सम्पादकीय

निहित स्वार्थों वाले एक इकोसिस्टम की अंधविरोध वाली प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र, राष्ट्रीय अस्मिता और संप्रभुता के लिए बड़ी चुनौती बन रही है

Gulabi Jagat
14 March 2022 2:46 PM GMT
निहित स्वार्थों वाले एक इकोसिस्टम की अंधविरोध वाली प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र, राष्ट्रीय अस्मिता और संप्रभुता के लिए बड़ी चुनौती बन रही है
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पिछले दिनों पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आए
विकास सारस्वत। पिछले दिनों पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आए। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को अपेक्षा से अधिक सफलता मिली है। उसने पांच में से चार राज्यों में जीत हासिल की। चुनाव नतीजों के अगले दिन निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' भी सिनेमाघरों में आई। इस फिल्म को देखने के लिए पूरे देश में अपार जनसमूह उमड़ रहा है। विधानसभा चुनाव के नतीजों और 'द कश्मीर फाइल्स' में कोई परस्पर संबंध न होते हुए भी एक बात समान है और वह है दोनों पर एक खास वर्ग की नकारात्मक प्रतिक्रिया। इस प्रतिक्रिया में दुराग्रह से भरा समान राजनीतिक स्वर था। स्वयंभू और स्वघोषित बुद्धिजीवियों के इस वर्ग ने जहां पूरी तरह तथ्यों पर आधारित 'द कश्मीर फाइल्स' को प्रोपेगेंडा फिल्म करार दिया, वहीं करोड़ों लोगों की जनतांत्रिक अभिव्यक्ति के फलस्वरूप आए चुनावी नतीजों को निराशाजनक एवं भारत की आत्मा पर चोट बता दिया। किसी ने इन चुनाव नतीजों को नफरत और सांप्रदायिकता की जीत बताया तो किसी ने भाजपा की कुटिल रणनीति की सफलता। उत्तर प्रदेश में जिन्ना के आह्वïान से शुरू हुए चुनाव प्रचार में मतदाताओं को खुलेआम दी गई धमकियों द्वारा सांप्रदायिकता और नफरत का जहर किसने परोसा, यह सभी ने देखा, परंतु इस वर्ग का तथ्य और सत्य से कोई सरोकार नहीं है।
दरअसल स्वभाव से वामपंथी और कांग्रेस पार्टी की दशकों लंबी सत्ता द्वारा पोषित वर्ग ने विश्वविद्यालय हों या मीडिया, बालीवुड हो या नौकरशाही, एक ऐसे समूह का निर्माण किया है, जिसकी स्वार्थ सिद्धि के लिए पुरानी व्यवस्था ही अनुकूल बनती है। इस समूह को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से चिढ़ है। नेहरूवाद में रचे बसे इस वर्ग के लिए भाजपा प्रतिद्वंद्वी से कहीं बढ़कर एक दुश्मन है। इस प्रभावशाली और संगठित समूह ने एक ऐसे व्यापक तंत्र का निर्माण किया है, जो पुराने राजनीतिक और वैचारिक आधिपत्य के लिए बेहतरीन तालमेल के साथ दिनरात एक इकोसिस्टम की तरह काम करता है। इस इकोसिस्टम की तत्परता और सक्रियता अचंभित करने वाली है। चुनाव नतीजे हों या किसी विधेयक की तैयारी या इन्हें रास न आने वाली अन्य कोई पहल, इस इकोसिस्टम के पास अपने कुतर्क के प्रसार के लिए देश-विदेश तक सैकड़ों मंच पहले से तैयार रहते हैं। इस इकोसिस्टम में इस्लामी चरमपंथियों के गठजोड़ ने सड़कों पर मजहबी विरोध को दैनिक क्रिया बना दिया है। कथित पंथनिरपेक्षता और उदारवाद का छद्म वेश लिए यह तंत्र इतना गहरा और मजबूत है कि पांच-पांच वर्ष पर आने-जाने वाली सरकारों के ऊपर भी भारी पड़ता है।
संगठित या व्यग्र होना अपने आप में अपराध नहीं है, परंतु अक्सर देखा गया है कि एक खास किस्म का इकोसिस्टम अपने एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए बेहिचक असत्य और दोगलेपन का सहारा लेता है। नागरिकता संशोधन कानून हो या कृषि कानून या राफेल विमान खरीद, इस इकोसिस्टम द्वारा झूठ को पांव देने का पुरजोर प्रयास किया गया। इसी कारण कोरोना की दूसरी लहर के दौरान नदी में शवों को बहाने के मामले में दायर की गई जनहित याचिका को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 'पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन' यानी जनहित याचिका की जगह 'पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन' अर्थात प्रचार पाने वाली याचिका करार दिया। राफेल मामले में स्वयं राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगनी पड़ी, लेकिन न उनका रवैया बदला और न उनके इकोसिस्टम का। यह इकोसिस्टम नारी मुक्ति की बात और हिजाब एवं तीन तलाक का बचाव भी एक सांस में कर लेता है। यह अल्पसंख्यकों से संबंधित छोटे-बड़े अपराधों को वैश्विक समाचार बना देता है, परंतु किसी हिंदू या हिंदूवादी संगठन के कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर मौन साध लेता है। चाहे शिमोगा में हिजाब का विरोध करने पर हुई हर्ष की हत्या हो या फिर तंजावुर में मतांतरण के दबाव के चलते लावण्या की आत्महत्या, यह इकोसिस्टम इन खबरों को पूरी तरह पचा गया। लव जिहाद में भले ही हर वर्ष दर्जनों युवतियां अपनी जान गंवाती हों, मगर यह समूह इसे सिरे से नकारता रहता है। इसी प्रकार विधानसभा और पंचायत चुनावों में बंगाल में हुई भयानक हिंसा को भी इस प्रभावशाली गुट द्वारा दबा दिया गया।
केवल और केवल सत्ता परिवर्तन को ध्येय बनाकर अंधविरोध की प्रवृत्ति वाला इकोसिस्टम स्वस्थ लोकतंत्र और राष्ट्रीय अस्मिता एवं संप्रभुता के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। चुनाव पूर्व पत्रकारिता की आड़ में माहौल बनाने का प्रयास करने वाली शक्तियां मनमाफिक नतीजे न आने की स्थिति में जनता पर झांसे में आ जाने या सांप्रदायिक हो जाने के आरोप लगाकर जनमत का अपमान करती हैं। इसी प्रकार जिस समय भारत सरकार यूक्रेन से छात्रों को युद्ध जैसी विभीषिका से सुरक्षित स्वदेश लाने का प्रयास कर रही थी, तब नकारात्मक प्रचार कर राष्ट्रीय मनोबल तोडऩे का प्रयास जारी था। शासकीय एजेंडे पर इस समूह का असंगत प्रभाव भारी चिंता का विषय है। इस इकोसिस्टम की मंशा जनतंत्र में तटस्थ भागीदार बनना या राष्ट्रीय विमर्श को निष्पक्ष या परिपक्व बनाना न होकर भारत का भाग्यविधाता बनने की हो चली है। अपने ध्येय साधने के लिए विदेशी किरदारों से मदद इस इकोसिस्टम के लिए शर्म की बात नहीं रही है, बल्कि भारत को पश्चिम के समक्ष बार-बार कठघरे में खड़ा करना और पश्चिमी नेतृत्व से भारत के खिलाफ सख्ती की मांग अब आम हो चली है। सेंसर की तरह काम करने वाला यह शक्तिशाली तंत्र न सिर्फ मनपसंद व्यक्तियों एवं संस्थाओं पर 'प्रामाणिकता' की अपनी मुहर लगाता है, बल्कि यह भी तय करता है कि कौन से मुद्दे विमर्श का हिस्सा बनेंगे और कौन से नहीं? यही तंत्र दोषियों को उत्पीड़ित बना देता है और जनसंहार के पीडि़तों को दृष्टि पटल से ओझल कर देता है। यही कारण है कि 'द कश्मीर फाइल्स' में हुए तथ्यात्मक चित्रण ने इस वर्ग को उद्वेलित कर दिया है। देखा जाए तो यह इकोसिस्टम राज्य के भीतर एक और राज्य की तरह बर्ताव कर रहा है। इसे न तो शासकीय मर्यादाओं का लिहाज है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं की परवाह है। निहित स्वार्थ और दांव पर लगी बहुत बड़ी बाजी के चलते यह अपेक्षा करना भूल होगी कि यह समूह स्वयं अपने व्यवहार में परिवर्तन लाएगा। ऐसे में यह जिम्मेदारी नागरिकों की है कि इनके मंसूबों को सफल न होने दे।
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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