सम्पादकीय

कोरोना संकट से उपजे हालात पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से जूझ रहे तंत्र का मनोबल गड़बड़ा सकता है

Gulabi
28 April 2021 1:36 PM GMT
कोरोना संकट से उपजे हालात पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से जूझ रहे तंत्र का मनोबल गड़बड़ा सकता है
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कोरोना संकट से उपजे हालात पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी की कोई आवश्यकता नहीं थी कि वह मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकता

भूपेंद्र सिंह। कोरोना संकट से उपजे हालात पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी की कोई आवश्यकता नहीं थी कि वह मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकता। ऐसी कोई टिप्पणी तो तब मायने रखती, जब यह सवाल उठा होता कि आखिर इस राष्ट्रीय संकट के समय शीर्ष न्यायपालिका क्या कर रही है? सुप्रीम कोर्ट इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि देश के कई उच्च न्यायालय भी कोरोना संकट से जुड़े मामलों की सुनवाई कर रहे हैं। उनमें से कई राज्य सरकारों को डांटने-फटकारने में लगे हुए हैं। जब उच्चतर अदालतें यह देख रही हैं कि केंद्र, राज्य और उनका प्रशासन कोरोना संकट से निपटने के लिए अपने स्तर पर भरसक कोशिश कर रहा है, तब फिर उनके खिलाफ कठोर टिप्पणियों से बचा जाना चाहिए। ये टिप्पणियां संकट से जूझ रहे तंत्र के मनोबल को प्रभावित करने अथवा उनकी प्राथमिकताओं को गड़बड़ाने वाली साबित हो सकती हैं। नि:संदेह वहां अवश्य हस्तक्षेप किया जाए, जहां जानबूझकर हीलाहवाली हो रही है, लेकिन यह समझना कठिन है कि मद्रास उच्च न्यायालय इस नतीजे पर कैसे पहुंच गया कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के लिए केवल चुनाव आयोग जिम्मेदार है। चुनाव तो केवल पांच राज्यों में हो रहे हैं। आखिर जिन राज्यों में चुनाव नहीं हो रहे, वहां कोरोना क्यों फैला? क्या चुनाव आयोग के कारण ही?

मद्रास उच्च न्यायालय को यह भी देखना चाहिए कि कुछ राज्यों में पंचायत चुनाव तो संबंधित उच्च न्यायालयों की सहमति से ही हो रहे हैं। यह भी ध्यान रहे कि संक्रमण की दूसरी लहर की आशंका के बाद भी किसी को यह अनुमान नहीं था कि हालात इतनी तेजी के साथ इतने भयावह हो जाएंगे। स्वास्थ्य ढांचा केवल इसलिए नाकाफी नहीं साबित हो रहा कि वह कमजोर था, बल्कि इसलिए भी हो रहा, क्योंकि कोरोना मरीजों की संख्या अचानक बहुत बढ़ गई। इसके कारण ही अस्पतालों में बेड, दवाओं और ऑक्सीजन की तंगी हो गई। यदि जिन अस्पतालों में पांच-दस मरीजों को ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती थी, उनमें यकायक सौ-दो सौ मरीजों को उसकी आवश्यकता पड़े तो हालात हाथ से फिसलेंगे ही। अच्छा होता ऐसा न होता, लेकिन जब ऐसी स्थिति विकसित देशों तक में बन चुकी है तब फिर भारत की क्या गिनती? इस बुनियादी बात को सरकारों पर तंज कसने वाले राजनीतिक दलों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया के उस वर्ग को भी समझना चाहिए, जो सरकारी तंत्र को नाकाम-निष्क्रिय बताने के लिए उत्साहित दिख रहा है। क्या विदेशी मीडिया का यही रवैया अमेरिका, इटली के संकट के समय भी था? यदि नहीं तो फिर उसे कोरोना की दूसरी लहर के रूप में जो संकट भारत के समक्ष आ खड़ा हुआ है, उसकी गंभीरता क्यों नहीं समझ आ रही है?
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