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जमाना ही देखने, दिखने और दिखाने का है!
वे इधर देख रह थे. उधर देख रहे थे. बहुत कुछ देख रहे थे. देखने तक तो ठीक था, लेकिन जब वह अपनी आंखों देखी को अपनी वाणी के जरिए दुनिया को दिखाने लगे, तो फजीहत में फंस गए. उनका नाम तीरथ सिंह रावत है. एक अदद फटी जींस में झांककर जितना उन्होंने नहीं देखा, उतना उन्हें अब लोग देख रहे हैं. उनकी मानसिकता देख ली गई. उनकी तहजीब दिख गई. उनकी सोच दिखाई दे गई. उनका बैकग्राउंड दिख गया. कुल मिलाकर उनका सब-कुछ दिख गया या फिर उन्हें सर्वस्व देख लिया गया. दिखने और देख लिए जाने का ये सिलसिला बदस्तूर जारी है. हद तो ये कि एक फटी जींस देखने के बदले रावत जी को किस्म-किस्म की फटी जींस दिखाई जा रही हैं.
ये दिखने की जो समस्या है न वही बहुत जालिम है. उन्होंने जो देखा था सो देखा था, लेकिन देखे को जिस तरीके से बयां किया यानी दिखाया वह देखने लायक बन गया. वैसे सच तो ये है कि विमान में फटी जींस देखने का जो वर्णन उन्होंने किया उसके पीछे भी कहीं-न-कहीं खुद को दिखाने की चाहत ही है, लेकिन पता नहीं था कि खुद को दिखाते-दिखाते यूं देख लिए जाएंगे.
जमाना ही देखने, दिखने और दिखाने का है!
वैसे रावत जी के साथ बहुत बड़ा वाला अन्याय हो गया है. भाई ये जमाना ही देखने, दिखने और दिखाने का है. ज्ञान न हो तो भी खुद को ज्ञानी दिखाने का. समाज में कोई मान न हो, फिर भी खुद को सम्मानित दिखाने का. कूवत न हो, फिर भी खुद को कद्दावर दिखाने का. ऐसे में उन्होंने कुछ देख लिया और देखकर दिखा दिया, तो ऐसा भी क्या तूफान आ गया.
खुद भी अचानक ही दिखे थे रावत
दिलचस्प ये है कि वह खुद कुछ दिनों पहले अचानक दिखे थे. पुराने वाले रावत जी की विदाई के बाद मीडिया के अनुमानों और कयासों में वह कहीं नहीं दिख रहे थे, लेकिन अचानक दिखे तो बतौर देवभूमि के मालिक दिखे. फिर जैसे मान लिया कि वह कुछ भी देख सकते हैं. लेकिन भूल गए कि देखने तक तो ठीक है, देखे को पब्लिकली दिखाने में देख लिए जाने का डर है. और हुआ भी वही.
अब रावत जी ने जितना विमान में नहीं देखा, उससे ज्यादा अब दुर्दिन देखना पड़ रहा है. विमान में तो एक अदद फटी जींस ही देखी थी. अब जो हो रहा है वो सब आलाकमान को दिख चुका है. नड्डा साहब ने तलब भी किया है. आइंदा फिर से 'न दिखने वाला नेता' बना दिए जाने का खतरा साफ दिख रहा है.
देखने-देखने वाले में फर्क!
वैसे फर्क इससे भी पड़ता है कि देखने वाला कौन है? बड़े लोगों का देखना कई बार दिव्य दृष्टि होती है. वही चीज कोई अदना देखे, तो उसकी तुच्छ दृष्टि. रावत जी को लगा कि वह बहुत बड़े हो गए हैं. लिहाजा उनके देखे को दुनिया देखना चाहेगी. दिव्य दृष्टि मानकर सराहेगी. लेकिन यहां तो लेने के देने पड़ गए. रावत की देखी फटी जींस में लोगों ने तो टांग ही अड़ा दी.
समाजवादी-साम्यवादी जींस!
थोड़ी गहराई से सोचें तो जींस समाजवाद का सुंदर प्रतीक है और साथ में साम्यवाद का भी. अमीर भी शान से पहनता है, गरीब भी. अपने मिलते-जुलते रंग-रूप से अमीर और गरीब के बदन पर कुछ खास फर्क नहीं पैदा करती. दोनों को समभाव से दुनिया के सामने दिखाती है. लेकिन पूंजीवादी राजनीति के मौजूदा दौर में साम्यवादी या समाजवादी जींस का क्या काम? इतनी आपत्ति ही है तो अध्यादेश लाकर अभी के अभी जींस को बैन किया जाए. न रहेगी जींस, न फटेगी जींस, न फटे पर फसाद कराएगी जींस. फिर भले ही ये बेचारी जींस यह कहते हुए आंसू बहाए कि:-
फटी हुई जींस हूं
मगर अपने विस्तार में असीम हूं
गरीबी की निशान भी हूं
समृद्धि की पहचान भी हूं
नजरिये की बात है
दिखता एकसमान हूं
सबका अभिमान हूं
मेरे फटे होने पर विवाद कैसा
मैं तो अमीरों-गरीबों को पेश करता हूं एक जैसा
देखने-दिखने-दिखाने को मौलिक अधिकार बनाइए
कुछ लोग रावत जी की सिलाई पर आमादा हैं. कह रहे हैं कि उनकी सोच की सिलाई की जरूरत है. हम उनकी रफ्फू करके रहेंगे. जाने भी दीजिए. सीएम हो गए तो उनसे जलिए मत. उनका अधिकार मत छीनिए. दूसरों की देखने, दिखाने को संविधान में बतौर मौलिक अधिकार शुमार कराने की सोचिए. और हो सके तो फटी जींस पर थोड़ा रहम कीजिए.
Gulabi
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