालमपुरी, सुदर्शन कौशल नूरपुरी, कंवर ध्यानपुरी, प्रोफैसर ओम अवस्थी, प्रेम भारद्वाज, प्रिंसिपल केसरी लाल, देसराज डोगरा, पवनेन्द्र पवन, प्रत्यूष गुलेरी आदि हिंदी साहित्यकारों से हुई। देसराज डोगरा जी बीडीओ हुआ करते। वह कुछ समय बंबई, लखनऊ भी रहे थे। श्री यशपाल के संपर्क में भी थे। उन्हें कवि सम्मेलन करवाने का बड़ा शौक था। हिमाचल के पूर्व शिक्षा मंत्री शिव कुमार जी के करीब थे। भटियात स्यूंता में भी खूब कवि सम्मेलन हुए उस समय। हिंदी साहित्य संगम का विशाल अधिवेशन कांगड़ा स्थित पदमनाभ त्रिवेदी जी के विद्यालय के प्रांगण में संभवत: 1968 में हुआ था जिसमें हिंदी उपन्यासकार श्री यशपाल, तत्कालीन हिमाचल प्रदेश के भाषा-संस्कृति मंत्री श्री लाल चंद प्रार्थी, माननीय पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, डा. कमलेश अध्यक्ष हिंदी विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, डा. चंद्र शेखर रीडर हिंदी विभाग पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला, प्रो. रामनाथ शास्त्री जम्मू आदि विद्वानों से मिलने, उनके विचार सुनने का अवसर मिला। इतने बड़े सम्मेलन का व्यय किसने कब किया, हमें पता नहीं चला।
तब कहीं से सरकारी सहायतानुदान की परंपरा नहीं थी। चाय, पानी, भोजन सब स्वैच्छिक व्यवस्था थी। अब ऐसे आयोजन कम हो गए हैं। पंडित वेद प्रकाश अध्यक्ष ब्राह्मण कल्याण परिषद अब उस भूमिका को निभा रहे हैं, जो प्रशंसनीय है। आज जब भी ऐसे दिवस आते हैं तो बीते दिनों की स्मृतियों का मन मस्तिष्क में उतरना स्वाभाविक है। सन् 1973 में कांगड़ा के साहित्यकार कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद का गठन होने पर उसके सदस्य बने और यह संख्या काफी बढ़ती गई। लगभग आज के नामी साहित्यकार इसके सदस्य रहे, जिनके सहयोग से कांगड़ा के सभी नगरों में आयोजन हुए, जिनके लिए वहां के मुख्य अध्यापक, प्राचार्य सहयोगी रहे। परंतु धीरे-धीरे यह स्वैच्छिक भावना घटती गई। अनेक संस्थाओं का उदय भी हुआ अपने-अपने क्षेत्रों में, परंतु सामूहिक साहित्यिक चेतना का ह्रास होता गया। अब तो हम सभी भाषा विभाग और भाषा, कला, संस्कृति अकादमी के निमंत्रण की प्रतीक्षा में रहते हैं। आ गया तो पहचान में उल्लसित, न आया तो तनिक निराश व उपेक्षित भी महसूस करने लगते हैं। सबको हिंदी दिवस की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं। इस आलेख की अगली किस्त में कई अन्य स्मृतियों पर चर्चा करेंगे। -क्रमश:
डा. गौतम शर्मा 'व्यथित'
वरिष्ठ साहित्यकार
By: divyahimachal
Rani Sahu

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