सम्पादकीय

वियतनाम युद्ध की कहानी बताती है कि क्यों भारत को कभी भी चीन पर भरोसा नहीं करना चाहिए?

Gulabi Jagat
26 March 2022 7:23 AM GMT
वियतनाम युद्ध की कहानी बताती है कि क्यों भारत को कभी भी चीन पर भरोसा नहीं करना चाहिए?
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वियतनाम युद्ध की कहानी
के वी रमेश।
साल 1983 में, दिल्ली में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (Non-Aligned Summit) के मौके पर, तत्कालीन वियतनामी विदेश मंत्री गुयेन थाच ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया. यह वह वक्त था जब वियतनाम और चीन (China) के बीच भारी तनाव था और जब उत्तरी वियतनाम ने अमेरिकी सेना (US Army) से युद्ध जीतकर विभाजित राष्ट्र को एकजुट किया था, और हारी हुई अमेरिकी सेना अपने राष्ट्रीय झंडे को अपने दूतावास के ऊपर छोड़कर साइगॉन से भाग चुकी थी. इसके चार साल पहले, उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम बेहद करीबी रिश्ता रखते थे, लेकिन अचानक ये एक-दूसरे के खिलाफ हो गए और इनके बीच जोरदार युद्ध छिड़ गया, जिसमें हजारों लोगों की जान चली गई.
इस युद्ध के कई कारण थे, इनमें साउथ चाइना सी में विवादित पैरासेल्सस (स्प्रैटली) द्वीपों पर वियतनाम का अपने दावे को छोड़ देना, चीन और वियतनाम की सीमा वाले क्षेत्रों में रहने वाले एक चीनी अल्पसंख्यक का कथित दमन और क्रूर पोल पॉट द्वारा शासित कम्पूचिया (अब कंबोडिया) पर वियतनाम का आक्रमण वगैरह शामिल थे.
चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता
जब चीन ने फरवरी 1979 के अंतिम हफ्ते में वियतनामी लोगों को "सबक सिखाने" के लिए वियतनाम पर आक्रमण किया, तो चीनी लोगों ने, जैसा कि इन दिनों यूक्रेन में रूस की सोच है, सोचा कि वे आसानी से जीत हासिल कर सकते हैं और पहले से युद्ध में थके-हारे वियतनामी को रौंद सकते हैं. यह युद्ध इन दोनों के लिए महंगा पड़ा. जुझारू वियतनामी लोगों ने चीन आक्रमणकर्ताओं को जोरदार पटकनी दी, इसमें करीब 7 हजार से लेकर 26 हजार लोग मारे गए और करीब 37 हजार घायल हुए. चीन की यह एक ऐसी हार थी, जिसे वह लंबे वक्त तक नहीं भूला होगा और तब से अब तक वह वियतनाम को उकसाने की कोशिश करने से बचते रहा है.
जब गुयेन थाच (वे फरवरी 1980 से जुलाई 1991 तक वियतनाम के विदेश मंत्री रहे) ने मंच संभाला, तब इस लेखक सहित वहां उपस्थित संवाददाताओं के प्रश्न हमेशा की तरह चीनियों के साथ जारी तनाव के बारे में थे. गुयेन जो एक चतुर राजनयिक थे, उन्होंने चीन के चरित्र के बारे में विस्तार से बात की. उन्होंने बताया कि दोनों देशों के बीच संबंध इतने कटु क्यों हो गए. गुयेन ने कहा था कि चीन पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता.
बड़े नाटकीय अंदाज में, गुयेन ने अपना दाहिना हाथ अपने सिर के ऊपर और अपने बाएं हाथ को अपनी कमर के नीचे रखा. अपने दाहिने हाथ की अंगुलियों को हिलाते हुए, जिन्हें हर कोई आश्चर्यजनक रूप से देख मोह से देख रहे थे, उन्होंने अपने बाएं हाथ को हिलाया और कहा: "चीन एक जादूगर की तरह है. यदि वह एक हाथ से कुछ कर रहा है, तो आपको उसके दूसरे हाथ को जरूर देखना चाहिए." इस दौरान उपस्थित मीडिया के बीच ठहाके लगने लगे.
"कभी भरोसा न करें और हमेशा जांच करें"
चीनी सरकार के बारे में किया गया यहा आकलन आज भी सटीक बैठता है. सोवियत यूनियन के साथ SALT II समझौते के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन अक्सर यह कहा करते थे कि "भरोसा करें, लेकिन इसकी जांच भी करें", लेकिन चीन के मद्देनजर इस वाक्य को बदलकर यह कहा जा सकता है कि "कभी भरोसा न करें और हमेशा जांच करें." चीन में काम कर चुके दो पूर्व राजदूत, गौतम बंबावले और विजय गोखले चीन को सामान्य तरह से देखने पर चेतावनी देते रहे हैं. चीन में भारत के पिछले राजदूत विक्रम मिश्री, जो अब डिप्टी एनएसए बन चुके हैं, भी इसी तरह की सलाह देंगे. और बीजिंग में भारतीय दूतावास में नए राजदूत प्रदीप कुमार रावत को भी ऐसी ही सलाह दी गई होगी. चीन को लेकर केवल एक चीज निश्चित है, वह है उसके साथ व्यापार संबंध. इससे चीनी की सोच को समझा जा सकता है. क्योंकि यह रिश्ता आर्थिक लेन-देन वाला होता है इसलिए इसमें गलतफहमी की कोई गुंजाइश नहीं है. लेकिन जहां तक बात राजनयिक संबंधों की है तो, पुरानी बुरी यादों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चीनी अस्पष्ट, गूढ़, विरोधाभासी और अधिकांशत: भ्रमित करने वाले होते हैं.
हैरानी की बात यह है कि चीनी मीडिया ने ओआईसी की बैठक में वांग के भाषण की रिपोर्टिंग करते समय कश्मीर पर उनके विचार का जिक्र नहीं किया. चीनी न्यूज एजेंसी Xinhua की रिपोर्ट कश्मीर पर खामोश थी. इस मामले में, यहां तक कि पाकिस्तानी प्रिंट मीडिया, जिसे भारत के खिलाफ रिपोर्ट करने में हमेशा खुशी होती है, ने भी वांग की टिप्पणियों की रिपोर्टिंग नहीं की. क्या यह सोची समझी रणनीति थी कि सम्मेलन में वांग कश्मीर के बारे में अपनी अप्रत्यक्ष रूप से भ्रमित करने वाली टिप्पणी करेंगे और चीनी मीडिया को रिपोर्टिंग न करने का निर्देश दिया गया था ताकि उन पर इसके लिए किसी तरह का दोष न लगाया जाए. पाकिस्तानियों को भी यह कहा गया होगा कि वे भी ऐसा न करें.
यदि ऐसा हुआ होगा तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. मीडिया पर अपने नियंत्रण के साथ चीनी नेता कुछ भी कह सकते हैं और इससे दूरी भी बना लेते हैं. मामला चाहे जो भी हो, घुमा फिराकर, तीखी भाषा में टिप्पणी करने की उनकी प्रवृत्ति उनके लिए फायदेमंद होता है. क्योंकि उनकी टिप्पणियों को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से समझ सकते हैं. इसलिए सबक स्पष्ट है. वांग यी जब भी यहां आएं, तो उनसे जरूर बात करें. चीन के साथ संबंध बनाए रखें. लेकिन हमेशा इस लाइन को याद रखें कि "कभी भरोसा न करें और हमेशा जांच करें."
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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