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बंगाल चुनाव
भद्रलोक की राजनीति की धुरी बन चुकीं ममता बनर्जी और वामपंथी राजनीति के पुरोधा पुरुष ज्योति बसु को लेकर एक किस्सा भद्र लोक चटखारे लेकर तब सुनाता था, जब ज्योति बसु जीवित थे। ममता के हाथों अपना बनाया लाल दुर्ग ढहते देखने से सवा साल पहले ही गुजर चुके ज्योति बसु को जिन्होंने देखा है, उनके करीने से काढ़े गए बाल हमेशा चिपके रहते थे।
तो किस्सा-कोताह यह है कि एक बार ज्योति दा नाई के पास हजामत बनवाने गए। नाई ने उनके सिर पर पानी की फुहार छोड़ी, कंघी और कैंची पकड़ी और उनके बाल खड़े करने की कोशिश करने लगा। लेकिन बाल थे कि खड़े ही नहीं हो रहे थे। चिपके के चिपके ही रह जाते थे।
नाई ने तमाम कोशिशें कर लीं, लेकिन बाल सीधे हो ही नहीं रहे थे। नाई के सामने संकट...कि वह ज्योति दा के बाल कैसे काटे।
ऐसे में उसे एक उपाय सूझा, अचानक बांग्ला में वह चिल्ला पड़ा....दादा.....दीदी.....
कहना न होगा कि ज्योति दा के बाल खड़े हो गए और नाई ने चटपट ज्योति दा की हजामत बना दी।
ममता की राजनीतिक यात्रा
ममता अपनी लड़ाका छवि और तुनकमिजाजी के चलते वामपंथी खेमे के लिए परेशानी का सबब रही हैं। दरअसल, हास्य का यह प्रसंग भी उनकी तुनकमिजाजी की ताकत को ही जाहिर करता है। उनके लड़ाकूपन को पहली बार आधिकारिक रूप देखने वाले और भारत सरकार को रिपोर्ट भेजने वाले खुफिया ब्यूरो के एक अवकाशप्राप्त अधिकारी कहते हैं- "जब उन्होंने 1974 के आस-पास जब ममता पर ध्यान देने की रिपोर्ट भेजी थी तो उनके अधिकारी चौंक उठे थे।"
जाहिर है तब सुब्रत मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय छात्रसंघ में एनएसयूआई के सितारा थे। उन्हीं की टीम में साधारण-सी दिखने वाली लड़की भी थी, जिसकी तुनकमिजाजी तभी से दिखने लगी थी। लेकिन उसकी लड़ाका स्वभाव की तपिश पहली बार भद्रलोक ने 1975 में आपातकाल के ठीक पहले देखा, जब कोलकाता पहुंचे जयप्रकाश नारायण की कार को एनएसयूआई की उस लड़की ने अपने समर्थकों के साथ ना सिर्फ घेर लिया, बल्कि कार की बोनट पर चढ़कर उसने नृत्य किया था।
बांग्ला समाज संस्कृति प्रेमी है, क्लासिक नृत्य-गीत में उसकी बहुत दिलचस्पी है। सार्वजनिक तौर पर भद्रलोक ने शायद ही कार की बोनट पर नटरंग की छवि वाला तांडव देखा होगा। 1942 की क्रांति का नायक भले ही बूढ़ा हो गया था, लेकिन उसकी एक पुकार पर इंदिरा के खिलाफ देश उठ खड़ा हुआ था, उस लोकनायक के खिलाफ ममता का यह रूख देखकर तब भद्रलोक ने दांतों तले उंगली ही नहीं दबा ली थी, बल्कि मान लिया था कि यह लड़की एक दिन आगे जाएगी। खुफिया ब्यूरो के वह अधिकारी याद करते हैं कि इसके बाद ममता को लिखी उनकी रिपोर्ट पर जैसे तस्दीक लग गई थी।
यह सच है कि ममता बनर्जी राजनीति की रपटीली राह पर सुब्रत मुखर्जी के सहयोगी के तौर पर आगे बढ़ीं, लेकिन अब पीछे मुड़कर देखें तो सुब्रत मुखर्जी उनके आसपास भी नहीं दिखते।
क्यों तुनकमिजाज रही हैं ममता
भद्रलोक के खेतों-खलिहानों से लेकर मैदानों तक इन दिनों भारतीय जनता पार्टी लड़ाका ममता बनर्जी को चुनौती देती नजर आ रही है। शायद भारतीय जनता पार्टी डेढ़ दशक पहले के वाकयों को भी याद कर रही है। जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा रहते हुए ममता ने भाजपा के शिखर पुरूष अटल बिहारी वाजपेयी की नाक में कम दम नहीं कर रखा था। जब समता पार्टी के नीतीश कुमार को अटल बिहारी वाजपेयी ने रेल मंत्री बनाया था तो ममता रूठ गई थीं।
नाक में दम करने की बात को मजाक में ही सही, अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी मां से स्वीकार किया था। कोलकाता की एक यात्रा के दौरान ममता बनर्जी कालीघाट स्थित अपने घर भी ले गई थीं। उदारमना वाजपेयी इससे इनकार नहीं कर सके थे। घर पर जब ममता ने अपनी मां से वाजपेयी की मुलाकात कराई थी, तब वाजपेयी ने उनकी मां से कहा था, 'आपकी बेटी मुझे बहुत तंग करती है।'
ममता बनर्जी की तुनक मिजाजी से जुड़ा एक और किस्सा याद आ रहा है।
पहले रेल बजट हर साल 26 फरवरी को ही प्रस्तुत होता था। उस दिन रेल मंत्री लोकसभा में रेल बजट पेश करता था। उसके कुछ देर बाद रेल भवन में पूरे रेलवे बोर्ड की प्रेस कांफ्रेंस होती थी, जिसमें रेलवे बोर्ड बजट प्रस्तावों की व्याख्या करता था और पत्रकारों के सवालों का जवाब देता था। लेकिन ममता ही क्या, जो अपनी अलग परंपरा ना बनाएं।
साल 2000 की 26 फरवरी को अपना पहला रेल बजट प्रस्तुत करने के बाद ममता रेल भवन पहुंच गईं। रेलवे बोर्ड की प्रेस कांफ्रेंस के बाद रेल भवन के उसी हॉल में ममता भी प्रेस से मिलने पहुंच गई। उस रेल बजट में ऐसा लग रहा था कि उनका वश चलता तो सारी नई रेलगाड़ियों का रुख बंगाल और कोलकाता की ओर मोड़ देती थीं।
प्रेस कांफ्रेंस में जैसे ही ममता का वक्तव्य खत्म हुआ, तब दो पत्रकारों ने दो कोनों से एक साथ एक ही बात कही। बस अंतर यह था कि एक की बात हिंदी में थी और दूसरे की अंग्रेजी में। दोनों ने ही मासूमियत से कहा, 'ममता दी, आपने बंगाल के लिए कुछ नहीं किया।'
इस बात में छिपे व्यंग्य को ममता ताड़ गईं और एकदम से बिफर गईं। उन्होंने अंग्रेजी में तपाक से दोनों पत्रकारों को जवाब दिया, 'हे, इंडिया इज माई मदरलैंड एंड बंगाल इज माई स्वीट होम..' आवाज में तल्खी इतनी थी कि उसे वहां उपस्थित तमाम पत्रकारों ने महसूस किया था। इसके बाद जैसे वह फट पड़ी थीं और लंबा-चौड़ा भाषण ही दे दिया था।
जब वाजपेयी पहुंचे थे ममता दीदी के घर
ममता की तुनकमिजाजी से जुड़ा एक और किस्सा लोग भूल गए हैं। साल 2003 की गर्मियों में वाजपेयी मंत्रिमंडल में फेरबदल होने जा रहा था। राष्ट्रपति भवन में कुर्सियां लग गई थीं। परंपरा यह है कि भावी कैबिनेट मंत्रियों की संख्या के मुताबिक पहली लाइन में कुर्सियां लगाई जाती हैं और राज्यमंत्रियों के लिए दूसरी लाइन में। पहली लाइन में दो कुर्सियां लगी थीं, जबकि पीछे की पंक्ति में सात। यानी दो कैबिनेट और सात राज्य मंत्री शपथ लेने वाले थे। मीडिया को पता था कि ममता बनर्जी की मंत्रिमंडल में वापसी होने जा रही है। राष्ट्रपति भवन में आगंतुकों की सीटें भर रही थीं, कि अचानक पहली लाइन की एक कुर्सी हटा ली गई। ममता बनर्जी ने ऐन मौके पर शपथ लेने से इनकार कर दिया था।
ममता बनर्जी की सफलता का राज उनका संघर्षशील स्वभाव है। उनकी पहचान उनकी सादगी रही है। रेल मंत्री बनने के बाद भी वे अपनी पुरानी फियेट से संसद पहुंचती थीं। जिसे उनके पीए चलाते थे। सूती साड़ी और रबर की चप्पल उनकी पहचान थी।
इस देश की संस्कृति की पर एक खास वर्ग द्वारा भले ही सवाल उठाए जाते रहे हों, लेकिन यह सच है कि हजारों-हजार साल से यह देश उस पर मर मिटता रहा है, जो साधु जीवन जीता है। सादगी वाली जिंदगी उस साधुता का ही प्रतीक होती थी। जब तक ममता की जिंदगी में सादगी बनी रही, उन पर जनता भरोसा करती रही। वामपंथ के चरम उत्थान के दौर में भी वह भद्रलोक की पसंद बनी रही। लेकिन बंगाल की सत्ता हासिल करने के बाद जैसे-जैसे उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी की दखल बढ़ने लगी, बंगाल की शेरनी की छवि में भी दरार पड़ने लगी। आज अगर उन्हें चुनौती मिलती दिख रही है तो यह बड़ी वजह है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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