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हर शाम करीब सात हफ्ते से अधिक वक्त तक चलने के बाद जब आईपीएल (IPL) खत्म हो गया है
बिक्रम वोहरा
हर शाम करीब सात हफ्ते से अधिक वक्त तक चलने के बाद जब आईपीएल (IPL) खत्म हो गया है, सैकड़ों, हजारों क्रिकेट के दीवाने लोगों की स्थिति वैसी होगी जैसे कोई पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर हो. वो सब उसके शिकार हो जाएंगे क्योंकि उनके लिए सामान्य जीवन व्यतीत करने के लिए काफी हद तक खुद को एडजस्ट करना होगा. आईपीएल खत्म होने के बाद वापसी के लक्षण किसी नशे की तरह वास्तविक होंगे जो अवसाद को जन्म दे सकते हैं. दिन-ब-दिन लगातार चार घंटे नशे की तरह लाइव क्रिकेट (live cricket) देखने का दिमाग पर तो असर होगा ही, किसी टीम का पागलपन की हद तक समर्थन करना, उसके हारने पर खुद अपनी हार का बोध होना भी हानि पहुंचाता है. हम एक चीज रोज देखने के आदी हो चुके होते हैं
अचानक अपना दैनिक खुराक नहीं मिलने पर हम परिवार वालों से एक नए ढंग से सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते हैं. चिकित्सा विज्ञान कहता है कि फील गुड फैक्टर का खत्म हो जाना और किसी घटना के साथ उद्देश्यपूर्ण संबंध में गिरावट हमें आहत करती है.
ऐसी बुरी स्थिति होने पर एप्लाइड रिसर्च इन क्वालिटी ऑफ लाइफ जर्नल के मुताबिक जब एक आनंददायक अनुभव, जिससे हमें खुशी मिल रही होती है, खत्म हो जाता है तो हमारी खुशी में जोरदार गिरावट आती है और यह सामान्य स्तर पर पहुंच जाती है. अचानक जीवन उबाऊ हो जाता है और पुरानी लीक पर चलने लगता है. किसी चीज के खत्म होने सेधोखाहोने का बोध होता है और जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना आसान नहीं होता. सामान्य जीवन में वापसी के दौरान जलन, अधीरता और छोटी-छोटी बात पर गुस्सा होना आम हो जाता है.
लोयोला यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के मनोचिकित्सक डॉ. एंजेलोस हैलारिस प्रशंसकों में तनाव को लेकर सहानुभूति रखते हैं. जब हम शराब पीना, सिगरेट पीना छोड़ देते हैं तब जो चिड़चिड़ापन हम महसूस करते हैं कुछ वैसा ही यहां पर भी होता है. ऐसे में निराशा वास्तविक महसूस होती है. चिकित्सकीय रूप सेजब आप अपनी टीम का समर्थन कर रहे होते हैं तब मस्तिष्क के न्यूक्लियास एक्यूमबेन से डोपामाइन नाम के एक न्यूरोट्रांसमीटर का स्त्राव होता है. यह'फील गुड'फैक्टर में वृद्धि करता है. हर रोज किसी चीज को देखने का हमें नशा हो जाता है और जब यह नशीली चीज मिलनी बंद हो जाती है तो मन में कहीं नाटकीय ढंग से कुछ छूट जाने का अहसास होता है. यह एक ऐसा नशा है जिसे छूटने में लंबा वक्त लग जाता है.अत्यधिक तीव्रता के साथ खेले गए रहस्य, रोमांच से भरपूर दो फाइनल मैचों के बाद अचानक सब कुछ रुक जाता है. बोरिया-बिस्तर बांधो और चल पड़ो.
शुरुआती कुछ दिन सबसे बुरे बीतते हैं. चूंकि खेल में शामिल समर्थकों में 90 फीसदी से अधिक लोग हारने वाले पक्ष में होते हैं, उनमें निराशा के साथ घबराहट भी होती है. यहां तक की दफ्तर में भी माहौल अचानक तर्क और बहस रहित हो जाता है, क्योंकि हफ्तों से जारी बड़ाई, आलोचना कुछ हफ्तों बाद वहां भी बंद हो जाती है.
आज के दौर में हर कोई उस किशोर की तरह कदम नहीं उठाता जिसने 2018 में आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे मैच नहीं देखने दिया गया या बंगलुरू के उस सट्टेबाज की तरह जिसने अत्यधिक पैसे हारने के बाद मौत को गले लगा लिया या चेन्नई और मोहाली के किसानों की तरह जिन्होंने मैच की जगह बदलने को मजबूर कर दिया. लीग खत्म होने के बाद कहीं भी मनोचिकित्सक का परामर्श उप्लब्ध नहीं होता और इसे बस एक हल्का-फुल्का प्रभाव मान लिया जाता है लेकिन इससे कई लोगों के दिमाग और करियर पर इतना बुरा असर पड़ता है कि मनोवैज्ञानिकों ने इसे खेल के पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर का नाम दिया है.
ऐसे में काफी लोग अपने करियर और दिमाग को चोट पहुंचाते हैं जिससे लगता है कि खेल में भी पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर जैसी कोई चिकित्सीय बीमारी के लिए जगह है.
देखिए टूर्नामेंट को लेकर किस तरह से हौवा खड़ा किया जाता है. टीमों को कपट भरा नाम दिया जाता है. सभी टीमें या तो शाही (रॉयल) होती हैं या आदमी से आदमी लड़कर मरने वाला ग्लैडिएटर. यहां पर भरपूर सर्कस होता है.उनका विज्ञापन आक्रामक और काफी उग्र होता है. मीडिया उस आक्रामकता को और सुनिश्चित करता है. जब हम टीवी, वेब या अखबारों में देखते हैं तो बर्बाद कर दिया, ध्वस्त कर दिया, मिटा दिया, पीट दिया, तोड़ दिया, कुचल दिया जैसे कुछ गिनती के शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाता है. हम खुद अपनी मर्जी से खेल का हिस्सा बन जाते हैं और उसके प्रति आसक्त हो जाते हैं और हालत एक नशेड़ी जैसी हो जाती है जो अपने अगले नशे के शॉट की तलाश में है.
सबसे सक्रिय भावनाएं घृणा, हिंसा, गुस्सा और संदेह होती हैं और हम टीमों के चयन को लेकर भी आरोप लगाते हैं. आपने सैकड़ों बार देखा होगा कि आईपीएल का नशा पूरे देश को अपने गिरफ्त में ले लेता है. इसकी तुलना आप परिवार में शादी से कर सकते हैं. एक बार जब डोली चली जाती है तो परिवार वालों में खालीपन वाला भाव होता है. कैनवास कोरा हो जाता है, आगे देखने के लिए कुछ नहीं बचता.
इसलिए अब जब फाइनल खत्म हो चुका है और जीतने वाले को उसका पुरस्कार मिल चुका है, आप भी उस पर ज्यादा ध्यान बंद कर दीजिए. अमेरिकी सलाहकार एंथनी सेंटोर यह आकलन करते हैं: ये लक्षण गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं,लेकिन अच्छी खबर यह है कि खेलों के फैन्स के डिप्रेशन से उबरने के लिए अब हमारे पास प्रभावी तकनीकें हैं.
सबसे पहले आपको एक कदम पीछे हटना चाहिए और यह बात याद रखनी चाहिए कि यह केवल एक खेल है. यह भावनात्मक रूप से आपको आवेशित जरूर करती है, मगर यह खेल इतना बड़ा नहीं है जितना देखने में लगता है या बना दिया जाता; सच्चाई यही है कि आपके जीवन का बड़ा हिस्सा इस नुकसान से अप्रभावित रहता है. इसके अलावा यह महत्वपूर्ण है कि आप सामाजिक बने रहें. अगर खेल का मौसम खत्म होने के बाद आप खालीपन महसूस कर रहे हैं तो अपने खेल देखने वाले दोस्तों के साथ वक्त बिताएं और खेल के दौरान के पुराने लम्हों को याद करें. आप दूसरे सामाजिक काम भी कर सकते हैं.
दुखी, परेशान लोगों को न्यू जर्सी के एक प्रमाणित प्रशंसक परामर्शदाता ग्लेन मिलर यह सलाह देते हैं,"मैं कहूंगा कि आप उस खत्म हुए गेम से अपने कदम पीछे खींच लें और आपको जो कुछ भी पसंद है वह करने की कोशिश करें. यह संगीत हो सकता है, टेलीविजन शो हो सकता है. जो बीत चुका है उससे आप भावनात्मक रूप से दूरी बना लें. आपको विवेक से काम लेना होगा और इस बात को समझना होगा कि गेम में हार से परेशानी तो होती है मगर… आगे अभी लंबा जीवन बाकी है."
सोर्स-tv9hindi.com

Rani Sahu
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