सम्पादकीय

नरेंद्र मोदी के निराले बीस वर्ष

Gulabi
18 Sep 2021 4:59 PM GMT
नरेंद्र मोदी के निराले बीस वर्ष
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पिछले शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 71वां जन्मदिन जबरदस्त धूमधाम से मनाया

पिछले शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 71वां जन्मदिन जबरदस्त धूमधाम से मनाया। मोदी के आलोचकों ने इसे चाटुकारिता का प्रायोजित प्रदर्शन भले ही करार दिया हो, पर सियासत में कभी भी दो और दो चार नहीं होते। क्या उनके जन्मदिन का प्रयोग भारतीय जनता पार्टी ने कोरोना की मार से कुम्हलाए कार्यकर्ताओं में दोबारा जोश-ओ-खरोश भरने के लिए नहीं किया?

सवाल उठता है, प्रधानमंत्री मोदी भारतीय जनता पार्टी के प्राण-संचारक कैसे बने? इसका जवाब ढूंढ़ते वक्त अब तक के प्रधानमंत्रियों पर नजर डाल यह जानना जरूरी है कि वे अपने पूर्ववर्तियों से अलग कैसे हैं? जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी वंश-परंपरा के प्रतीक थे। नरसिंह राव और मनमोहन सिंह संयोगों की उपज थे। मोरारजी देसाई और विश्वनाथ प्रताप सिंह को जन-प्रतिक्रिया के ज्वार ने प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठाया, पर वे लोगों की उम्मीदों की रक्षा न कर सके। अटल बिहारी वाजपेयी अपनी वरिष्ठता के कारण यहां तक पहुंचे थे, तो शेष बचे लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, चरण सिंह, चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल तात्कालिक समीकरणों की देन थे। अकेले नरेंद्र मोदी ऐसे हैं, जिन्होंने अपने लिए बिना किसी गॉडफादर खुद कदम-दर-कदम यह राह हमवार की है। उनकी सफलता सपनों, साहस, संवाद और स्थितप्रज्ञता की मिसाल है।
मुझे यहां नेपोलियन बोनापार्ट याद आ रहा है। 1789 की फ्रांसीसी राज्य-क्रांति के वक्त वह तोपखाने में अदना सा अधिकारी था। न तो उसके पास कद-काठी थी और न ही वंश परंपरा, लेकिन बदलते हालात पर उसकी पैनी नजर थी। उसने उसी दौरान सम्राट बनने का सपना पाला और उसे चरितार्थ करने के जतन शुरू कर दिए। आश्चर्यजनक तौर पर सिर्फ 15 साल में फ्रांस का राजा बन बैठा। नरेंद्र मोदी ने भी डेढ़ दशक के संगठन के कामकाज के दौरान सियासी षड्यंत्रों और संयोगों को गहरी नजर से देखा। समय और समीकरण बदल रहे थे और वह समझ गए थे कि यह समय अपने ख्वाबों को मंजिल तक पहुंचाने का है।
कहावत है, सपने साहस के बिना मुकाम तक नहीं पहुंचते। मोदी के साहस की एक मिसाल देना चाहूंगा। गुजरात के दंगों के चलते अटल बिहारी वाजपेयी अहमदाबाद गए हुए थे। वहां से 'लाइव फीड' आई, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री कह रहे थे कि सरकार को 'राजधर्म' का पालन करना चाहिए। उनका वाक्य पूरा हुआ ही था कि बगल में बैठे मोदी ने जवाब दिया- 'वही तो कर रहा हूं साहब।' जब सब कुछ लाइव चल रहा हो, तब अटल बिहारी वाजपेयी के सामने यह कहने का साहस उस समय के किसी मुख्यमंत्री में नहीं था। काबिलेगौर है कि 2002 की दुखद घटनाओं के बाद से गुजरात दंगामुक्त है और वहां की समृद्धि में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है।
अहमदाबाद की उस घटना के बाद आयोजित गोवा अधिवेशन में मोदी को हटाने की कोशिश भी की गई, पर मुखर विरोध के कारण अटल और उनके समर्थकों को चुप्पी साधनी पड़ी। यह संयोग ही है कि कुछ बरस बाद 2013 में इसी गोवा में पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर चुना। जैसे मुख्यमंत्री बनते समय उनके सामने दिग्गजों की कतार थी, वैसे ही इस बार भी लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी जैसे महारथी उनके सामने खडे़ थे। मोदी बिना पलक झपकाए आगे बढ़ते गए। वह किसी को मिटाए बिना बस अपनी लकीर लंबी कर रहे थे।
मोदी जानते हैं, अपनी उपलब्धियों को बचाने और बढ़ाने का एक ही जरिया है- सतत संवाद। मीडिया और विपक्ष को उनसे अबोले की शिकायत है। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पिछले सात वर्षों में उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र काशी के 27 चक्कर लगाए हैं। वाराणसी के दर्जनों लोगों से उनकी सीधी बातचीत है। इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों से ऐसा रिश्ता नहीं रखा। सिर्फ वाराणसी ही नहीं, पूरे देश के साथ भी वह निरंतर संवाद करते रहते हैं। 'मन की बात' के अब तक हुए 80 प्रसारण इसके उदाहरण हैं। संवाद की इस अनूठी कला और नवीनतम टेक्नोलॉजी के सतत इस्तेमाल से उन्होंने मतदाताओं के मन में भरोसा जमाने में कामयाबी हासिल की है। यही वजह है कि नोटबंदी, कोरोना, महंगाई के बावजूद बड़ी संख्या में लोगों का भरोसा उनमें कायम है। पिछले दिनों युवा उद्यमी और शोधकर्ता विवान मारवाह ने गहन सर्वेक्षण में पाया कि नई उमर की नई फसल उन्हें पितृ-पुरुष के तौर पर देखती है। उन्हें मोदी में ऐसा संरक्षक नजर आता है, जो उनकी समस्याओं को हल करने के लिए ईमानदारी से प्रयासरत है।
उनके प्रति भरोसा कायम रखने में राम मंदिर और कश्मीर ने भी बड़ी भूमिका अदा की है। किसी वक्त वह लालकृष्ण आडवाणी के रामरथ और मुरली मनोहर जोशी की 'एकता यात्रा'के कर्ता-धर्ता होते थे। भाजपा पहले भी सत्ता में आई, पर कश्मीर से अनुच्छेद 370 की विदाई और राज्य का विभाजन उन्हीं के वक्त में हुआ। अयोध्या में राम मंदिर भी 2023 तक पूरा करने की कोशिश की जा रही है। बिना खून-खराबे के यह सब होना बहुसंख्यकों को लुभाता है। विपक्षी इसे विभाजन की राजनीति कहते हैं, पर सियासत में कुछ आरोप आभूषण का काम करते हैं। आप हर चर्चा में दो तरह के लोग पाएंगे। धुर मोदी विरोधी और घनघोर प्रशंसक। इस अभूतपूर्व वैचारिक बंटवारे के बावजूद वह सफल सियासतदां हैं। क्यों?
मोदी इसके लिए जबरदस्त मेहनत करते हैं। बीते साल अगस्त में प्रधानमंत्री को देर रात खबर दी गई कि त्रिपुरा में इंफ्लुएंजा का प्रकोप फैल रहा है। उन्होंने आधी रात को मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार देब को फोन कर आदेश दिया कि समूची कार्य-योजना के साथ दोपहर तक उन्हें रिपोर्ट करें। कोरोना काल में भी उन्होंने न केवल पक्ष-विपक्ष के मुख्यमंत्रियों से लगातार संवाद कायम रखा, बल्कि उसे जगजाहिर भी कर दिया। वह जानते हैं कि राजनीति अवधारणाओं का खेल है। 'टीम मोदी' इसे मजबूत रखने की हर चंद कोशिश करती है।
सियासत के सफर में सब कुछ अच्छा हो, यह जरूरी नहीं। दिल्ली, बंगाल और दक्षिण के विधानसभा चुनावों में कुल मिलाकर भाजपा का मत-प्रतिशत तो बढ़ा, पर सरकार न बन सकी। इन पराजयों के अलावा महंगाई और बेरोजगारी की चुनौतियां सामने खड़ी हैं। हालांकि, कोरोना में जिन देशों की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटती दीख रही है, उनमें भारत अव्वल है। पिछली तिमाही में भारत की जीडीपी 20.1 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी। यह आंकड़ा उम्मीद पैदा करता है।
उनके विरोधियों का मानना है कि हर नेपोलियन का एक 'वाटर लू' होता है, पर यह भी सच है कि पराजयों के डर से जियाले जंग लड़ना नहीं छोड़ते। नरेंद्र मोदी के गुजरे 20 साल इसकी मुनादी करते हैं।

शशि शेखर, प्रधान संपादक, हिन्दुस्तान
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